०४ सुग्रीवका वैराग्य

मूल (चौपाई)

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई।
जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवने कहा—हे रघुवीर! सुनिये, सोच छोड़ दीजिये और मनमें धीरज लाइये। मैं सब प्रकारसे आपकी सेवा करूँगा, जिस उपायसे जानकीजी आकर आपको मिलें॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाके समुद्र और बलकी सीमा श्रीरामजी सखा सुग्रीवके वचन सुनकर हर्षित हुए। (और बोले—) हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वनमें किस कारण रहते हो?॥ ५॥

मूल (चौपाई)

नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई।
प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ।
आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सुग्रीवने कहा—) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनोंमें ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय दानवका एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँवमें आया॥ १॥

मूल (चौपाई)

अर्ध राति पुर द्वार पुकारा।
बाली रिपु बल सहै न पारा॥
धावा बालि देखि सो भागा।
मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने आधी रातको नगरके फाटकपर आकर पुकारा (ललकारा)। बालि शत्रुके बल (ललकार) को सह नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाईके सङ्ग लगा चला गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई।
तब बालीं मोहि कहा बुझाई॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा।
नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मायावी एक पर्वतकी गुफामें जा घुसा। तब बालिने मुझे समझाकर कहा—तुम एक पखवाड़े (पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनोंमें न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी।
निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई।
सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे खरारि! मैं वहाँ महीने भरतक रहा। वहाँ (उस गुफामेंसे) रक्तकी बड़ी भारी धारा निकली। तब (मैंने समझा कि) उसने बालिको मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा। इसलिये मैं वहाँ (गुफाके द्वारपर) एक शिला लगाकर भाग आया॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं।
दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं॥
बाली ताहि मारि गृह आवा।
देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियोंने नगरको बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे (राजसिंहासनपर) देखकर उसने जीमें भेद बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना)। (उसने समझा कि यह राज्यके लोभसे ही गुफाके द्वारपर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ; और यहाँ आकर राजा बन बैठा)॥ ५॥

मूल (चौपाई)

रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी।
हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला।
सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने मुझे शत्रुके समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्रीको भी छीन लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भयसे समस्त लोकोंमें बेहाल होकर फिरता रहा॥ ६॥

मूल (चौपाई)

इहाँ साप बस आवत नाहीं।
तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥
सुनि सेवक दुख दीनदयाला।
फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह शापके कारण यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मनमें भयभीत रहता हूँ। सेवकका दुःख सुनकर दीनोंपर दया करनेवाले श्रीरघुनाथजीकी दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने कहा—) हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाणसे बालिको मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्रकी शरणमें जानेपर भी उसके प्राण न बचेंगे॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग मित्रके दुःखसे दुःखी नहीं होते, उन्हें देखनेसे ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वतके समान दुःखको धूलके समान और मित्रके धूलके समान दुःखको सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥ १॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें स्वभावसे ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसीसे मित्रता करते हैं? मित्रका धर्म है कि वह मित्रको बुरे मार्गसे रोककर अच्छे मार्गपर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणोंको छिपावे॥ २॥

मूल (चौपाई)

देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देने-लेनेमें मनमें शंका न रखे। अपने बलके अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्तिके समयमें तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्रके गुण (लक्षण) ये हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मनमें कुटिलता रखता है—हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँपकी चालके समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्रको तो त्यागनेमें ही भलाई है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र—ये चारों शूलके समान (पीड़ा देनेवाले) हैं। हे सखा! मेरे बलपर अब तुम चिन्ता छोड़ दो। मैं सब प्रकारसे तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए।
बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवने कहा—हे रघुवीर! सुनिये, बालि महान् बलवान् और अत्यन्त रणधीर है। फिर सुग्रीवने श्रीरामजीको दुन्दुभि राक्षसकी हड्डियाँ और तालके वृक्ष दिखलाये। श्रीरघुनाथजीने उन्हें बिना ही परिश्रमके (आसानीसे) ढहा दिया॥ ६॥

मूल (चौपाई)

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती।
बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार बार नावइ पद सीसा।
प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीका अपरिमित बल देखकर सुग्रीवकी प्रीति बढ़ गयी और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालिका वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणोंमें सिर नवाने लगे। प्रभुको पहचानकर सुग्रीव मनमें हर्षित हो रहे थे॥ ७॥

मूल (चौपाई)

उपजा ग्यान बचन तब बोला।
नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
सुख संपति परिवार बड़ाई।
सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपासे अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, सम्पत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा॥ ८॥

मूल (चौपाई)

ए सब राम भगति के बाधक।
कहहिं संत तव पद अवराधक॥
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।
मायाकृत परमारथ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि आपके चरणोंकी आराधना करनेवाले संत कहते हैं कि ये सब (सुख-सम्पत्ति आदि) रामभक्तिके विरोधी हैं। जगत् में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख (आदि द्वन्द्व) हैं, सब-के-सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तवमें ) नहीं हैं॥ ९॥

मूल (चौपाई)

बालि परम हित जासु प्रसादा।
मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई।
जागें समुझत मन सकुचाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे श्रीरामजी! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपासे शोकका नाश करनेवाले आप मुझे मिले; और जिसके साथ अब स्वप्नमें भी लड़ाई हो तो जागनेपर उसे समझकर मनमें संकोच होगा (कि स्वप्नमें भी मैं उससे क्यों लड़ा)॥ १०॥

मूल (चौपाई)

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती।
सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी।
बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! अब तो इस प्रकार कृपा कीजिये कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीवकी वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्यको देखकर) हाथमें धनुष धारण करनेवाले श्रीरामजी मुसकराकर बोले—॥ ११॥

मूल (चौपाई)

जो कछु कहेहु सत्य सब सोई।
सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस बेद अस गावत॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है; परन्तु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता (अर्थात् बालि मारा जायगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि—) हे पक्षियोंके राजा गरुड़! नट (मदारी) के बंदरकी तरह श्रीरामजी सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं॥ १२॥

मूल (चौपाई)

लै सुग्रीव संग रघुनाथा।
चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा।
गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सुग्रीवको साथ लेकर और हाथोंमें धनुष-बाण धारण करके श्रीरघुनाथजी चले। तब श्रीरघुनाथजीने सुग्रीवको बालिके पास भेजा। वह श्रीरामजीका बल पाकर बालिके निकट जाकर गरजा॥ १३॥

मूल (चौपाई)

सुनत बालि क्रोधातुर धावा।
गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा।
ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बालि सुनते ही क्रोधमें भरकर वेगसे दौड़ा। उसकी स्त्री ताराने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे नाथ! सुनिये, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बलकी सीमा हैं॥ १४॥

मूल (चौपाई)

कोसलेस सुत लछिमन रामा।
कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कोसलाधीश दशरथजीके पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राममें कालको भी जीत सकते हैं॥ १५॥

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