०३ सुग्रीवका दुःख सुनाना, बालिवधकी प्रतिज्ञा, श्रीरामजीका मित्र-लक्षण-वर्णन

दोहा

मूल (दोहा)

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी ने दोनों ओरकी सब कथा सुनाकर अग्निको साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात् अग्निकी साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा।
लछिमन राम चरित सब भाषा॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी।
मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंने (हृदयसे) प्रीति की, कुछ भी अन्तर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजीने श्रीरामचन्द्रजीका सारा इतिहास कहा। सुग्रीवने नेत्रोंमें जल भरकर कहा—हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जायँगी॥ १॥

मूल (चौपाई)

मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा।
बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पंथ देखी मैं जाता।
परबस परी बहुत बिलपाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं एक बार यहाँ मन्त्रियोंके साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराये (शत्रु) के वशमें पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजीको आकाशमार्गसे जाते देखा था॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम राम हा राम पुकारी।
हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा।
पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमें देखकर उन्होंने ‘राम! राम! हा राम!’ पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। श्रीरामजीने उसे माँगा, तब सुग्रीवने तुरंत ही दे दिया। वस्त्रको हृदयसे लगाकर श्रीरामचन्द्रजीने बहुत ही सोच किया॥ ३॥

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