०७ रामका दण्डक-वन-प्रवेश और जटायु-मिलन पञ्चवटी-निवास और श्रीराम-लक्ष्मण-संवाद

मूल (चौपाई)

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है; उसका नाम पञ्चवटी है। हे प्रभो! आप दण्डकवनको [जहाँ पञ्चवटी है] पवित्र कीजिये और श्रेष्ठ मुनि गौतमजीके कठोर शापको हर लीजिये॥ ८॥

मूल (चौपाई)

बास करहु तहँ रघुकुल राया।
कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई।
तुरतहिं पंचबटी निअराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुकुलके स्वामी! आप सब मुनियोंपर दया करके वहीं निवास कीजिये। मुनिकी आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजी वहाँसे चल दिये और शीघ्र ही पञ्चवटीके निकट पहुँच गये॥ ९॥

दोहा

मूल (दोहा)

गीधराज सैं भेंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ गृध्रराज जटायुसे भेंट हुई। उसके साथ बहुत प्रकारसे प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गोदावरीजीके समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥ १३॥

मूल (चौपाई)

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए।
दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे श्रीरामजीने वहाँ निवास किया तबसे मुनि सुखी हो गये, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभासे छा गये। वे दिनोंदिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं।
मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा।
जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षी और पशुओंके समूह आनन्दित रहते हैं और भौंरे मधुर गुंजार करते हुए शोभा पा रहे हैं। जहाँ प्रत्यक्ष श्रीरामजी विराजमान हैं, उस वनका वर्णन सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते॥ २॥

मूल (चौपाई)

एक बार प्रभु सुख आसीना।
लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं।
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार प्रभु श्रीरामजी सुखसे बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजीने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे—हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचरके स्वामी! मैं अपने प्रभुकी तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।
सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! मुझे समझाकर वही कहिये, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरजकी ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और मायाका वर्णन कीजिये; और उस भक्तिको कहिये जिसके कारण आप दया करते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! ईश्वर और जीवका भेद भी सब समझाकर कहिये, जिससे आपके चरणोंमें मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जायँ॥ १४॥

मूल (चौपाई)

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीने कहा—) हे तात! मैं थोड़ेहीमें सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो। मैं और मेरा, तू और तेरा—यही माया है, जिसने समस्त जीवोंको वशमें कर रखा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंके विषयोंको और जहाँतक मन जाता है, हे भाई! उस सबको माया जानना। उसके भी—एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदोंको तुम सुनो—॥ २॥

मूल (चौपाई)

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यन्त दुःखरूप है जिसके वश होकर जीव संसाररूपी कुएँमें पड़ा हुआ है। और एक (विद्या) जिसके वशमें गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभुसे ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान वह है जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी [दोष] नहीं है और जो सबमें समानरूपसे ब्रह्मको देखता है। हे तात! उसीको परम वैराग्यवान् कहना चाहिये जो सारी सिद्धियोंको और तीनों गुणोंको तिनकेके समान त्याग चुका हो॥ ४॥
[जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्यसेवाका अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मनका निगृहीत न होना, इन्द्रियोंके विषयमें आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुखबुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदिमें आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें हर्ष-शोक, भक्तिका अभाव, एकान्तमें मन न लगना, विषयी मनुष्योंके संगमें प्रेम—ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्वज्ञानके अर्थ (तत्त्वज्ञानके द्वारा जाननेयोग्य) परमात्माका नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिये गीता अध्याय १३। ७ से ११]

दोहा

मूल (दोहा)

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मायाको, ईश्वरको और अपने स्वरूपको नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिये। जो [कर्मानुसार] बन्धन और मोक्ष देनेवाला, सबसे परे और मायाका प्रेरक है वह ईश्वर है॥ १५॥

मूल (चौपाई)

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई।
सो मम भगति भगत सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योगसे ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्षका देनेवाला है—ऐसा वेदोंने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तोंको सुख देनेवाली है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो सुतंत्र अवलंब न आना।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भक्ति स्वतन्त्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधनका सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुखकी मूल है; और वह तभी मिलती है जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

भगति कि साधन कहउँ बखानी।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं भक्तिके साधन विस्तारसे कहता हूँ—यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणोंके चरणोंमें अत्यन्त प्रीति हो और वेदकी रीतिके अनुसार अपने-अपने [वर्णाश्रमके] कर्मोंमें लगा रहे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा।
तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं।
मम लीला रति अति मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसका फल, फिर विषयोंसे वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होनेपर) मेरे धर्म (भागवतधर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकारकी भक्तियाँ दृढ़ होंगी और मनमें मेरी लीलाओंके प्रति अत्यन्त प्रेम होगा॥ ४॥

मूल (चौपाई)

संत चरन पंकज अति प्रेमा।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा।
सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका संतोंके चरणकमलोंमें अत्यन्त प्रेम हो; मन, वचन और कर्मसे भजनका दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवामें दृढ़ हो;॥ ५॥

मूल (चौपाई)

मम गुन गावत पुलक सरीरा।
गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें।
तात निरंतर बस मैं ताकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाय, वाणी गद्गद हो जाय और नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वशमें रहता हूँ॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनको कर्म, वचन और मनसे मेरी ही गति है; और जो निष्काम भावसे मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय-कमलमें मैं सदा विश्राम किया करता हूँ॥ १६॥

मूल (चौपाई)

भगति जोग सुनि अति सुख पावा।
लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस भक्तियोगको सुनकर लक्ष्मणजीने अत्यन्त सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गये॥ १॥

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