०९ शूर्पणखाका रावणके निकट जाना, श्रीसीताजीका अग्नि-प्रवेश और माया-सीता का प्राकटॺ

मूल (चौपाई)

धुआँ देखि खरदूषन केरा।
जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी।
देस कोस कै सुरति बिसारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

खर-दूषणका विध्वंस देखकर शूर्पणखाने जाकर रावणको भड़काया। वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली—तूने देश और खजानेकी सुधि ही भुला दी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करसि पान सोवसि दिनु राती।
सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।
श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा।
मान ते ग्यान पान तें लाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शराब पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिरपर खड़ा है? नीतिके बिना राज्य और धर्मके बिना धन प्राप्त करनेसे, भगवान् को समर्पण किये बिना उत्तम कर्म करनेसे और विवेक उत्पन्न किये बिना विद्या पढ़नेसे परिणाममें श्रम ही हाथ लगता है। विषयोंके सङ्गसे संन्यासी, बुरी सलाहसे राजा, मानसे ज्ञान, मदिरापानसे लज्जा,॥ ४-५॥

मूल (चौपाई)

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी।
नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नम्रताके बिना (नम्रता न होनेसे) प्रीति और मद (अहङ्कार) से गुणवान् शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है॥ ६॥

सोरठा

मूल (दोहा)

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥ २१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्पको छोटा करके नहीं समझना चाहिये। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकारसे विलाप करके रोने लगी॥ २१(क)॥

दोहा

मूल (दोहा)

सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥ २१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

[रावणकी] सभाके बीच वह व्याकुल होकर पड़ी हुई बहुत प्रकारसे रो-रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव! तेरे जीते-जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिये?॥ २१(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनत सभासद उठे अकुलाई।
समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लंकेस कहसि निज बाता।
केइँ तव नासा कान निपाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूर्पणखाके वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होंने शूर्पणखाकी बाँह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। लङ्कापति रावणने कहा—अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिये?॥ १॥

मूल (चौपाई)

अवध नृपति दसरथ के जाए।
पुरुष सिंघ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी।
रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वह बोली—] अयोध्याके राजा दशरथके पुत्र, जो पुरुषोंमें सिंहके समान हैं, वनमें शिकार खेलने आये हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पड़ी है कि वे पृथ्वीको राक्षसोंसे रहित कर देंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन।
अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना।
परम धीर धन्वी गुन नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी भुजाओंका बल पाकर हे दशमुख! मुनिलोग वनमें निर्भय होकर विचरने लगे हैं। वे देखनेमें तो बालक हैं, पर हैं कालके समान। वे परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणोंसे युक्त हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता।
खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाइयोंका बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टोंके वध करनेमें लगे हैं और देवता तथा मुनियोंको सुख देनेवाले हैं। वे शोभाके धाम हैं, ‘राम’ ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक तरुणी सुन्दरी स्त्री है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

रूप रासि बिधि नारि सँवारी।
रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा।
सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने उस स्त्रीको ऐसी रूपकी राशि बनाया है कि सौ करोड़ रति (कामदेवकी स्त्री) उसपर निछावर हैं। उन्हींके छोटे भाईने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे॥ ५॥

मूल (चौपाई)

खर दूषन सुनि लगे पुकारा।
छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता।
सुनि दससीस जरे सब गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण सहायता करने आये। पर उन्होंने क्षणभरमें सारी सेनाको मार डाला। खर-दूषण और त्रिशिराका वध सुनकर रावणके सारे अङ्ग जल उठे॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने शूर्पणखाको समझाकर बहुत प्रकारसे अपने बलका बखान किया, किन्तु [मनमें] वह अत्यन्त चिन्तावश होकर अपने महलमें गया, उसे रातभर नींद नहीं पड़ी॥ २२॥

मूल (चौपाई)

सुर नर असुर नाग खग माहीं।
मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता।
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वह मन-ही-मन विचार करने लगा—] देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियोंमें कोई ऐसा नहीं जो मेरे सेवकको भी पा सके। खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान् थे। उन्हें भगवान् के सिवा और कौन मार सकता है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुर रंजन भंजन महि भारा।
जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ।
प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंको आनन्द देनेवाले और पृथ्वीका भार हरण करनेवाले भगवान् ने ही यदि अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभुके बाण [के आघात] से प्राण छोड़कर भवसागरसे तर जाऊँगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

होइहि भजनु न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ।
हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तामस शरीरसे भजन तो होगा नहीं; अतएव मन, वचन और कर्मसे यही दृढ़ निश्चय है। और यदि वे मनुष्यरूप कोई राजकुमार होंगे तो उन दोनोंको रणमें जीतकर उनकी स्त्रीको हर लूँगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चला अकेल जान चढ़ि तहवाँ।
बस मारीच सिंधु तट जहवाँ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई।
सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[यों विचारकर] रावण रथपर चढ़कर अकेला ही वहाँ चला, जहाँ समुद्रके तटपर मारीच रहता था। [शिवजी कहते हैं कि—] हे पार्वती! यहाँ श्रीरामचन्द्रजीने जैसी युक्ति रची, वह सुन्दर कथा सुनो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी जब कन्द-मूल-फल लेनेके लिये वनमें गये, तब [अकेलेमें] कृपा और सुखके समूह श्रीरामचन्द्रजी हँसकर जानकीजीसे बोले—॥ २३॥

मूल (चौपाई)

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रिये! हे सुन्दर पातिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्यलीला करूँगा। इसलिये जबतक मैं राक्षसोंका नाश करूँ, तबतक तुम अग्निमें निवास करो॥ १॥

मूल (चौपाई)

जबहिं राम सब कहा बखानी।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता।
तैसइ सील रूप सुबिनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्रीसीताजी प्रभुके चरणोंको हृदयमें धरकर अग्निमें समा गयीं। सीताजीने अपनी ही छायामूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके-जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥ २॥

मूल (चौपाई)

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्यको लक्ष्मणजीने भी नहीं जाना। स्वार्थपरायण और नीच रावण वहाँ गया जहाँ मारीच था और उसको सिर नवाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नवनि नीच कै अति दुखदाई।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीचका झुकना (नम्रता) भी अत्यन्त दुःखदायी होता है। जैसे अङ्कुश, धनुष, साँप और बिल्लीका झुकना। हे भवानी! दुष्टकी मीठी वाणी भी [उसी प्रकार] भय देनेवाली होती है, जैसे बिना ऋतुके फूल!॥ ४॥

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