११ श्रीसीताहरण और श्रीसीताविलाप

मूल (चौपाई)

सून बीच दसकंधर देखा।
आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं।
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण सूना मौका देखकर यति (संन्यासी) के वेषमें श्रीसीताजीके समीप आया। जिसके डरसे देवता और दैत्यतक इतना डरते हैं कि रातको नींद नहीं आती और दिनमें [भरपेट] अन्न नहीं खाते—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सो दससीस स्वान की नाईं।
इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही दस सिरवाला रावण कुत्तेकी तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई* (चोरी) के लिये चला। [काकभुशुण्डिजी कहते हैं—] हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्गपर पैर रखते ही शरीरमें तेज तथा बुद्धि एवं बलका लेश भी नहीं रह जाता॥ ५॥

Misc Detail
  • सूना पाकर कुत्ता चुपके-से बर्तन-भाड़ोंमें मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है उसे, ‘भड़िहाई’ कहते हैं।
मूल (चौपाई)

नाना बिधि करि कथा सुहाई।
राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं।
बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने अनेकों प्रकारकी सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजीको राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजीने कहा—हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्टकी तरह वचन कहे॥ ६॥

मूल (चौपाई)

तब रावन निज रूप देखावा।
भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा।
आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गयीं। उन्होंने गहरा धीरज धरकर कहा—‘अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गये’॥ ७॥

मूल (चौपाई)

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा।
भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना।
मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंहकी स्त्रीको तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू [मेरी चाह करके] कालके वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावणको क्रोध आ गया, परन्तु मनमें उसने सीताजीके चरणोंकी वन्दना करके सुख माना॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर क्रोधमें भरकर रावणने सीताजीको रथपर बैठा लिया और वह बड़ी उतावलीके साथ आकाशमार्गसे चला; किन्तु डरके मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥ २८॥

मूल (चौपाई)

हा जग एक बीर रघुराया।
केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक।
हा रघुकुल सरोज दिननायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

[सीताजी विलाप कर रही थीं—] हा जगत् के अद्वितीय वीर श्रीरघुनाथजी! आपने किस अपराधसे मुझपर दया भुला दी। हे दुःखोंके हरनेवाले, हे शरणागतको सुख देनेवाले, हा रघुकुलरूपी कमलके सूर्य!॥ १॥

मूल (चौपाई)

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा।
सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही।
भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हा लक्ष्मण! तुम्हारा दोष नहीं है। मैंने क्रोध किया, उसका फल पाया। श्रीजानकीजी बहुत प्रकारसे विलाप कर रही हैं—[हाय!] प्रभुकी कृपा तो बहुत है, परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गये हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा।
पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी।
भए चराचर जीव दुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको मेरी यह विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञके अन्नको गदहा खाना चाहता है। सीताजीका भारी विलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुखी हो गये॥ ३॥

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