०४ श्रीसीता-अनसूया-मिलन और श्रीसीताजीको अनसूयाजीका पातिव्रतधर्म कहना

मूल (चौपाई)

अनुसुइया के पद गहि सीता।
मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई।
आसिष देइ निकट बैठाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर परम शीलवती और विनम्र श्रीसीताजी [अत्रिजीकी पत्नी] अनसूयाजीके चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषिपत्नीके मनमें बड़ा सुख हुआ। उन्होंने आशिष देकर सीताजीको पास बैठा लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

दिब्य बसन भूषन पहिराए।
जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी।
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाये, जो नित्य-नये निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषिपत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणीसे स्त्रियोंके कुछ धर्म बखानकर कहने लगीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मातु पिता भ्राता हितकारी।
मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही।
अधम सो नारि जो सेव न तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजकुमारी! सुनिये, माता, पिता, भाई सभी हित करनेवाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमातक ही [सुख] देनेवाले हैं। परन्तु हे जानकी! पति तो [मोक्षरूप] असीम [सुख] देनेवाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पतिकी सेवा नहीं करती॥ ३॥

मूल (चौपाई)

धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री—इन चारोंकी विपत्तिके समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अन्धा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।
नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे भी पतिका अपमान करनेसे स्त्री यमपुरमें भाँति-भाँतिके दुःख पाती है। शरीर, वचन और मनसे पतिके चरणोंमें प्रेम करना स्त्रीके लिये, बस, यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं।
बेद पुरान संत सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में चार प्रकारकी पतिव्रताएँ हैं वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणीकी पतिव्रताके मनमें ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत् में [मेरे पतिको छोड़कर] दूसरा पुरुष स्वप्नमें भी नहीं है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

मध्यम परपति देखइ कैसें।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई।
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मध्यम श्रेणीकी पतिव्रता पराये पतिको कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो। (अर्थात् समान अवस्थावालेको वह भाईके रूपमें देखती है, बड़ेको पिताके रूपमें और छोटेको पुत्रके रूपमें देखती है।) जो धर्मको विचारकर और अपने कुलकी मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्नश्रेणीकी) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥ ७॥

मूल (चौपाई)

बिनु अवसर भय तें रह जोई।
जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बंचक परपति रति करई।
रौरव नरक कल्प सत परई॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो स्त्री मौका न मिलनेसे या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत् में उसे अधम स्त्री जानना। पतिको धोखा देनेवाली जो स्त्री पराये पतिसे रति करती है, वह तो सौ कल्पतक रौरव नरकमें पड़ी रहती है॥ ८॥

मूल (चौपाई)

छन सुख लागि जनम सतकोटी।
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षणभरके सुखके लिये जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मोंके दुःखको नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पातिव्रत-धर्मको ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गतिको प्राप्त करती है॥ ९॥

मूल (चौपाई)

पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई।
बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु जो पतिके प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानीमें) विधवा हो जाती है॥ १०॥

सोरठा

मूल (दोहा)

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥ ५ (क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री जन्मसे ही अपवित्र है, किन्तु पतिकी सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। [पातिव्रतधर्मके कारण ही] आज भी ‘तुलसीजी’ भगवान् को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥ ५(क)॥

मूल (दोहा)

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥ ५ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पातिव्रतधर्मका पालन करेंगी। तुम्हें तो श्रीरामजी प्राणोंके समान प्रिय हैं, यह (पातिव्रतधर्मकी) कथा तो मैंने संसारके हितके लिये कही है॥ ५(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनि जानकी परम सुखु पावा।
सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना।
आयसु होइ जाउँ बन आना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणोंमें सिर नवाया। तब कृपाकी खान श्रीरामजीने मुनिसे कहा—आज्ञा हो तो अब दूसरे वनमें जाऊँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

संतत मो पर कृपा करेहू।
सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझपर निरन्तर कृपा करते रहियेगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़ियेगा। धर्मधुरन्धर प्रभु श्रीरामजीके वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जासु कृपा अज सिव सनकादी।
चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा, शिव और सनकादि सभी परमार्थवादी (तत्त्ववेत्ता) जिनकी कृपा चाहते हैं, हे रामजी! आप वही निष्काम पुरुषोंके भी प्रिय और दीनोंके बन्धु भगवान् हैं, जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब जानी मैं श्री चतुराई।
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई।
ता कर सील कस न अस होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैंने लक्ष्मीजीकी चतुराई समझी, जिन्होंने सब देवताओंको छोड़कर आपहीको भजा। जिसके समान [सब बातोंमें] अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है, उसका शील भला, ऐसा क्यों न होगा?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी।
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा।
लोचन जल बह पुलक सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइये? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिये। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभुको देखने लगे। मुनिके नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि अत्यन्त प्रेमसे पूर्ण हैं; उनका शरीर पुलकित है और नेत्रोंको श्रीरामजीके मुखकमलमें लगाये हुए हैं। [मनमें विचार रहे हैं कि] मैंने ऐसे कौन-से जप-तप किये थे, जिसके कारण मन, ज्ञान, गुण और इन्द्रियोंसे परे प्रभुके दर्शन पाये। जप, योग और धर्म-समूहसे मनुष्य अनुपम भक्तिको पाता है। श्रीरघुवीरके पवित्र चरित्रको तुलसीदास रात-दिन गाता है।

दोहा

मूल (दोहा)

कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥ ६ (क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर यश कलियुगके पापोंका नाश करनेवाला, मनको दमन करनेवाला और सुखका मूल है। जो लोग इसे आदरपूर्वक सुनते हैं, उनपर श्रीरामजी प्रसन्न रहते हैं॥ ६(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥ ६ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कठिन कलिकाल पापोंका खजाना है; इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है। इसमें तो जो लोग सब भरोसोंको छोड़कर श्रीरामजीको ही भजते हैं, वे ही चतुर हैं॥ ६(ख)॥

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