१० मारीचप्रसंग और स्वर्ण-मृगरूपमें मारीचका मारा जाना

दोहा

मूल (दोहा)

करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मारीचने उसकी पूजा करके आदरपूर्वक बात पूछी—हे तात! आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आये हैं?॥ २४॥

मूल (चौपाई)

दसमुख सकल कथा तेहि आगें।
कही सहित अभिमान अभागें॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी।
जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाग्यहीन रावणने सारी कथा अभिमानसहित उसके सामने कही [और फिर कहा—] तुम छल करनेवाले कपट-मृग बनो, जिस उपायसे मैं उस राजवधूको हर लाऊँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा।
ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै।
मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उसने (मारीचने) कहा—हे दशशीश! सुनिये। वे मनुष्यरूपमें चराचरके ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिये। उन्हींके मारनेसे मरना और उनके जिलानेसे जीना होता है (सबका जीवन-मरण उन्हींके अधीन है)॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुनि मख राखन गयउ कुमारा।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं।
तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही राजकुमार मुनि विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षाके लिये गये थे। उस समय श्रीरघुनाथजीने बिना फलका बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभरमें सौ योजनपर आ गिरा। उनसे वैर करनेमें भलाई नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भइ मम कीट भृंग की नाई।
जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी दशा तो भृङ्गीके कीड़ेकी-सी हो गयी है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंको ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं तो भी बड़े शूरवीर हैं। उनसे विरोध करनेमें पूरा न पड़ेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने ताड़का और सुबाहुको मारकर शिवजीका धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिराका वध कर डाला, ऐसा प्रचण्ड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?॥ २५॥

मूल (चौपाई)

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी।
सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा।
कहु जग मोहि समान को जोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अपने कुलकी कुशल विचारकर आप घर लौट जाइये। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत-सी गालियाँ दीं (दुर्वचन कहे)। [कहा—] अरे मूर्ख! तू गुरुकी तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो, संसारमें मेरे समान योद्धा कौन है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब मारीच हृदयँ अनुमाना।
नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।
बैद बंदि कबि भानस गुनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मारीचने हृदयमें अनुमान किया कि शस्त्री (शस्त्रधारी), मर्मी (भेद जाननेवाला), समर्थ स्वामी, मूर्ख, धनवान्, वैद्य, भाट, कवि और रसोइया—इन नौ व्यक्तियोंसे विरोध (वैर) करनेमें कल्याण (कुशल) नहीं होता॥ २॥

मूल (चौपाई)

उभय भाँति देखा निज मरना।
तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें।
कस न मरौं रघुपति सर लागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मारीचने दोनों प्रकारसे अपना मरण देखा, तब उसने श्रीरघुनाथजीकी शरण तकी (अर्थात् उनकी शरण जानेमें ही कल्याण समझा)। [सोचा कि] उत्तर देते ही (नाहीं करते ही) यह अभागा मुझे मार डालेगा। फिर श्रीरघुनाथजीके बाण लगनेसे ही क्यों न मरूँ?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अस जियँ जानि दसानन संगा।
चला राम पद प्रेम अभंगा॥
मन अति हरष जनाव न तेही।
आजु देखिहउँ परम सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें ऐसा समझकर वह रावणके साथ चला। श्रीरामजीके चरणोंमें उसका अखण्ड प्रेम है। उसके मनमें इस बातका अत्यन्त हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्रीरामजीको देखूँगा; किन्तु उसने यह हर्ष रावणको नहीं जनाया॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वह मन-ही-मन सोचने लगा] अपने परम प्रियतमको देखकर नेत्रोंको सफल करके सुख पाऊँगा। जानकीजीसहित और छोटे भाई लक्ष्मणजीसमेत कृपानिधान श्रीरामजीके चरणोंमें मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देनेवाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसीके वशमें न होनेवाले स्वतन्त्र भगवान्) को भी वशमें करनेवाली है, अहा! वे ही आनन्दके समुद्र श्रीहरि अपने हाथोंसे बाण सन्धानकर मेरा वध करेंगे!

दोहा

मूल (दोहा)

मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष-बाण धारण किये मेरे पीछे-पीछे पृथ्वीपर (पकड़नेके लिये) दौड़ते हुए प्रभुको मैं फिर-फिरकर देखूँगा। मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है॥ २६॥

मूल (चौपाई)

तेहि बन निकट दसानन गयऊ।
तब मारीच कपटमृग भयऊ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई।
कनक देह मनि रचित बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रावण उस वनके (जिस वनमें श्रीरघुनाथजी रहते थे) निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया। वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। सोनेका शरीर मणियोंसे जड़कर बनाया था॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीता परम रुचिर मृग देखा।
अंग अंग सुमनोहर बेषा॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला।
एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीने उस परम सुन्दर हिरनको देखा, जिसके अङ्ग-अङ्गकी छटा अत्यन्त मनोहर थी। [वे कहने लगीं—] हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुनिये। इस मृगकी छाल बहुत ही सुन्दर है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सत्यसंध प्रभु बधि करि एही।
आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन।
उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीने कहा—हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभो! इसको मारकर इसका चमड़ा ला दीजिये। तब श्रीरघुनाथजी [मारीचके कपटमृग बननेका] सब कारण जानते हुए भी, देवताओंका कार्य बनानेके लिये हर्षित होकर उठे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा।
करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई।
फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरनको देखकर श्रीरामजीने कमरमें फेंटा बाँधा और हाथमें धनुष लेकर उसपर सुन्दर (दिव्य) बाण चढ़ाया। फिर प्रभुने लक्ष्मणजीको समझाकर कहा—हे भाई! वनमें बहुत-से राक्षस फिरते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सीता केरि करेहु रखवारी।
बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी।
धाए रामु सरासन साजी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम बुद्धि और विवेकके द्वारा बल और समयका विचार करके सीताकी रखवाली करना। प्रभुको देखकर मृग भाग चला। श्रीरामचन्द्रजी भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े॥ ५॥

मूल (चौपाई)

निगम नेति सिव ध्यान न पावा।
मायामृग पाछें सो धावा॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई।
कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद जिनके विषयमें ‘नेति-नेति’ कहकर रह जाते हैं और शिवजी भी जिन्हें ध्यानमें नहीं पाते (अर्थात् जो मन और वाणीसे नितान्त परे हैं), वे ही श्रीरामजी मायासे बने हुए मृगके पीछे दौड़ रहे हैं। वह कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है। कभी तो प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

प्रगटत दुरत करत छल भूरी।
एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥
तब तकि राम कठिन सर मारा।
धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रकट होता और छिपता हुआ तथा बहुतेरे छल करता हुआ वह प्रभुको दूर ले गया। तब श्रीरामचन्द्रजीने तककर (निशाना साधकर) कठोर बाण मारा, [जिसके लगते ही] वह घोर शब्द करके पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ ७॥

मूल (चौपाई)

लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा।
पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा।
सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले लक्ष्मणजीका नाम लेकर उसने पीछे मनमें श्रीरामजीका स्मरण किया। प्राण त्याग करते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया और प्रेमसहित श्रीरामजीका स्मरण किया॥८॥

मूल (चौपाई)

अंतर प्रेम तासु पहिचाना।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुजान (सर्वज्ञ) श्रीरामजीने उसके हृदयके प्रेमको पहचानकर उसे वह गति (अपना परमपद) दी जो मुनियोंको भी दुर्लभ है॥ ९॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बहुत-से फूल बरसा रहे हैं और प्रभुके गुणोंकी गाथाएँ (स्तुतियाँ) गा रहे हैं [कि] श्रीरघुनाथजी ऐसे दीनबन्धु हैं कि उन्होंने असुरको भी अपना परम पद दे दिया॥ २७॥

मूल (चौपाई)

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा।
सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता।
कह लछिमन सन परम सभीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्ट मारीचको मारकर श्रीरघुवीर तुरंत लौट पड़े। हाथमें धनुष और कमरमें तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजीने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीचकी ‘हा लक्ष्मण’ की आवाज) सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजीसे कहने लगीं—॥ १॥

मूल (चौपाई)

जाहु बेगि संकट अति भ्राता।
लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई।
सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकटमें हैं। लक्ष्मणजीने हँसकर कहा—हे माता! सुनो, जिनके भ्रुकुटिविलास (भौंके इशारे) मात्रसे सारी सृष्टिका लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्रीरामजी क्या कभी स्वप्नमें भी संकटमें पड़ सकते हैं?॥ २॥

मूल (चौपाई)

मरम बचन जब सीता बोला।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू।
चले जहाँ रावन ससि राहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसपर जब सीताजी कुछ मर्म-वचन (हृदयमें चुभनेवाले वचन) कहने लगीं, तब भगवान् की प्रेरणासे लक्ष्मणजीका मन भी चञ्चल हो उठा। वे श्रीसीताजीको वन और दिशाओंके देवताओंको सौंपकर वहाँ चले जहाँ रावणरूपी चन्द्रमाके लिये राहुरूप श्रीरामजी थे॥ ३॥

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