०६ राक्षस-वधकी प्रतिज्ञा करना सुतीक्ष्णजीका प्रेम, अगस्त्य-मिलन, अगस्त्य-संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वीको राक्षसोंसे रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियोंके आश्रमोंमें जा-जाकर उनको [दर्शन एवं सम्भाषणका] सुख दिया॥ ९॥

मूल (चौपाई)

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना।
नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक।
सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि अगस्त्यजीके एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान् में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके चरणोंके सेवक थे। उन्हें स्वप्नमें भी किसी दूसरे देवताका भरोसा नहीं था॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा।
करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया।
मो से सठ पर करिहहिं दाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ज्यों ही प्रभुका आगमन कानोंसे सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड़ चले। हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्रीरघुनाथजी मुझ-जैसे दुष्टपर भी दया करेंगे?॥ २॥

मूल (चौपाई)

सहित अनुज मोहि रामगोसाईं।
मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या स्वामी श्रीरामजी छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित मुझसे अपने सेवककी तरह मिलेंगे? मेरे हृदयमें दृढ़ विश्वास नहीं होता; क्योंकि मेरे मनमें भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नहिं सतसंग जोग जप जागा।
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने न तो सत्सङ्ग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किये हैं और न प्रभुके चरणकमलोंमें मेरा दृढ़ अनुराग ही है। हाँ, दयाके भण्डार प्रभुकी एक बान है कि जिसे किसी दूसरेका सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

होइहैं सुफल आजु मम लोचन।
देखि बदन पंकज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सो दसा भवानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[भगवान् की इस बानका स्मरण आते ही मुनि आनन्दमग्न होकर मन-ही-मन कहने लगे—] अहा! भवबन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभुके मुखारविन्दको देखकर आज मेरे नेत्र सफल होंगे। [शिवजी कहते हैं—] हे भवानी! ज्ञानी मुनि प्रेममें पूर्णरूपसे निमग्न हैं। उनकी वह दशा कही नहीं जाती॥ ५॥

मूल (चौपाई)

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा।
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें दिशा-विदिशा (दिशाएँ और उनके कोण आदि) और रास्ता, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। मैं कौन हूँ और कहाँ जा रहा हूँ, यह भी नहीं जानते (इसका भी ज्ञान नहीं है)। वे कभी पीछे घूमकर फिर आगे चलने लगते हैं और कभी [प्रभुके] गुण गा-गाकर नाचने लगते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।
प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा।
प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने प्रगाढ़ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्रीरामजी वृक्षकी आड़में छिपकर [भक्तकी प्रेमोन्मत्त दशा] देख रहे हैं। मुनिका अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमनके भय) को हरनेवाले श्रीरघुनाथजी मुनिके हृदयमें प्रकट हो गये॥ ७॥

मूल (चौपाई)

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा।
पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए।
देखि दसा निज जन मन भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

[हृदयमें प्रभुके दर्शन पाकर] मुनि बीच रास्तेमें अचल (स्थिर) होकर बैठ गये। उनका शरीर रोमाञ्चसे कटहलके फलके समान [कण्टकित] हो गया। तब श्रीरघुनाथजी उनके पास चले आये और अपने भक्तकी प्रेमदशा देखकर मनमें बहुत प्रसन्न हुए॥ ८॥

मूल (चौपाई)

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा।
जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा।
हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने मुनिको बहुत प्रकारसे जगाया, पर मुनि नहीं जागे; क्योंकि उन्हें प्रभुके ध्यानका सुख प्राप्त हो रहा था। तब श्रीरामजीने अपने राजरूपको छिपा लिया और उनके हृदयमें अपना चतुर्भुजरूप प्रकट किया॥ ९॥

मूल (चौपाई)

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें।
बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगें देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब (अपने इष्ट-स्वरूपके अन्तर्धान होते ही) मुनि कैसे व्याकुल होकर उठे, जैसे श्रेष्ठ (मणिधर) सर्प मणिके बिना व्याकुल हो जाता है। मुनिने अपने सामने सीताजी और लक्ष्मणजीसहित श्यामसुन्दर-विग्रह सुखधाम श्रीरामजीको देखा॥ १०॥

मूल (चौपाई)

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी।
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई।
परम प्रीति राखे उर लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेममें मग्न हुए वे बड़भागी श्रेष्ठ मुनि लाठीकी तरह गिरकर श्रीरामजीके चरणोंमें लग गये। श्रीरामजीने अपनी विशाल भुजाओंसे पकड़कर उन्हें उठा लिया और बड़े प्रेमसे हृदयसे लगा रखा॥ ११॥

मूल (चौपाई)

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला।
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा।
मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुनिसे मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो सोनेके वृक्षसे तमालका वृक्ष गले लगकर मिल रहा हो। मुनि [निस्तब्ध] खड़े हुए [टकटकी लगाकर] श्रीरामजीका मुख देख रहे हैं, मानो चित्रमें लिखकर बनाये गये हों॥ १२॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिने हृदयमें धीरज धरकर बार-बार चरणोंको स्पर्श किया। फिर प्रभुको अपने आश्रममें लाकर अनेक प्रकारसे उनकी पूजा की॥ १०॥

मूल (चौपाई)

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी।
अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी।
रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि कहने लगे—हे प्रभो! मेरी विनती सुनिये। मैं किस प्रकारसे आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्यके सामने जुगनूका उजाला!॥ १॥

मूल (चौपाई)

श्याम तामरस दाम शरीरं।
जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं।
नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नीलकमलकी मालाके समान श्याम शरीरवाले! हे जटाओंका मुकुट और मुनियोंके (वल्कल) वस्त्र पहने हुए, हाथोंमें धनुष-बाण लिये तथा कमरमें तरकस कसे हुए श्रीरामजी! मैं आपको निरन्तर नमस्कार करता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

मोह विपिन घन दहन कृशानुः।
संत सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः।
त्रातु सदा नो भव खग बाजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मोहरूपी घने वनको जलानेके लिये अग्नि हैं, संतरूपी कमलोंके वनके प्रफुल्लित करनेके लिये सूर्य हैं, राक्षसरूपी हाथियोंके समूहके पछाड़नेके लिये सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षीके मारनेके लिये बाजरूप हैं, वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अरुण नयन राजीव सुवेशं।
सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं।
नौमि राम उर बाहु विशालं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे लाल कमलके समान नेत्र और सुन्दर वेषवाले! सीताजीके नेत्ररूपी चकोरके चन्द्रमा, शिवजीके हृदयरूपी मानसरोवरके बालहंस, विशाल हृदय और भुजावाले श्रीरामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ४॥

मूल (चौपाई)

संशय सर्प ग्रसन उरगादः।
शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः।
त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो संशयरूपी सर्पको ग्रसनेके लिये गरुड़ हैं, अत्यन्त कठोर तर्कसे उत्पन्न होनेवाले विषादका नाश करनेवाले हैं, आवागमनको मिटानेवाले और देवताओंके समूहको आनन्द देनेवाले हैं, वे कृपाके समूह श्रीरामजी सदा हमारी रक्षा करें॥ ५॥

मूल (चौपाई)

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं।
ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं।
नौमि राम भंजन महि भारं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इन्द्रियोंसे अतीत! हे अनुपम,निर्मल, सम्पूर्ण दोषरहित, अनन्त एवं पृथ्वीका भार उतारनेवाले श्रीरामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ६॥

मूल (चौपाई)

भक्त कल्पपादप आरामः।
तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः।
त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भक्तोंके लिये कल्पवृक्षके बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और कामको डरानेवाले हैं, अत्यन्त ही चतुर और संसाररूपी समुद्रसे तरनेके लिये सेतुरूप हैं, वे सूर्यकुलकी ध्वजा श्रीरामजी सदा मेरी रक्षा करें॥ ७॥

मूल (चौपाई)

अतुलित भुज प्रताप बल धामः।
कलि मल विपुल विभंजन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः।
संतत शं तनोतु मम रामः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी भुजाओंका प्रताप अतुलनीय है, जो बलके धाम हैं, जिनका नाम कलियुगके बड़े भारी पापोंका नाश करनेवाला है, जो धर्मके कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुणसमूह आनन्द देनेवाले हैं, वे श्रीरामजी निरन्तर मेरे कल्याणका विस्तार करें॥ ८॥

मूल (चौपाई)

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी।
सब के हृदयँ निरंतर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी।
बसतु मनसि मम काननचारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदयमें निरन्तर निवास करनेवाले हैं; तथापि हे खरारि श्रीरामजी! लक्ष्मणजी और सीताजीसहित वनमें विचरनेवाले आप इसी रूपमें मेरे हृदयमें निवास कीजिये॥ ९॥

मूल (चौपाई)

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी।
सगुन अगुन उर अंतरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना।
करउ सो राम हृदय मम अयना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अन्तर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदयको तो कोसलपति कमलनयन श्रीरामजी ही अपना घर बनावें॥ १०॥

मूल (चौपाई)

अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए।
बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्रीरघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनिके वचन सुनकर श्रीरामजी मनमें बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनिको हृदयसे लगा लिया॥ ११॥

मूल (चौपाई)

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही।
जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा।
समुझि न परइ झूठ का साचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा—] हे मुनि! मुझे परम प्रसन्न जानो। जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ! मुनि सुतीक्ष्णजीने कहा—मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है, (क्या माँगूँ, क्या नहीं)॥ १२॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि नीक लागै रघुराई।
सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना।
होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

[अतः] हे रघुनाथजी! हे दासोंको सुख देनेवाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिये। [श्रीरामचन्द्रजीने कहा—हे मुने!] तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञानके निधान हो जाओ॥ १३॥

मूल (चौपाई)

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा।
अब सो देहु मोहि जो भावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[तब मुनि बोले—] प्रभुने जो वरदान दिया वह तो मैंने पा लिया। अब मुझे जो अच्छा लगता है वह दीजिये—॥ १४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! हे श्रीरामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदयरूपी आकाशमें चन्द्रमाकी भाँति सदा निवास कीजिये॥ ११॥

मूल (चौपाई)

एवमस्तु करि रमानिवासा।
हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ।
भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मीनिवास श्रीरामचन्द्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषिके पास चले। [तब सुतीक्ष्णजी बोले—] गुरु अगस्त्यजीका दर्शन पाये और इस आश्रममें आये मुझे बहुत दिन हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं।
तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई।
लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं भी प्रभु (आप) के साथ गुरुजीके पास चलता हूँ। इसमें हे नाथ! आपपर मेरा कोई एहसान नहीं है। मुनिकी चतुरता देखकर कृपाके भण्डार श्रीरामजीने उनको साथ ले लिया और दोनों भाई हँसने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

पंथ कहत निज भगति अनूपा।
मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ।
करि दंडवत कहत अस भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें अपनी अनुपम भक्तिका वर्णन करते हुए देवताओंके राजराजेश्वर श्रीरामजी अगस्त्य मुनिके आश्रमपर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरंत ही गुरु अगस्त्यजीके पास गये और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाथ कोसलाधीस कुमारा।
आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही।
निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! अयोध्याके राजा दशरथजीके कुमार जगदाधार श्रीरामचन्द्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसहित आपसे मिलने आये हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए।
हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई।
रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरंत ही उठ दौड़े। भगवान् को देखते ही उनके नेत्रोंमें [आनन्द और प्रेमके आँसुओंका] जल भर आया। दोनों भाई मुनिके चरणकमलोंपर गिर पड़े। ऋषिने [उठाकर] बड़े प्रेमसे उन्हें हृदयसे लगा लिया॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी।
आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा।
मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी मुनिने आदरपूर्वक कुशल पूछकर उनको लाकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया। फिर बहुत प्रकारसे प्रभुकी पूजा करके कहा—मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा।
हरषे सब बिलोकि सुखकंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जहाँतक (जितने भी) अन्य मुनिगण थे, सभी आनन्दकन्द श्रीरामजीके दर्शन करके हर्षित हो गये॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनियोंके समूहमें श्रीरामचन्द्रजी सबकी ओर सम्मुख होकर बैठे हैं (अर्थात् प्रत्येक मुनिको श्रीरामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखायी देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाये उनके मुखको देख रहे हैं)। ऐसा जान पड़ता है मानो चकोरोंका समुदाय शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी ओर देख रहा हो॥ १२॥

मूल (चौपाई)

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं।
तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ।
ताते तात न कहि समुझायउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामजीने मुनिसे कहा—हे प्रभो! आपसे तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारणसे आया हूँ वह आप जानते ही हैं। इसीसे हे तात! मैंने आपसे समझाकर कुछ नहीं कहा॥ १॥

मूल (चौपाई)

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही।
जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी।
पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! अब आप मुझे वही मन्त्र (सलाह) दीजिये, जिस प्रकार मैं मुनियोंके द्रोही राक्षसोंको मारूँ। प्रभुकी वाणी सुनकर मुनि मुस्कराये और बोले—हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी।
जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया।
फल ब्रह्मांड अनेक निकाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पापोंका नाश करनेवाले! मैं तो आपहीके भजनके प्रभावसे आपकी कुछ थोड़ी-सी महिमा जानता हूँ। आपकी माया गूलरके विशाल वृक्षके समान है, अनेकों ब्रह्माण्डोंके समूह ही जिसके फल हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जीव चराचर जंतु समाना।
भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला।
तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥

अनुवाद (हिन्दी)

चर और अचर जीव [गूलरके फलके भीतर रहनेवाले छोटे-छोटे] जन्तुओंके समान उन [ब्रह्माण्डरूपी फलों] के भीतर बसते हैं और वे [अपने उस छोटे-से जगत् के सिवा] दूसरा कुछ नहीं जानते। उन फलोंका भक्षण करनेवाला कठिन और कराल काल है। वह काल भी सदा आपसे भयभीत रहता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं।
पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता।
बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं आपने समस्त लोकपालोंके स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्यकी तरह प्रश्न किया। हे कृपाके धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्रीसीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित मेरे हृदयमें [सदा] निवास कीजिये॥ ५॥

मूल (चौपाई)

अबिरल भगति बिरति सतसंगा।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, सत्संग और आपके चरणकमलोंमें अटूट प्रेम प्राप्त हो। यद्यपि आप अखण्ड और अनन्त ब्रह्म हैं, जो अनुभवसे ही जाननेमें आते हैं और जिनका संतजन भजन करते हैं;॥ ६॥

मूल (चौपाई)

अस तव रूप बखानउँ जानउँ।
फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई।
तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि मैं आपके ऐसे रूपको जानता हूँ और उसका वर्णन भी करता हूँ तो भी लौट-लौटकर मैं सगुण ब्रह्ममें (आपके इस सुन्दर स्वरूपमें) ही प्रेम मानता हूँ। आप सेवकोंको सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसीसे हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥ ७॥

Misc Detail