११ गुफामें तपस्विनीके दर्शन वानरोंका समुद्रतटपर आना, सम्पातीसे भेंट और बातचीत

मूल (चौपाई)

लागी तृषा अतिषय अकुलाने।
मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना।
मरन चहत सब बिनु जल पाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही सबको अत्यन्त प्यास लगी, जिससे सब अत्यन्त ही व्याकुल हो गये। किन्तु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगलमें सब भुला गये। हनुमान् जीने मनमें अनुमान किया कि जल पिये बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा।
भूमि बिबर एक कौतुक पेखा॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं।
बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पहाड़की चोटीपर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वीके अंदर एक गुफामें उन्हें एक कौतुक (आश्चर्य) दिखायी दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत-से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गिरि ते उतरि पवनसुत आवा।
सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा।
पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनकुमार हनुमान् जी पर्वतसे उतर आये और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलायी। सबने हनुमान् जीको आगे कर लिया और वे गुफामें घुस गये, देर नहीं की॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत-से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुन्दर मन्दिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥ २४॥

मूल (चौपाई)

दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा।
पूछें निज बृत्तांत सुनावा॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना।
खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूरसे ही सबने उसे सिर नवाया और पूछनेपर अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। तब उसने कहा—जलपान करो और भाँति-भाँतिके रसीले सुन्दर फल खाओ॥ १॥

मूल (चौपाई)

मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए।
तासु निकट पुनि सब चलि आए॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई।
मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आज्ञा पाकर) सबने स्नान किया, मीठे फल खाये और फिर सब उसके पास चले आये। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनायी (और कहा—) मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मूदहु नयन बिबर तजि जाहू।
पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा।
ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोग आँखें मूँद लो और गुफाको छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीताजीको पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)। आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्रके तीरपर खडे़ हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा।
जाइ कमल पद नाएसि माथा॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही।
अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वह स्वयं वहाँ गयी जहाँ श्रीरघुनाथजी थे। उसने जाकर प्रभुके चरणकमलोंमें मस्तक नवाया और बहुत प्रकारसे विनती की। प्रभुने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुकी आज्ञा सिरपर धारणकर और श्रीरामजीके युगल चरणोंको, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वन्दना करते हैं, हृदयमें धारणकर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रमको चली गयी॥ २५॥

मूल (चौपाई)

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं।
बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता।
बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ वानरगण मनमें विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गयी; पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपसमें बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजीकी खबर लिये बिना लौटकर भी क्या करेंगे?॥ १॥

मूल (चौपाई)

कह अंगद लोचन भरि बारी।
दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई।
उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदने नेत्रोंमें जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकारसे हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीताजीकी सुध नहीं मिली और वहाँ जानेपर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

पिता बधे पर मारत मोही।
राखा राम निहोर न ओही॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं।
मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तो पिताके वध होनेपर ही मुझे मार डालते। श्रीरामजीने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीवका कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अंगद बचन सुनत कपि बीरा।
बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे।
पुनि अस बचन कहत सब भए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर वीर अंगदके वचन सुनते हैं; किन्तु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रोंसे जल बह रहा है। एक क्षणके लिये सब सोचमें मग्न हो रहे। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना।
नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई।
बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुयोग्य युवराज! हमलोग सीताजीकी खोज लिये बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवणसागरके तटपर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गये॥ ५॥

मूल (चौपाई)

जामवंत अंगद दुख देखी।
कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु।
निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाम्बवान् ने अंगदका दुःख देखकर विशेष उपदेशकी कथाएँ कहीं। (वे बोले—) हे तात! श्रीरामजीको मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो॥ ६॥

मूल (चौपाई)

हम सब सेवक अति बड़भागी।
संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम सब सेवक अत्यन्त बड़भागी हैं, जो निरन्तर सगुण ब्रह्म (श्रीरामजी) में प्रीति रखते हैं॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणोंके लिये प्रभु अपनी इच्छासे (किसी कर्मबन्धनसे नहीं) अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकारके मोक्षोंको त्यागकर उनकी सेवामें साथ रहते हैं॥ २६॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती।
गिरि कंदराँ सुनी संपाती॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा।
मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकारसे कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वतकी कन्दरामें सम्पातीने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत-से वानर देखे। (तब वह बोला—) जगदीश्वरने मुझको घर बैठे बहुत-सा आहार भेज दिया!॥ १॥

मूल (चौपाई)

आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ।
दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा।
आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज इन सबको खा जाऊँगा। बहुत दिन बीत गये, भोजनके बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाताने एक ही बारमें बहुत-सा भोजन दे दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

डरपे गीध बचन सुनि काना।
अब भा मरन सत्य हम जाना॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी।
जामवंत मन सोच बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीधके वचन कानोंसे सुनते ही सब डर गये कि अब सचमुच ही मरना हो गया, यह हमने जान लिया। फिर उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए। जाम्बवान् के मनमें विशेष सोच हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कह अंगद बिचारि मन माहीं।
धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदने मनमें विचारकर कहा—अहा! जटायुके समान धन्य कोई नहीं है। श्रीरामजीके कार्यके लिये शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान् के परमधामको चला गया॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनि खग हरष सोक जुत बानी।
आवा निकट कपिन्ह भय मानी॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई।
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हर्ष और शोकसे युक्त वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरोंके पास आया। वानर डर गये। उनको अभय करके (अभय-वचन देकर) उसने पास जाकर जटायुका वृत्तान्त पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनायी॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सुनि संपाति बंधु कै करनी।
रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई जटायुकी करनी सुनकर सम्पातीने बहुत प्रकारसे श्रीरघुनाथजीकी महिमा वर्णन की॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उसने कहा—) मुझे समुद्रके किनारे ले चलो, मैं जटायुको तिलाञ्जलि दे दूँ। इस सेवाके बदले मैं तुम्हारी वचनसे सहायता करूँगा (अर्थात् सीताजी कहाँ हैं सो बतला दूँगा) जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे॥ २७॥

मूल (चौपाई)

अनुज क्रिया करि सागर तीरा।
कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई।
गगन गए रबि निकट उड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रके तीरपर छोटे भाई जटायुकी क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा—हे वीर वानरो! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानीमें एक बार आकाशमें उड़कर सूर्यके निकट चले गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

तेज न सहि सक सो फिरि आवा।
मैं अभिमानी रबि निअरावा॥
जरे पंख अति तेज अपारा।
परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया। (किन्तु) मैं अभिमानी था इसलिये सूर्यके पास चला गया। अत्यन्त अपार तेजसे मेरे पंख जल गये। मैं बड़े जोरसे चीख मारकर जमीनपर गिर पड़ा॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।
लागी दया देखि करि मोही॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा।
देहजनित अभिमान छड़ावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ चन्द्रमा नामके एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकारसे मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देहसम्बन्धी) अभिमानको छुड़ा दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही।
तासु नारि निसिचर पति हरिही॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता।
तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने कहा—) त्रेतायुगमें साक्षात् परब्रह्म मनुष्यशरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्रीको राक्षसोंका राजा हर ले जायगा। उसकी खोजमें प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलनेपर तू पवित्र हो जायगा॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता।
तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू।
सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तेरे पंख उग आयेंगे; चिन्ता न कर। उन्हें तू सीताजीको दिखा देना। मुनिकी वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभुका कार्य करो॥ ५॥

मूल (चौपाई)

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका।
तहँ रह रावन सहज असंका॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई।
सीता बैठि सोच रत अहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिकूट पर्वतपर लङ्का बसी हुई है। वहाँ स्वभावहीसे निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नामका उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीताजी रहती हैं। (इस समय भी) वे सोचमें मग्न बैठी हैं॥ ६॥

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