०२ जयन्तकी कुटिलता और फलप्राप्ति

मूल (चौपाई)

एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार सुन्दर फूल चुनकर श्रीरामजीने अपने हाथोंसे भाँति-भाँतिके गहने बनाये और सुन्दर स्फटिकशिलापर बैठे हुए प्रभुने आदरके साथ वे गहने श्रीसीताजीको पहनाये॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुरपति सुत धरि बायस बेषा।
सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।
महा मंदमति पावन चाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रका मूर्ख पुत्र जयन्त कौएका रूप धरकर श्रीरघुनाथजीका बल देखना चाहता है। जैसे महान् मन्दबुद्धि चींटी समुद्रका थाह पाना चाहती हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सीता चरन चोंच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मूढ़, मन्दबुद्धि कारणसे (भगवान् के बलकी परीक्षा करनेके लिये) बना हुआ कौआ सीताजीके चरणोंमें चोंच मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्रीरघुनाथजीने जाना और धनुषपर सींक (सरकंडे)का बाण सन्धान किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनोंपर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणोंके घर मूर्ख जयन्तने आकर छल किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा।
चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रसे प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्रके पास गया, पर श्रीरामजीका विरोधी जानकर इन्द्रने उसको नहीं रखा॥ १॥

मूल (चौपाई)

भा निरास उपजी मन त्रासा।
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह निराश हो गया, उसके मनमें भय उत्पन्न हो गया; जैसे दुर्वासा ऋषिको चक्रसे भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकोंमें थका हुआ और भय-शोकसे व्याकुल होकर भागता फिरा॥ २॥

मूल (चौपाई)

काहूँ बैठन कहा न ओही।
राखि को सकइ राम कर द्रोही॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

[पर रखना तो दूर रहा] किसीने उसे बैठनेतकके लिये नहीं कहा। श्रीरामजीके द्रोहीको कौन रख सकता है? [काकभुशुण्डिजी कहते हैं—] हे गरुड़! सुनिये, उसके लिये माता मृत्युके समान, पिता यमराजके समान और अमृत विषके समान हो जाता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मित्र करइ सत रिपु कै करनी।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्र सैकड़ों शत्रुओंकी-सी करनी करने लगता है। देवनदी गङ्गाजी उसके लिये वैतरणी (यमपुरीकी नदी) हो जाती है। हे भाई! सुनिये, जो श्रीरघुनाथजीके विमुख होता है, समस्त जगत् उसके लिये अग्निसे भी अधिक गरम (जलानेवाला) हो जाता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

नारद देखा बिकल जयंता।
लागि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने जयन्तको व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गयी; क्योंकि संतोंका चित्त बड़ा कोमल होता है। उन्होंने उसे [समझाकर] तुरंत श्रीरामजीके पास भेज दिया। उसने [जाकर] पुकारकर कहा— हे शरणागतके हितकारी! मेरी रक्षा कीजिये॥ ५॥

मूल (चौपाई)

आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।
मैं मतिमंद जानि नहिं पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आतुर और भयभीत जयन्तने जाकर श्रीरामजीके चरण पकड़ लिये [और कहा—] हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य)-को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था॥ ६॥

मूल (चौपाई)

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी।
एकनयन करि तजा भवानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने किये हुए कर्मसे उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपकी शरण तककर आया हूँ। [शिवजी कहते हैं—] हे पार्वती! कृपालु श्रीरघुनाथजीने उसकी अत्यन्त आर्त्त [दुःखभरी] वाणी सुनकर उसे एक आँखका काना करके छोड़ दिया॥ ७॥

सोरठा

मूल (दोहा)

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिये यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभुने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्रीरामजीके समान कृपालु और कौन होगा?॥ २॥

मूल (चौपाई)

रघुपति चित्रकूट बसि नाना।
चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना।
होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रकूटमें बसकर श्रीरघुनाथजीने बहुत-से चरित्र किये, जो कानोंको अमृतके समान [प्रिय] हैं। फिर (कुछ समय पश्चात्) श्रीरामजीने मनमें ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गये हैं, इससे [यहाँ] बड़ी भीड़ हो जायगी॥ १॥

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