०३ अत्रि-मिलन एवं स्तुति

मूल (चौपाई)

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई।
सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ।
सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[इसलिये] सब मुनियोंसे विदा लेकर सीताजीसहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजीके आश्रममें गये, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुलकित गात अत्रि उठि धाए।
देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दंडवत मुनि उर लाए।
प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौड़े। उन्हें दौड़े आते देखकर श्रीरामजी और भी शीघ्रतासे चले आये। दण्डवत् करते हुए ही श्रीरामजीको [उठाकर] मुनिने हृदयसे लगा लिया और प्रेमाश्रुओंके जलसे दोनों जनोंको (दोनों भाइयोंको) नहला दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि राम छबि नयन जुड़ाने।
सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए।
दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी छबि देखकर मुनिके नेत्र शीतल हो गये। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रममें ले आये। पूजन करके सुन्दर वचन कहकर मुनिने मूल और फल दिये, जो प्रभुके मनको बहुत रुचे॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु आसनपर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनिश्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे—॥ ३॥

छंद

मूल (दोहा)

नमामि भक्त वत्सलं।
कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदांबुजं।
अकामिनां स्वधामदं॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भक्तवत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाववाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषोंको अपना परमधाम देनेवाले आपके चरणकमलोंको मैं भजता हूँ॥ १॥

मूल (दोहा)

निकाम श्याम सुंदरं।
भवांबुनाथ मंदरं।
प्रफुल्ल कंज लोचनं।
मदादि दोष मोचनं॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप नितान्त सुन्दर श्याम, संसार [आवागमन] रूपी समुद्रको मथनेके लिये मन्दराचलरूप, फूले हुए कमलके समान नेत्रोंवाले और मद आदि दोषोंसे छुड़ानेवाले हैं॥ २॥

मूल (दोहा)

प्रलंब बाहु विक्रमं।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं।
निषंग चाप सायकं।
धरं त्रिलोक नायकं॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओंका पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धिके परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करनेवाले तीनों लोकोंके स्वामी,॥ ३॥

मूल (दोहा)

दिनेश वंश मंडनं।
महेश चाप खंडनं।
मुनींद्र संत रंजनं।
सुरारि वृंद भंजनं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यवंशके भूषण, महादेवजीके धनुषको तोड़नेवाले, मुनिराजों और संतोंको आनन्द देनेवाले तथा देवताओंके शत्रु असुरोंके समूहका नाश करनेवाले हैं॥ ४॥

मूल (दोहा)

मनोज वैरि वंदितं।
अजादि देव सेवितं।
विशुद्ध बोध विग्रहं।
समस्त दूषणापहं॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप कामदेवके शत्रु महादेवजीके द्वारा वन्दित, ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषोंको नष्ट करनेवाले हैं॥ ५॥

मूल (दोहा)

नमामि इंदिरा पतिं।
सुखाकरं सतां गतिं।
भजे सशक्ति सानुजं।
शची पति प्रियानुजं॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे लक्ष्मीपते! हे सुखोंकी खान और सत्पुरुषोंकी एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्रीसीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित आपको मैं भजता हूँ॥ ६॥

मूल (दोहा)

त्वदंघ्रि मूल ये नराः।
भजंति हीन मत्सराः।
पतंति नो भवार्णवे।
वितर्क वीचि संकुले॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरणकमलोंका सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकारके सन्देह) रूपी तरङ्गोंसे पूर्ण संसाररूपी समुद्रमें नहीं गिरते (आवागमनके चक्करमें नहीं पड़ते)॥ ७॥

मूल (दोहा)

विविक्त वासिनः सदा।
भजंति मुक्तये मुदा।
निरस्य इंद्रियादिकं।
प्रयांति ते गतिं स्वकं॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एकान्तवासी पुरुष मुक्तिके लिये, इन्द्रियादिका निग्रह करके (उन्हें विषयोंसे हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गतिको (अपने स्वरूपको) प्राप्त होते हैं॥ ८॥

मूल (दोहा)

तमेकमद्भुतं प्रभुं।
निरीहमीश्वरं विभुं।
जगद्गुरुं च शाश्वतं।
तुरीयमेव केवलं॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत् से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणोंसे सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूपमें स्थित) हैं॥ ९॥

मूल (दोहा)

भजामि भाव वल्लभं।
कुयोगिनां सुदुर्लभं।
स्वभक्त कल्प पादपं।
समं सुसेव्यमन्वहं॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

[तथा] जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों)के लिये अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तोंके लिये कल्पवृक्ष (अर्थात् उनकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करनेयोग्य हैं; मैं निरन्तर भजता हूँ॥ १०॥

मूल (दोहा)

अनूप रूप भूपतिं।
नतोऽहमुर्विजा पतिं।
प्रसीद मे नमामि ते।
पदाब्ज भक्ति देहि मे॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनुपम सुन्दर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरणकमलोंकी भक्ति दीजिये॥ ११॥

मूल (दोहा)

पठंति ये स्तवं इदं।
नरादरेण ते पदं।
व्रजंति नात्र संशयं।
त्वदीय भक्ति संयुताः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इस स्तुतिको आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्तिसे युक्त होकर आपके परमपदको प्राप्त होते हैं, इसमें सन्देह नहीं॥ १२॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने [इस प्रकार] विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा—हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरणकमलोंको कभी न छोड़े॥ ४॥

Misc Detail