१२ जटायु-रावण-युद्ध

मूल (चौपाई)

गीधराज सुनि आरत बानी।
रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृध्रराज जटायुने सीताजीकी दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी हैं। [उसने देखा कि] नीच राक्षस इनको [बुरी तरह] लिये जा रहा है, जैसे कपिला गाय म्लेच्छके पाले पड़ गयी हो॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा।
करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें।
छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वह बोला—] हे सीते पुत्री! भय मत कर। मैं इस राक्षसका नाश करूँगा। [यह कहकर] वह पक्षी क्रोधमें भरकर कैसे दौड़ा, जैसे पर्वतकी ओर वज्र छूटता हो॥ ५॥

मूल (चौपाई)

रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही।
निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतांत समाना।
फिरि दसकंधर कर अनुमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उसने ललकारकर कहा—] रे रे दुष्ट! खड़ा क्यों नहीं होता? निडर होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराजके समान आता हुआ देखकर रावण घूमकर मनमें अनुमान करने लगा—॥ ६॥

मूल (चौपाई)

की मैनाक कि खगपति होई।
मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा।
मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियोंका स्वामी गरुड़। पर वह (गरुड़) तो अपने स्वामी विष्णुसहित मेरे बलको जानता है! [कुछ पास आनेपर] रावणने उसे पहचान लिया [और बोला—] यह तो बूढ़ा जटायु है! यह मेरे हाथरूपी तीर्थमें शरीर छोड़ेगा॥ ७॥

मूल (चौपाई)

सुनत गीध क्रोधातुर धावा।
कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू।
नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनते ही गीध क्रोधमें भरकर बड़े वेगसे दौड़ा और बोला—रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकीजीको छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओंवाले! ऐसा होगा कि—॥ ८॥

मूल (चौपाई)

राम रोष पावक अति घोरा।
होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा।
तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके क्रोधरूपी अत्यन्त भयानक अग्निमें तेरा सारा वंश पतिंगा [होकर भस्म] हो जायगा। योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता। तब गीध क्रोध करके दौड़ा॥ ९॥

मूल (चौपाई)

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा।
सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही।
दंड एक भइ मुरुछा तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने [रावणके] बाल पकड़कर उसे रथके नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वीपर गिर पड़ा। गीध सीताजीको एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंचोंसे मार-मारकर रावणके शरीरको विदीर्ण कर डाला। इससे उसे एक घड़ीके लिये मूर्च्छा हो गयी॥ १०॥

मूल (चौपाई)

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना।
काढ़ेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पंख परा खग धरनी।
सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब खिसियाये हुए रावणने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायुके पंख काट डाले। पक्षी (जटायु) श्रीरामजीकी अद्भुत लीलाका स्मरण करके पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ ११॥

मूल (चौपाई)

सीतहि जान चढ़ाइ बहोरी।
चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता।
ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीको फिर रथपर चढ़ाकर रावण बड़ी उतावलीके साथ चला, उसे भय कम न था। सीताजी आकाशमें विलाप करती हुई जा रही हैं। मानो व्याधके वशमें पड़ी हुई (जालमें फँसी हुई) कोई भयभीत हिरनी हो!॥ १२॥

मूल (चौपाई)

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी।
कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ।
बन असोक महँ राखत भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतपर बैठे हुए बंदरोंको देखकर सीताजीने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिया। इस प्रकार वह सीताजीको ले गया और उन्हें अशोकवनमें जा रखा॥ १३॥

दोहा

मूल (दोहा)

हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥ २९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीको बहुत प्रकारसे भय और प्रीति दिखलाकर जब वह दुष्ट हार गया, तब उन्हें यत्न कराके (सब व्यवस्था ठीक कराके) अशोक-वृक्षके नीचे रख दिया॥ २९(क)॥

भागसूचना

नवाह्नपारायण, छठा विश्राम

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