१३ श्रीरामजीका विलाप, जटायुका प्रसंग, कबन्ध-उद्धार

मूल (दोहा)

जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥ २९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार कपटमृगके साथ श्रीरामजी दौड़ चले थे, उसी छविको हृदयमें रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥ २९(ख)॥

मूल (चौपाई)

रघुपति अनुजहि आवत देखी।
बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली।
आयहु तात बचन मम पेली॥

अनुवाद (हिन्दी)

[इधर] श्रीरघुनाथजीने छोटे भाई लक्ष्मणजीको आते देखकर बाह्यरूपमें बहुत चिन्ता की [और कहा—] हे भाई! तुमने जानकीको अकेली छोड़ दिया और मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन कर यहाँ चले आये!॥ १॥

मूल (चौपाई)

निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं।
मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी।
कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसोंके झुंड वनमें फिरते रहते हैं। मेरे मनमें ऐसा आता है कि सीता आश्रममें नहीं है। छोटे भाई लक्ष्मणजीने श्रीरामजीके चरणकमलोंको पकड़कर हाथ जोड़कर कहा—हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है॥ २॥

मूल (चौपाई)

अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ।
गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना।
भए बिकल जस प्राकृत दीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामजी वहाँ गये जहाँ गोदावरीके तटपर उनका आश्रम था। आश्रमको जानकीजीसे रहित देखकर श्रीरामजी साधारण मनुष्यकी भाँति व्याकुल और दीन (दुखी) हो गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हा गुन खानि जानकी सीता।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती।
पूछत चले लता तरु पाँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वे विलाप करने लगे—] हा गुणोंकी खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमोंमें पवित्र सीते! लक्ष्मणजीने बहुत प्रकारसे समझाया। तब श्रीरामजी लताओं और वृक्षोंकी पंक्तियोंसे पूछते हुए चले॥ ४॥

मूल (चौपाई)

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षियो! हे पशुओ! हे भौंरोंकी पंक्तियो! तुमने कहीं मृगनयनी सीताको देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरोंका समूह, प्रवीण कोयल,॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कुंद कली दाड़िम दामिनी।
कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद्का चन्द्रमा और नागिनी, वरुणका पाश, कामदेवका धनुष, हंस, गज और सिंह—ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं।
नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू।
हरषे सकल पाइ जनु राजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मनमें जरा भी शङ्का और संकोच नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गये हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगोंके सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभाके अभिमानमें फूल रहे हैं)॥ ७॥

मूल (चौपाई)

किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी।
मनहु महा बिरही अति कामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार [अनन्त ब्रह्माण्डोंके अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्रीसीताजीके] स्वामी श्रीरामजी सीताजीको खोजते हुए [इस प्रकार] विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामी पुरुष हो॥ ८॥

मूल (चौपाई)

पूरनकाम राम सुख रासी।
मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्णकाम, आनन्दकी राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीरामजी मनुष्योंके-से चरित्र कर रहे हैं। आगे [जानेपर] उन्होंने गृध्रपति जटायुको पड़ा देखा। वह श्रीरामजीके चरणोंका स्मरण कर रहा था, जिनमें [ध्वजा-कुलिश आदिकी] रेखाएँ (चिह्न) हैं॥ ९॥

दोहा

मूल (दोहा)

कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपासागर श्रीरघुवीरने अपने करकमलसे उसके सिरका स्पर्श किया (उसके सिरपर कर-कमल फेर दिया)। शोभाधाम श्रीरामजीका [परम सुन्दर] मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही॥ ३०॥

मूल (चौपाई)

तब कह गीध बचन धरि धीरा।
सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही।
तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धीरज धरकर गीधने यह वचन कहा—हे भव (जन्म-मृत्यु) के भयका नाश करनेवाले श्रीरामजी! सुनिये। हे नाथ! रावणने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्टने जानकीजीको हर लिया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं।
बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लागि प्रभु राखेउँ प्राना।
चलन चहत अब कृपानिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गोसाईं! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशाको गया है। सीताजी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यन्त विलाप कर रही थीं। हे प्रभो! मैंने आपके दर्शनोंके लिये ही प्राण रोक रखे थे। हे कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम कहा तनु राखहु ताता।
मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जा कर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने कहा—हे तात! शरीरको बनाये रखिये। तब उसने मुसकराते हुए मुँहसे यह बात कही—मरते समय जिनका नाम मुखमें आ जानेसे अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सो मम लोचन गोचर आगें।
राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई।
तात कर्म निज तें गति पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही (आप) मेरे नेत्रोंके विषय होकर सामने खड़े हैं। हे नाथ! अब मैं किस कमी [की पूर्ति] के लिये देहको रखूँ? नेत्रोंमें जल भरकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे—हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मोंसे [दुर्लभ] गति पायी है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मनमें दूसरेका हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिये जगत् में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाममें जाइये। मैं आपको क्या दूँ? आप तो पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं)॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! सीताहरणकी बात आप जाकर पिताजीसे न कहियेगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्बसहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥ ३१॥

मूल (चौपाई)

गीध देह तजि धरि हरि रूपा।
भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी।
अस्तुति करत नयन भरि बारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जटायुने गीधकी देह त्यागकर हरिका रूप धारण किया और बहुत-से अनुपम (दिव्य) आभूषण और [दिव्य] पीताम्बर पहन लिये। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रोंमें [प्रेम तथा आनन्दके आँसुओंका] जल भरकर वह स्तुति कर रहा है—॥ १॥

छंद

मूल (दोहा)

जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रामजी! आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणोंके (मायाके) प्रेरक हैं। दस सिरवाले रावणकी प्रचण्ड भुजाओंको खण्ड-खण्ड करनेके लिये प्रचण्ड बाण धारण करनेवाले, पृथ्वीको सुशोभित करनेवाले, जलयुक्त मेघके समान श्याम शरीरवाले, कमलके समान मुख और [लाल] कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले, विशाल भुजाओंवाले और भव-भयसे छुड़ानेवाले कृपालु श्रीरामजीको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥ १॥

मूल (दोहा)

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपरिमित बलवाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक, अगोचर (अलक्ष्य), गोविन्द (वेदवाक्योंद्वारा जाननेयोग्य), इन्द्रियोंसे अतीत, [जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि] द्वन्द्वोंको हरनेवाले, विज्ञानकी घनमूर्ति और पृथ्वीके आधार हैं तथा जो संत राम-मन्त्रको जपते हैं, उन अनन्त सेवकोंके मनको आनन्द देनेवाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनोंके प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट-वृत्तियों) के दलका दलन करनेवाले श्रीरामजीको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥ २॥

मूल (दोहा)

जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनको श्रुतियाँ निरञ्जन (मायासे परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वे ही करुणाकन्द, शोभाके समूह [स्वयं श्रीभगवान्] प्रकट होकर जड़-चेतन समस्त जगत् को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय-कमलके भ्रमररूप उनके अंग-अंगमें बहुत-से कामदेवोंकी छवि शोभा पा रही है॥ ३॥

मूल (दोहा)

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अगम और सुगम हैं, निर्मलस्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शान्त) हैं। मन और इन्द्रियोंको सदा वशमें करते हुए योगी बहुत साधन करनेपर जिन्हें देख पाते हैं, वे तीनों लोकोंके स्वामी, रमानिवास श्रीरामजी निरन्तर अपने दासोंके वशमें रहते हैं, वे ही मेरे हृदयमें निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमनको मिटानेवाली है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अखण्ड भक्तिका वर माँगकर गृध्रराज जटायु श्रीहरिके परमधामको चला गया। श्रीरामचन्द्रजीने उसकी [दाहकर्म आदि सारी] क्रियाएँ यथायोग्य अपने हाथोंसे कीं॥ ३२॥

मूल (चौपाई)

कोमल चित अति दीनदयाला।
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी।
गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी अत्यन्त कोमल चित्तवाले, दीनदयालु और बिना ही कारण कृपालु हैं। गीध [पक्षियोंमें भी] अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई।
चले बिलोकत बन बहुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[शिवजी कहते हैं—] हे पार्वती! सुनो, वे लोग अभागे हैं जो भगवान् को छोड़कर विषयोंसे अनुराग करते हैं। फिर दोनों भाई सीताजीको खोजते हुए आगे चले। वे वनकी सघनता देखते जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

संकुल लता बिटप घन कानन।
बहु खग मृग तहँ गज पंचानन॥
आवत पंथ कबंध निपाता।
तेहिं सब कही साप कै बाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सघन वन लताओं और वृक्षोंसे भरा है। उसमें बहुत-से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्रीरामजीने रास्तेमें आते हुए कबंध राक्षसको मार डाला। उसने अपने शापकी सारी बात कही॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दुरबासा मोहि दीन्ही सापा।
प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही।
मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वह बोला—] दुर्वासाजीने मुझे शाप दिया था। अब प्रभुके चरणोंको देखनेसे वह पाप मिट गया। [श्रीरामजीने कहा—] हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूँ, ब्राह्मणकुलसे द्रोह करनेवाला मुझे नहीं सुहाता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन, वचन और कर्मसे कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, मुझसमेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वशमें हो जाते हैं॥ ३३॥

मूल (चौपाई)

सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहि निज धर्म ताहि समुझावा।
निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई।
गयउ गगन आपनि गति पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने अपना धर्म (भागवत-धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणोंमें प्रेम देखकर वह उनके मनको भाया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्वका स्वरूप) पाकर आकाशमें चला गया॥ २॥

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