०८ शरद्-ऋतु-वर्णन

मूल (चौपाई)

बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछिमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गयी और परम सुन्दर शरद्-ऋतु आ गयी। फूले हुए काससे सारी पृथ्वी छा गयी। मानो वर्षा-ऋतुने (कासरूपी सफेद बालोंके रूपमें) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहि सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यके तारेने उदय होकर मार्गके जलको सोख लिया, जैसे सन्तोष लोभको सोख लेता है। नदियों और तालाबोंका निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोहसे रहित संतोंका हृदय!॥ २॥

मूल (चौपाई)

रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदी और तालाबोंका जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममताका त्याग करते हैं। शरद्-ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गये। जैसे समय पाकर सुन्दर सुकृत आ जाते हैं (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पंक न रेनु सोह असि धरनी।
नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

न कीचड़ है न धूल; इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजाकी करनी! जलके कम हो जानेसे मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेकशून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धनके बिना व्याकुल होता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

बिनु घन निर्मल सोह अकासा।
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी।
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना बादलोंका निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओंको छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानोंमें) शरद्-ऋतुकी थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शरद्-ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षाके लिये) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्रीहरिकी भक्ति पाकर चारों आश्रमवाले (नाना प्रकारके साधनरूपी) श्रमोंको त्याग देते हैं॥ १६॥

मूल (चौपाई)

सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मछलियाँ अथाह जलमें हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्रीहरिके शरणमें चले जानेपर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलोंके फूलनेसे तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होनेपर शोभित होता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुंजत मधुकर मुखर अनूपा।
सुंदर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी।
जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं, तथा पक्षियोंके नाना प्रकारके सुन्दर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवेके मनमें वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरेकी सम्पत्ति देखकर दुष्टको होता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

चातक रटत तृषा अति ओही।
जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पपीहा रट लगाये है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्रीशङ्करजीका द्रोही सुख नहीं पाता (सुखके लिये झीखता रहता है)। शरद्-ऋतुके तापको रातके समय चन्द्रमा हर लेता है, जैसे संतोंके दर्शनसे पाप दूर हो जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि इंदु चकोर समुदाई।
चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा।
जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

चकोरोंके समुदाय चन्द्रमाको देखकर इस प्रकार टकटकी लगाये हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रोंसे) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़ेके डरसे इस प्रकार नष्ट हो गये जैसे ब्राह्मणके साथ वैर करनेसे कुलका नाश हो जाता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वर्षा-ऋतुके कारण) पृथ्वीपर जो जीव भर गये थे, वे शरद्-ऋतुको पाकर वैसे ही नष्ट हो गये जैसे सद्गुरुके मिल जानेपर सन्देह और भ्रमके समूह नष्ट हो जाते हैं॥ १७॥

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