०८ शूर्पणखाकी कथा, शूर्पणखाका खर-दूषणके पास जाना और खर-दूषणादिका वध

मूल (चौपाई)

सूपनखा रावन कै बहिनी।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पंचबटी सो गइ एक बारा।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूर्पणखा नामक रावणकी एक बहिन थी, जो नागिनके समान भयानक और दुष्ट हृदयकी थी। वह एक बार पञ्चवटीमें गयी और दोनों राजकुमारोंको देखकर विकल (कामसे पीड़ित) हो गयी॥ २॥

मूल (चौपाई)

भ्राता पिता पुत्र उरगारी।
पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) हे गरुड़जी! (शूर्पणखा-जैसी राक्षसी, धर्मज्ञानशून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुषको देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मनको नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यको देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वालासे पिघल जाती है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई।
बोली बचन बहुत मुसुकाई॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी।
यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सुन्दर रूप धरकर प्रभुके पास जाकर और बहुत मुसकराकर वचन बोली—न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री! विधाताने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचारकर रचा है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं।
देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत् भरमें नहीं है, मैंने तीनों लोकोंको खोज देखा। इसीसे मैं अबतक कुमारी (अविवाहित) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना (चित्त ठहरा) है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी ओर देखकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह लक्ष्मणजीके पास गयी। लक्ष्मणजी उसे शत्रुकी बहिन समझकर और प्रभुकी ओर देखकर कोमल वाणीसे बोले—॥ ६॥

मूल (चौपाई)

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा।
पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा।
जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुन्दरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ। मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हें सुभीता (सुख) न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुरके राजा हैं, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

सेवक सुख चह मान भिखारी।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी (जिसे जूए, शराब आदिका व्यसन हो) धन और व्यभिचारी शुभगति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल—अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहे, तो ये सब प्राणी आकाशको दुहकर दूध लेना चाहते हैं (अर्थात् असम्भव बातको सम्भव करना चाहते हैं)॥ ८॥

मूल (चौपाई)

पुनि फिरि राम निकट सो आई।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई।
जो तृन तोरि लाज परिहरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह लौटकर फिर श्रीरामजीके पास आयी। प्रभुने फिर उसे लक्ष्मणजीके पास भेज दिया। लक्ष्मणजीने कहा—तुम्हें वही बरेगा जो लज्जाको तृण तोड़कर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके) त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा)॥ ९॥

मूल (चौपाई)

तब खिसिआनि राम पहिं गई।
रूप भयंकर प्रगटत भई॥
सीतहि सभय देखि रघुराई।
कहा अनुज सन सयन बुझाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह खिसियायी हुई (क्रुद्ध होकर) श्रीरामजीके पास गयी और उसने अपना भयङ्कर रूप प्रकट किया। सीताजीको भयभीत देखकर श्रीरघुनाथजीने लक्ष्मणजीको इशारा देकर कहा॥ १०॥

दोहा

मूल (दोहा)

लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीने बड़ी फुर्तीसे उसको बिना नाक-कानकी कर दिया। मानो उसके हाथ रावणको चुनौती दी हो!॥ १७॥

मूल (चौपाई)

नाक कान बिनु भइ बिकरारा।
जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना नाक-कानके वह विकराल हो गयी। [उसके शरीरसे रक्त इस प्रकार बहने लगा] मानो [काले] पर्वतसे गेरूकी धारा बह रही हो। वह विलाप करती हुई खर-दूषणके पास गयी। [और बोली—] हे भाई! तुम्हारे पौरुष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बलको धिक्कार है॥ १॥

मूल (चौपाई)

तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई।
जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पूछा, तब शूर्पणखाने सब समझाकर कहा। सब सुनकर राक्षसोंने सेना तैयार की। राक्षससमूह झुंड-के-झुंड दौड़े। मानो पंखधारी काजलके पर्वतोंका झुंड हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाना बाहन नानाकारा।
नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अनेकों प्रकारकी सवारियोंपर चढ़े हुए तथा अनेकों आकार (सूरतों) के हैं। वे अपार हैं और अनेकों प्रकारके असंख्य भयानक हथियार धारण किये हुए हैं। उन्होंने नाक-कान कटी हुई अमङ्गलरूपिणी शूर्पणखाको आगे कर लिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

असगुन अमित होहिं भयकारी।
गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनगिनत भयङ्कर अशकुन हो रहे हैं। परन्तु मृत्युके वश होनेके कारण वे सब-के-सब उनको कुछ गिनते ही नहीं। गरजते हैं, ललकारते हैं और आकाशमें उड़ते हैं। सेना देखकर योद्धालोग बहुत ही हर्षित होते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई।
धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा।
राम बोलाइ अनुज सन कहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कहता है दोनों भाइयोंको जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्रीको छीन लो। आकाशमण्डल धूलसे भर गया। तब श्रीरामजीने लक्ष्मणजीको बुलाकर उनसे कहा—॥ ५॥

मूल (चौपाई)

लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर।
आवा निसिचर कटकु भयंकर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी।
चले सहित श्री सर धनु पानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसोंकी भयानक सेना आ गयी है। जानकीजीको लेकर तुम पर्वतकी कन्दरामें चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथमें धनुष-बाण लिये श्रीसीताजीसहित चले॥ ६॥

मूल (चौपाई)

देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी सेना [समीप] चली आयी है, यह देखकर श्रीरामजीने हँसकर कठिन धनुषको चढ़ाया॥ ७॥

छंद

मूल (दोहा)

कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

कठिन धनुष चढ़ाकर सिरपर जटाका जूड़ा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वतपर करोड़ों बिजलियोंसे दो साँप लड़ रहे हों। कमरमें तरकस कसकर, विशाल भुजाओंमें धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी राक्षसोंकी ओर देख रहे हैं। मानो मतवाले हाथियोंके समूहको [आता] देखकर सिंह [उनकी ओर] ताक रहा हो।

सोरठा

मूल (दोहा)

आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पकड़ो-पकड़ो’ पुकारते हुए राक्षस योद्धा बाग छोड़कर (बड़ी तेजीसे) दौड़े हुए आये [और उन्होंने श्रीरामजीको चारों ओरसे घेर लिया], जैसे बालसूर्य (उदयकालीन सूर्य)को अकेला देखकर मन्देह नामक दैत्य घेर लेते हैं॥ १८॥

मूल (चौपाई)

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी।
थकित भई रजनीचर धारी॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन।
यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥

अनुवाद (हिन्दी)

[सौन्दर्य-माधुर्यनिधि] प्रभु श्रीरामजीको देखकर राक्षसोंकी सेना थकित रह गयी। वे उनपर बाण नहीं छोड़ सके। मन्त्रीको बुलाकर खर-दूषणने कहा—यह राजकुमार कोई मनुष्योंका भूषण है॥ १॥

मूल (चौपाई)

नाग असुर सुर नर मुनि जेते।
देखे जिते हते हम केते॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई।
देखी नहिं असि सुंदरताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जितने भी नाग, असुर, देवता, मनुष्य और मुनि हैं, उनमेंसे हमने न जाने कितने ही देखे, जीते और मार डाले हैं। पर हे सब भाइयो! सुनो, हमने जन्मभरमें ऐसी सुन्दरता कहीं नहीं देखी॥ २॥

मूल (चौपाई)

जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा।
बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥
देहु तुरत निज नारि दुराई।
जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि इन्होंने हमारी बहिनको कुरूप कर दिया तथापि ये अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं। ‘छिपायी हुई अपनी स्त्री हमें तुरंत दे दो और दोनों भाई जीते-जी घर लौट जाओ’॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु।
तासु बचन सुनि आतुर आवहु॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई।
सुनत राम बोले मुसुकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा यह कथन तुमलोग उसे सुनाओ और उसका वचन (उत्तर) सुनकर शीघ्र आओ। दूतोंने जाकर यह सन्देश श्रीरामचन्द्रजीसे कहा। उसे सुनते ही श्रीरामचन्द्रजी मुसकराकर बोले—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

हम छत्री मृगया बन करहीं।
तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं।
एक बार कालहु सन लरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम क्षत्रिय हैं, वनमें शिकार करते हैं और तुम्हारे-सरीखे दुष्ट पशुओंको तो ढूँढ़ते ही फिरते हैं। हम बलवान् शत्रुको देखकर नहीं डरते। [लड़नेको आवे तो] एक बार तो हम कालसे भी लड़ सकते हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक।
मुनि पालक खल सालक बालक॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू।
समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि हम मनुष्य हैं, परन्तु दैत्यकुलका नाश करनेवाले और मुनियोंकी रक्षा करनेवाले हैं, हम बालक हैं, परन्तु हैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाले। यदि बल न हो तो घर लौट जाओ। संग्राममें पीठ दिखानेवाले किसीको मैं नहीं मारता॥ ६॥

मूल (चौपाई)

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई।
रिपु पर कृपा परम कदराई॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ।
सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणमें चढ़ आकर कपट-चतुराई करना और शत्रुपर कृपा करना (दया दिखाना) तो बड़ी भारी कायरता है। दूतोंने लौटकर तुरंत सब बातें कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषणका हृदय अत्यन्त जल उठा॥ ७॥

छंद

मूल (दोहा)

उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[खर-दूषणका] हृदय जल उठा। तब उन्होंने कहा—पकड़ लो (कैद कर लो)। [यह सुनकर] भयानक राक्षस योद्धा बाण, धनुष, तोमर, शक्ति (साँग), शूल (बरछी), कृपाण (कटार), परिघ और फरसा धारण किये हुए दौड़ पड़े। प्रभु श्रीरामजीने पहले धनुषका बड़ा कठोर, घोर और भयानक टङ्कार किया, जिसे सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गये। उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा।

दोहा

मूल (दोहा)

सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥ १९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे शत्रुको बलवान् जानकर सावधान होकर दौड़े और श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर बहुत प्रकारके अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे॥ १९(क)॥

मूल (दोहा)

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर॥ १९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरजीने उनके हथियारोंको तिलके समान (टुकड़े-टुकड़े) करके काट डाला। फिर धनुषको कानतक तानकर अपने तीर छोड़े॥ १९(ख)॥

छंद

मूल (दोहा)

तब चले बान कराल।
फुंकरत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम
चले बिसिख निसित निकाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत-से सर्प जा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजी संग्राममें क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चले॥ १॥

मूल (दोहा)

अवलोकि खरतर तीर।
मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ।
जो भागि रन ते जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंको देखकर राक्षस वीर पीठ दिखाकर भाग चले। तब खर, दूषण और त्रिशिरा तीनों भाई क्रुद्ध होकर बोले—जो रणसे भागकर जायगा,॥ २॥

मूल (दोहा)

तेहि बधब हम निज पानि।
फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार।
सनमुख ते करहिं प्रहार॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका हम अपने हाथों वध करेंगे। तब मनमें मरना ठानकर भागते हुए राक्षस लौट पड़े और सामने होकर वे अनेकों प्रकारके हथियारोंसे श्रीरामजीपर प्रहार करने लगे॥ ३॥

मूल (दोहा)

रिपु परम कोपे जानि।
प्रभु धनुष सर संधानि॥
छाँड़े बिपुल नाराच।
लगे कटन बिकट पिसाच॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुको अत्यन्त कुपित जानकर प्रभुने धनुषपर बाण चढ़ाकर बहुत-से बाण छोड़े, जिनसे भयानक राक्षस कटने लगे॥ ४॥

मूल (दोहा)

उर सीस भुज कर चरन।
जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान।
धर परत कुधर समान॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी छाती, सिर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ पृथ्वीपर गिरने लगे। बाण लगते ही वे हाथीकी तरह चिग्घाड़ते हैं। उनके पहाड़के समान धड़ कट-कटकर गिर रहे हैं॥ ५॥

मूल (दोहा)

भट कटत तन सत खंड।
पुनि उठत करि पाषंड॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड।
बिनु मौलि धावत रुंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंके शरीर कटकर सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। वे फिर माया करके उठ खड़े होते हैं। आकाशमें बहुत-सी भुजाएँ और सिर उड़ रहे हैं तथा बिना सिरके धड़ दौड़ रहे हैं॥ ६॥

मूल (दोहा)

खग कंक काक सृगाल।
कटकटहिं कठिन कराल॥

अनुवाद (हिन्दी)

चील [या क्रौंच], कौए आदि पक्षी और सियार कठोर और भयङ्कर कट-कट शब्द कर रहे हैं॥ ७॥

छंद

मूल (दोहा)

कटकटहिं जंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सियार कटकटाते हैं, भूत, प्रेत और पिशाच खोपड़ियाँ बटोर रहे हैं [अथवा खप्पर भर रहे हैं]। वीर-वैताल खोपड़ियोंपर ताल दे रहे हैं और योगिनियाँ नाच रही हैं। श्रीरघुवीरके प्रचण्ड बाण योद्धाओंके वक्षःस्थल, भुजा और सिरोंके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। उनके धड़ जहाँ-तहाँ गिर पड़ते हैं। फिर उठते और लड़ते हैं और ‘पकड़ो-पकड़ो’ का भयङ्कर शब्द करते हैं॥ १॥

मूल (दोहा)

अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

अँतड़ियोंके एक छोरको पकड़कर गीध उड़ते हैं और उन्हींका दूसरा छोर हाथसे पकड़कर पिशाच दौड़ते हैं, ऐसा मालूम होता है, मानो संग्रामरूपी नगरके निवासी बहुत-से बालक पतंग उड़ा रहे हों। अनेकों योद्धा मारे और पछाड़े गये। बहुत-से, जिनके हृदय विदीर्ण हो गये हैं, पडे़ कराह रहे हैं। अपनी सेनाको व्याकुल देखकर त्रिशिरा और खर-दूषण आदि योद्धा श्रीरामजीकी ओर मुड़े॥ २॥

मूल (दोहा)

सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बारमें श्रीरघुवीरपर छोड़ने लगे। प्रभुने पलभरमें शत्रुओंके बाणोंको काटकर, ललकारकर उनपर अपने बाण छोड़े। सब राक्षस-सेनापतियोंके हृदयमें दस-दस बाण मारे॥ ३॥

मूल (दोहा)

महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक करॺो।
देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मरॺो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धा पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं, फिर उठकर भिड़ते हैं। मरते नहीं, बहुत प्रकारकी अतिशय माया रचते हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत [राक्षस] चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्रीरामजी अकेले हैं। देवता और मुनियोंको भयभीत देखकर मायाके स्वामी प्रभुने एक बड़ा कौतुक किया, जिससे शत्रुओंकी सेना एक-दूसरेको रामरूप देखने लगी और आपसमें ही युद्ध करके लड़ मरी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥ २०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब [‘यही राम है, इसे मारो’ इस प्रकार ] राम-राम कहकर शरीर छोड़ते हैं और निर्वाण (मोक्ष) पद पाते हैं। कृपानिधान श्रीरामजीने यह उपाय करके क्षणभरमें शत्रुओंको मार डाला॥ २०(क)॥

मूल (दोहा)

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥ २०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाशमें नगाड़े बज रहे हैं। फिर वे सब स्तुति कर-करके अनेकों विमानोंपर सुशोभित हुए चले गये॥ २०(ख)॥

मूल (चौपाई)

जब रघुनाथ समर रिपु जीते।
सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए।
प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब श्रीरघुनाथजीने युद्धमें शत्रुओंको जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गये, तब लक्ष्मणजी सीताजीको ले आये। चरणोंमें पड़ते हुए उनको प्रभुने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदयसे लगा लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीता चितव स्याम मृदु गाता।
परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पंचबटीं बसि श्रीरघुनायक।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी श्रीरामजीके श्याम और कोमल शरीरको परम प्रेमके साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं। इस प्रकार पञ्चवटीमें बसकर श्रीरघुनाथजी देवताओं और मुनियोंको सुख देनेवाले चरित्र करने लगे॥ २॥

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