०५ श्रीरामजीका आगे प्रस्थान, विराध-वध और शरभङ्ग-प्रसङ्ग

मूल (चौपाई)

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा।
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछें।
मुनि बर बेष बने अति काछें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके चरणकमलोंमें सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियोंके स्वामी श्रीरामजी वनको चले। आगे श्रीरामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियोंका सुन्दर वेष बनाये अत्यन्त सुशोभित हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

उभय बीच श्री सोहइ कैसी।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा।
पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंके बीचमें श्रीजानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीवके बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामीको पहचानकर सुन्दर रास्ता दे देते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया।
करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता।
आवतहीं रघुबीर निपाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ-जहाँ देव श्रीरघुनाथजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ बादल आकाशमें छाया करते जाते हैं। रास्तेमें जाते हुए विराध राक्षस मिला। सामने आते ही श्रीरघुनाथजीने उसे मार डाला॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा।
देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा।
सुंदर अनुज जानकी संगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[श्रीरामजीके हाथसे मरते ही] उसने तुरंत सुन्दर (दिव्य) रूप प्राप्त कर लिया। दुखी देखकर प्रभुने उसे अपने परम धामको भेज दिया। फिर वे सुन्दर छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीके साथ वहाँ आये जहाँ मुनि शरभंगजी थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखि राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठके नेत्ररूपी भौंरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका [मकरन्दरस] पान कर रहे हैं। शरभंगजीका जन्म धन्य है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला।
संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा।
सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने कहा—हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजीके मनरूपी मानसरोवरके राजहंस! सुनिये, मैं ब्रह्मलोकको जा रहा था। [इतनेमें] कानोंसे सुना कि श्रीरामजी वनमें आवेंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती।
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबसे मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभुको देखकर मेरी छाती शीतल हो गयी। हे नाथ! मैं सब साधनोंसे हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझपर कृपा की है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो कछु देव न मोहि निहोरा।
निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी।
जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! यह कुछ मुझपर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त-मनचोर! ऐसा करके आपने अपने प्रणकी ही रक्षा की है। अब इस दीनके कल्याणके लिये तबतक यहाँ ठहरिये, जबतक मैं शरीर छोड़कर आपसे [आपके धाममें न] मिलूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा।
प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा।
बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनिने किया था, सब प्रभुको समर्पण करके बदलेमें भक्तिका वरदान ले लिया। इस प्रकार [दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर] चिता रचकर मुनि शरभंगजी हृदयसे सब आसक्ति छोड़कर उसपर जा बैठे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्रीराम॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नीले मेघके समान श्याम शरीरवाले सगुणरूप श्रीरामजी! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित प्रभु (आप) निरन्तर मेरे हृदयमें निवास कीजिये॥ ८॥

मूल (चौपाई)

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा।
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर शरभंगजीने योगाग्निसे अपने शरीरको जला डाला और श्रीरामजीकी कृपासे वे वैकुण्ठको चले गये। मुनि भगवान् में लीन इसलिये नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्तिका वर ले लिया था॥ १॥

मूल (चौपाई)

रिषि निकाय मुनिबर गति देखी।
सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा।
जयति प्रनत हित करुना कंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषिसमूह मुनिश्रेष्ठ शरभंगजीकी यह [दुर्लभ] गति देखकर अपने हृदयमें विशेषरूपसे सुखी हुए। समस्त मुनिवृन्द श्रीरामजीकी स्तुति कर रहे हैं [और कह रहे हैं] शरणागतहितकारी करुणाकन्द (करुणाके मूल) प्रभुकी जय हो!॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि रघुनाथ चले बन आगे।
मुनिबर बृंद बिपुल संग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरघुनाथजी आगे वनमें चले। श्रेष्ठ मुनियोंके बहुत-से समूह उनके साथ हो लिये। हड्डियोंका ढेर देखकर श्रीरघुनाथजीको बड़ी दया आयी, उन्होंने मुनियोंसे पूछा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

[मुनियोंने कहा—] हे स्वामी! आप सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) और अन्तर्यामी (सबके हृदयकी जाननेवाले) हैं। जानते हुए भी [अनजानकी तरह] हमसे कैसे पूछ रहे हैं? राक्षसोंके दलोंने सब मुनियोंको खा डाला है [ये सब उन्हींकी हड्डियोंके ढेर हैं]। यह सुनते ही श्रीरघुवीरके नेत्रोंमें जल छा गया (उनकी आँखोंमें करुणाके आँसू भर आये)॥ ४॥

Misc Detail