१४ शबरीपर कृपा, नवधा भक्ति-उपदेश और पम्पासरकी ओर प्रस्थान

मूल (चौपाई)

ताहि देइ गति राम उदारा।
सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदार श्रीरामजी उसे गति देकर शबरीजीके आश्रममें पधारे। शबरीजीने श्रीरामचन्द्रजीको घरमें आये देखा, तब मुनि मतङ्गजीके वचनोंको याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजावाले, सिरपर जटाओंका मुकुट और हृदयपर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाइयोंके चरणोंमें शबरीजी लिपट पड़ीं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुंदर आसन बैठारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रेममें मग्न हो गयीं, मुखसे वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलोंमें सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयोंके चरण धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनोंपर बैठाया॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीरामजीको दिये। प्रभुने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाया॥ ३४॥

मूल (चौपाई)

पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी।
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयीं। प्रभुको देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। [उन्होंने कहा—] मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जातिकी और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अधमसे भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं; और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ। श्रीरघुनाथजीने कहा—हे भामिनि! मेरी बात सुन। मैं तो केवल एक भक्तिहीका सम्बन्ध मानता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता—इन सबके होनेपर भी भक्तिसे रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल [शोभाहीन] दिखायी पड़ता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मनमें धारण कर। पहली भक्ति है संतोंका सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंगमें प्रेम॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरुके चरणकमलोंकी सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुणसमूहोंका गान करे॥ ३५॥

मूल (चौपाई)

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे (राम) मन्त्रका जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास—यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदोंमें प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियोंका निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्योंसे वैराग्य और निरंतर संत पुरुषोंके धर्म (आचरण) में लगे रहना॥ १॥

मूल (चौपाई)

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सातवीं भक्ति है जगत् भरको समभावसे मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतोंको मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय उसीमें संतोष करना और स्वप्नमें भी पराये दोषोंको न देखना॥ २॥

मूल (चौपाई)

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदयमें मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्थामें हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवोंमेंसे जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी प्रकारकी भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियोंको भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे दर्शनका परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकीकी कुछ खबर जानती हो तो बता॥ ५॥

मूल (चौपाई)

पंपा सरहि जाहु रघुराई।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[शबरीने कहा—] हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवरको जाइये, वहाँ आपकी सुग्रीवसे मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥ ६॥

मूल (चौपाई)

बार बार प्रभु पद सिरु नाई।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

बार-बार प्रभुके चरणोंमें सिर नवाकर, प्रेमसहित उसने सब कथा सुनायी॥ ७॥

छंद

मूल (दोहा)

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब कथा कहकर भगवान् के मुखके दर्शन कर, हृदयमें उनके चरणकमलोंको धारण कर लिया और योगाग्निसे देहको त्यागकर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपदमें लीन हो गयी, जहाँसे लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकारके कर्म, अधर्म और बहुत-से मत—ये सब शोकप्रद हैं; हे मनुष्यो! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम करो।

दोहा

मूल (दोहा)

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नीच जातिकी और पापोंकी जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्रीको भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभुको भूलकर सुख चाहता है?॥ ३६॥

मूल (चौपाई)

चले राम त्यागा बन सोऊ।
अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा।
कहत कथा अनेक संबादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने उस वनको भी छोड़ दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान् और मनुष्योंमें सिंहके समान हैं। प्रभु विरहीकी तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएँ और संवाद कहते हैं—॥ १॥

मूल (चौपाई)

लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा।
देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बृंदा।
मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे लक्ष्मण! जरा वनकी शोभा तो देखो। इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओंके समूह सभी स्त्रीसहित हैं। मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

हमहि देखि मृग निकर पराहीं।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए।
कंचन मृग खोजन ए आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमें देखकर [जब डरके मारे] हिरनोंके झुंड भागने लगते हैं, तब हिरनियाँ उनसे कहती हैं—तुमको भय नहीं है। तुम तो साधारण हिरनोंसे पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो। ये तो सोनेका हिरन खोजने आये हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संग लाइ करिनीं करि लेहीं।
मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी हथिनियोंको साथ लगा लेते हैं। वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं [कि स्त्रीको कभी अकेली नहीं छोड़ना चाहिये]। भलीभाँति चिन्तन किये हुए शास्त्रको भी बार-बार देखते रहना चाहिये। अच्छी तरह सेवा किये हुए भी राजाको वशमें नहीं समझना चाहिये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

राखिअ नारि जदपि उर माहीं।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसंत सुहावा।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और स्त्रीको चाहे हृदयमें ही क्यों न रखा जाय; परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसीके वशमें नहीं रहते। हे तात! इस सुन्दर वसन्तको तो देखो। प्रियाके बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥ ३७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे विरहसे व्याकुल, बलहीन और बिलकुल अकेला जानकर कामदेवने वन, भौंरों और पक्षियोंको साथ लेकर मुझपर धावा बोल दिया॥ ३७(क)॥

मूल (दोहा)

देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥ ३७ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाईके साथ हूँ (अकेला नहीं हूँ), तब उसकी बात सुनकर कामदेवने मानो सेनाको रोककर डेरा डाल दिया है॥ ३७(ख)॥

मूल (चौपाई)

बिटप बिसाल लता अरुझानी।
बिबिध बितान दिए जनु तानी॥
कदलि ताल बर धुजा पताका।
देखि न मोह धीर मन जाका॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाल वृक्षोंमें लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकारके तंबू तान दिये गये हैं। केला और ताड़ सुन्दर ध्वजा-पताकाके समान हैं। इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता जिसका मन धीर है॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिबिध भाँति फूले तरु नाना।
जनु बानैत बने बहु बाना॥
कहुँ कहुँ सुंदर बिटप सुहाए।
जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों वृक्ष नाना प्रकारसे फूले हुए हैं। मानो अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण किये हुए बहुत-से तीरंदाज हों। कहीं-कहीं सुन्दर वृक्ष शोभा दे रहे हैं। मानो योद्धालोग अलग-अलग होकर छावनी डाले हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

कूजत पिक मानहुँ गज माते।
ढेक महोख ऊँट बिसराते॥
मोर चकोर कीर बर बाजी।
पारावत मराल सब ताजी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोयलें कूज रही हैं, वही मानो मतवाले हाथी [चिग्घाड़ रहे] हैं। ढेक और महोख पक्षी मानो ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुन्दर ताजी (अरबी) घोड़े हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तीतिर लावक पदचर जूथा।
बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥
रथ गिरि सिला दुंदुभीं झरना।
चातक बंदी गुन गन बरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीतर और बटेर पैदल सिपाहियोंके झुंड हैं। कामदेवकी सेनाका वर्णन नहीं हो सकता। पर्वतोंकी शिलाएँ रथ और जलके झरने नगाड़े हैं। पपीहे भाट हैं, जो गुणसमूह (विरदावली)का वर्णन करते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मधुकर मुखर भेरि सहनाई।
त्रिबिध बयारि बसीठीं आई॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें।
बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥

अनुवाद (हिन्दी)

भौंरोंकी गुंजार भेरी और शहनाई है। शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा मानो दूतका काम लेकर आयी है। इस प्रकार चतुरङ्गिणी सेना साथ लिये कामदेव मानो सबको चुनौती देता हुआ विचर रहा है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

लछिमन देखत काम अनीका।
रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका॥
एहि कें एक परम बल नारी।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे लक्ष्मण! कामदेवकी इस सेनाको देखकर जो धीर बने रहते हैं, जगत् में उन्हींकी [वीरोंमें] प्रतिष्ठा होती है। इस कामदेवके एक स्त्रीका बड़ा भारी बल है। उससे जो बच जाय, वही श्रेष्ठ योद्धा है॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥ ३८ (क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! काम, क्रोध और लोभ—ये तीन अत्यन्त प्रबल दुष्ट हैं। ये विज्ञानके धाम मुनियोंके भी मनोंको पलभरमें क्षुब्ध कर देते हैं॥ ३८(क)॥

मूल (दोहा)

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥ ३८ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभको इच्छा और दम्भका बल है, कामको केवल स्त्रीका बल है और क्रोधको कठोर वचनोंका बल है; श्रेष्ठ मुनि विचारकर ऐसा कहते हैं॥ ३८(ख)॥

मूल (चौपाई)

गुनातीत सचराचर स्वामी।
राम उमा सब अंतरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई।
धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[शिवजी कहते हैं—] हे पार्वती! श्रीरामचन्द्रजी गुणातीत (तीनों गुणोंसे परे), चराचर जगत् के स्वामी और सबके अन्तरकी जाननेवाले हैं। [उपर्युक्त बातें कहकर] उन्होंने कामी लोगोंकी दीनता (बेबसी) दिखलायी है और धीर (विवेकी) पुरुषोंके मनमें वैराग्यको दृढ़ किया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

क्रोध मनोज लोभ मद माया।
छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला।
जा पर होइ सो नट अनुकूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोध, काम, लोभ, मद और माया—ये सभी श्रीरामजीकी दयासे छूट जाते हैं। वह नट (नटराजभगवान्) जिसपर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इन्द्रजाल (माया) में नहीं भूलता॥ २॥

मूल (चौपाई)

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ—हरिका भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न [की भाँति झूठा] है। फिर प्रभु श्रीरामजी पंपा नामक सुन्दर और गहरे सरोवरके तीरपर गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संत हृदय जस निर्मल बारी।
बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा।
जनु उदार गृह जाचक भीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका जल संतोंके हृदय-जैसा निर्मल है। मनको हरनेवाले सुन्दर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँतिके पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषोंके घर याचकोंकी भीड़ लगी हो!॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥ ३९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

घनी पुरइनों (कमलके पत्तों)-की आड़में जलका जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे मायासे ढके रहनेके कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दीखता॥ ३९(क)॥

मूल (दोहा)

सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥ ३९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सरोवरके अत्यन्त अथाह जलमें सब मछलियाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं। जैसे धर्मशील पुरुषोंके सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं॥ ३९(ख)॥

मूल (चौपाई)

बिकसे सरसिज नाना रंगा।
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा॥
बोलत जलकुक्‍कुट कलहंसा।
प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत-से भौंरे मधुर स्वरसे गुंजार कर रहे हैं। जलके मुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं, मानो प्रभुको देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

चक्रबाक बक खग समुदाई।
देखत बनइ बरनि नहिं जाई॥
सुंदर खग गन गिरा सुहाई।
जात पथिक जनु लेत बोलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियोंका समुदाय देखते ही बनता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर पक्षियोंकी बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो [रास्तेमें] जाते हुए पथिकको बुलाये लेती हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए।
चहु दिसि कानन बिटप सुहाए॥
चंपक बकुल कदंब तमाला।
पाटल पनस परास रसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस झील (पंपासरोवर) के समीप मुनियोंने आश्रम बना रखे हैं। उसके चारों ओर वनके सुन्दर वृक्ष हैं। चम्पा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नव पल्लव कुसुमित तरु नाना।
चंचरीक पटली कर गाना॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ।
संतत बहइ मनोहर बाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत प्रकारके वृक्ष नये-नये पत्तों और [सुगन्धित] पुष्पोंसे युक्त हैं, [जिनपर] भौंरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं। स्वभावसे ही शीतल, मन्द, सुगन्धित एवं मनको हरनेवाली हवा सदा बहती रहती है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।
सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोयलें ‘कुहू’ ‘कुहू’ का शब्द कर रही हैं। उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियोंका भी ध्यान टूट जाता है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फलोंके बोझसे झुककर सारे वृक्ष पृथ्वीके पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बड़ी सम्पत्ति पाकर [विनयसे] झुक जाते हैं॥ ४०॥

मूल (चौपाई)

देखि राम अति रुचिर तलावा।
मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुंदर तरुबर छाया।
बैठे अनुज सहित रघुराया॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने अत्यन्त सुन्दर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुन्दर उत्तम वृक्षकी छाया देखकर श्रीरघुनाथजी छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित बैठ गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए।
अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला।
कहत अनुज सन कथा रसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वहाँ सब देवता और मुनि आये और स्तुति करके अपने-अपने धामको चले गये। कृपालु श्रीरामजी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजीसे रसीली कथाएँ कह रहे हैं॥ २॥

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