०२ नल-नीलद्वारा पुल बाँधना, श्रीरामजीद्वारा श्रीरामेश्वरकी स्थापना

सोरठा

मूल (दोहा)

सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रके वचन सुनकर प्रभु श्रीरामजीने मन्त्रियोंको बुलाकर ऐसा कहा—अब विलम्ब किसलिये हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।

मूल (दोहा)

सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा—हे सूर्यकुलके ध्वजा-स्वरूप (कीर्तिको बढ़ानेवाले) श्रीरामजी! सुनिये। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिसपर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसाररूपी समुद्रसे पार हो जाते हैं।

मूल (चौपाई)

यह लघु जलधि तरत कति बारा।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर यह छोटा-सा समुद्र पार करनेमें कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्रीहनुमान् जीने कहा—प्रभुका प्रताप भारी बड़वानल (समुद्रकी आग) के समान है। इसने पहले समुद्रके जलको सोख लिया था॥ १॥

मूल (चौपाई)

तव रिपु नारि रुदन जल धारा।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु आपके शत्रुओंकी स्त्रियोंके आँसुओंकी धारासे यह फिर भर गया और उसीसे खारा भी हो गया। हनुमान् जीकी यह अत्युक्ति (अलङ्कारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्रीरघुनाथजीकी ओर देखकर हर्षित हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

जामवंत बोले दोउ भाई।
नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयोंको बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनायी (और कहा—) मनमें श्रीरामजीके प्रतापको स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रतापसे) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बोलि लिए कपि निकर बहोरी।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
कौतुक एक भालु कपि करहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वानरोंके समूहको बुला लिया (और कहा—) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिये। अपने हृदयमें श्रीरामजीके चरण-कमलोंको धारण कर लीजिये और सब भालू और वानर एक खेल कीजिये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

धावहु मर्कट बिकट बरूथा।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा।
जय रघुबीर प्रताप समूहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकट वानरोंके समूह (आप) दौड़ जाइये और वृक्षों तथा पर्वतोंके समूहोंको उखाड़ लाइये। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुंकार) करके और श्रीरघुनाथजीके प्रतापसमूहकी (अथवा प्रतापके पुंज श्रीरामजीकी) जय पुकारते हुए चले॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षोंको खेलकी तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नीलको देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुन्दर) सेतु बनाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सैल बिसाल आनि कपि देहीं।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंदकी तरह ले लेते हैं। सेतुकी अत्यन्त सुन्दर रचना देखकर कृपासिन्धु श्रीरामजी हँसकर वचन बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

परम रम्य उत्तम यह धरनी।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना।
मोरे हृदयँ परम कलपना॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह (यहाँकी) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजीकी स्थापना करूँगा। मेरे हृदयमें यह महान् संकल्प है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि कपीस बहु दूत पठाए।
मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके वचन सुनकर वानरराज सुग्रीवने बहुत-से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियोंको बुलाकर ले आये। शिवलिङ्गकी स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया। (फिर भगवान् बोले—) शिवजीके समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शिवसे द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्नमें भी मुझे नहीं पाता। शङ्करजीसे विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनको शङ्करजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं; एवं जो शिवजीके द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरकमें निवास करते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य (मेरे स्थापित किये हुए इन) रामेश्वरजीका दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोकको जायँगे। और जो गङ्गाजल लाकर इनपर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात् मेरे साथ एक हो जायगा)॥ १॥

मूल (चौपाई)

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्रीरामेश्वरजीकी सेवा करेंगे, उन्हें शङ्करजी मेरी भक्ति देंगे। और जो मेरे बनाये सेतुका दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्रसे तर जायगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम बचन सब के जिय भाए।
मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती।
संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके वचन सबके मनको अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमोंको लौट आये। (शिवजी कहते हैं—) हे पार्वती! श्रीरघुनाथजीकी यह रीति है कि वे शरणागतपर सदा प्रीति करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बाँधा सेतु नील नल नागर।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई।
भए उपल बोहित सम तेई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर नल और नीलने सेतु बाँधा। श्रीरामजीकी कृपासे उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरोंको डुबा देते हैं, वे ही जहाजके समान (स्वयं तैरनेवाले और दूसरोंको पार ले जानेवाले) हो गये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

महिमा यह न जलधि कइ बरनी।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह न तो समुद्रकी महिमा वर्णन की गयी है, न पत्थरोंका गुण है और न वानरोंकी ही कोई करामात है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरके प्रतापसे पत्थर भी समुद्रपर तैर गये। ऐसे श्रीरामजीको छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामीको जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई।
गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नल-नीलने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखनेपर वह कृपानिधान श्रीरामजीके मनको (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरोंके समुदाय गरज रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई।
चितव कृपाल सिंधु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा।
प्रगट भए सब जलचर बृंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपालु श्रीरघुनाथजी सेतुबन्धके तटपर चढ़कर समुद्रका विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणाके मूल) प्रभुके दर्शनके लिये सब जलचरोंके समूह प्रकट हो गये (जलके ऊपर निकल आये)॥ २॥

मूल (चौपाई)

मकर नक्र नाना झष ब्याला।
सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं।
एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत तरहके मगर, नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजनके बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे जो उनको भी खा जायँ। किसी-किसीके डरसे तो वे भी डर रहे थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे।
मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी।
मगन भए हरि रूप निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभुके दर्शन कर रहे हैं, हटानेसे भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं; सब सुखी हो गये। उनकी आड़के कारण जल नहीं दिखायी पड़ता। वे सब भगवान् का रूप देखकर (आनन्द और प्रेममें) मग्न हो गये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

चला कटकु प्रभु आयसु पाई।
को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर सेना चली। वानर-सेनाकी विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है?॥ ५॥

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