०७ वर्षा-ऋतु-वर्णन

दोहा

मूल (दोहा)

प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंने पहलेसे ही उस पर्वतकी एक गुफाको सुन्दर बना (सजा) रखा था। उन्होंने सोच रखा था कि कृपाकी खान श्रीरामजी कुछ दिन यहाँ आकर निवास करेंगे॥ १२॥

मूल (चौपाई)

सुंदर बन कुसुमित अति सोभा।
गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए।
भए बहुत जब ते प्रभु आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर वन फूला हुआ अत्यन्त सुशोभित है। मधुके लोभसे भौंरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं। जबसे प्रभु आये, तबसे वनमें सुन्दर कन्द, मूल, फल और पत्तोंकी बहुतायत हो गयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखि मनोहर सैल अनूपा।
रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा।
करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोहर और अनुपम पर्वतको देखकर देवताओंके सम्राट् श्रीरामजी छोटे भाईसहित वहाँ रह गये। देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओंके शरीर धारण करके प्रभुकी सेवा करने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंगलरूप भयउ बन तब ते।
कीन्ह निवास रमापति जब ते॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई।
सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे रमापति श्रीरामजीने वहाँ निवास किया तबसे वन मङ्गलस्वरूप हो गया। सुन्दर स्फटिकमणिकी एक अत्यन्त उज्ज्वल शिला है, उसपर दोनों भाई सुखपूर्वक विराजमान हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरति नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी छोटे भाई लक्ष्मणजीसे भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञानकी अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकालमें आकाशमें छाये हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरतिरत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजी कहने लगे—) हे लक्ष्मण! देखो, मोरोंके झुंड बादलोंको देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्यमें अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्तको देखकर हर्षित होते हैं॥ १३॥

मूल (चौपाई)

घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजलीकी चमक बादलोंमें ठहरती नहीं, जैसे दुष्टकी प्रीति स्थिर नहीं रहती॥ १॥

मूल (चौपाई)

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें।
खल के बचन संत सह जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

बादल पृथ्वीके समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदोंकी चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टोंके वचन संत सहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई।
जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहि माया लपटानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटी नदियाँ भरकर (किनारोंको) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धनसे भी दुष्ट इतरा जाते हैं (मर्यादाका त्याग कर देते हैं)। पृथ्वीपर पड़ते ही पानी गँदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीवके माया लिपट गयी हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा।
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जल एकत्र हो-होकर तालाबोंमें भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जनके पास चले आते हैं। नदीका जल समुद्रमें जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्रीहरिको पाकर अचल (आवागमनसे मुक्त) हो जाता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी घाससे परिपूर्ण होकर हरी हो गयी है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखण्ड-मतके प्रचारसे सद्‍ग्रन्थ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥ १४॥

मूल (चौपाई)

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों दिशाओंमें मेढकोंकी ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियोंके समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षोंमें नये पत्ते आ गये हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गये हैं जैसे साधकका मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होनेपर हो जाता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

अर्क जवास पात बिनु भयऊ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदार और जवासा बिना पत्तेके हो गये (उनके पत्ते झड़ गये)। जैसे श्रेष्ठ राज्यमें दुष्टोंका उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)। धूल कहीं खोजनेपर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्मको दूर कर देता है (अर्थात् क्रोधका आवेश होनेपर धर्मका ज्ञान नहीं रह जाता)॥ २॥

मूल (चौपाई)

ससि संपन्न सोह महि कैसी।
उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्नसे युक्त (लहलहाती हुई खेतीसे हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुषकी सम्पत्ति। रातके घने अन्धकारमें जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियोंका समाज आ जुटा हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं।
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारी वर्षासे खेतोंकी क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतन्त्र होनेसे स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतोंको निरा रहे हैं (उनमेंसे घास आदिको निकालकर फेंक रहे हैं)। जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मानका त्याग कर देते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

चक्रवाक पक्षी दिखायी नहीं दे रहे हैं; जैसे कलियुगको पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसरमें वर्षा होती है, पर वहाँ घासतक नहीं उगती। जैसे हरिभक्तके हृदयमें काम नहीं उत्पन्न होता॥ ५॥

मूल (चौपाई)

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी अनेक तरहके जीवोंसे भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजाकी वृद्धि होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होनेपर इन्द्रियाँ (शिथिल होकर विषयोंकी ओर जाना छोड़ देती हैं)॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥ १५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी-कभी वायु बड़े जोरसे चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्रके उत्पन्न होनेसे कुलके उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं॥ १५(क)॥

मूल (दोहा)

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥ १५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी (बादलोंके कारण) दिनमें घोर अन्धकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥ १५(ख)॥

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