४९ भरतजीका अयोध्या लौटना, भरतजीद्वारा पादुकाकी स्थापना, नन्दिग्राममें निवास और श्रीभरतजीके चरित्र-श्रवणकी महिमा

दोहा

मूल (दोहा)

सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर॥ ३२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसमेत प्रभु श्रीरामचन्द्रजी पर्णकुटीमें ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो वैराग्य, भक्ति और ज्ञान शरीर धारण करके शोभित हो रहे हों॥ ३२१॥

मूल (चौपाई)

मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू।
राम बिरहँ सबु साजु बिहालू॥
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं।
सब चुपचाप चले मग जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि, ब्राह्मण, गुरु वसिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी—सारा समाज श्रीरामचन्द्रजीके विरहमें विह्वल है। प्रभुके गुणसमूहोंका मनमें स्मरण करते हुए सब लोग मार्गमें चुपचाप चले जा रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जमुना उतरि पार सबु भयऊ।
सो बासरु बिनु भोजन गयऊ॥
उतरि देवसरि दूसर बासू।
रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

[पहले दिन] सब लोग यमुनाजी उतरकर पार हुए। वह दिन बिना भोजनके ही बीत गया। दूसरा मुकाम गङ्गाजी उतरकर (गङ्गापार शृङ्गवेरपुरमें) हुआ। वहाँ रामसखा निषादराजने सब सुप्रबन्ध कर दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सई उतरि गोमतीं नहाए।
चौथें दिवस अवधपुर आए॥
जनकु रहे पुर बासर चारी।
राज काज सब साज सँभारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सई उतरकर गोमतीजीमें स्नान किया और चौथे दिन सब अयोध्याजी जा पहुँचे। जनकजी चार दिन अयोध्याजीमें रहे और राजकाज एवं सब साज-सामानको सँभालकर,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू।
तेरहुति चले साजि सबु साजू॥
नगर नारि नर गुर सिख मानी।
बसे सुखेन राम रजधानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा मन्त्री, गुरुजी तथा भरतजीको राज्य सौंपकर, सारा साज-सामान ठीक करके तिरहुतको चले। नगरके स्त्री-पुरुष गुरुजीकी शिक्षा मानकर श्रीरामजीकी राजधानी अयोध्याजीमें सुखपूर्वक रहने लगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस॥ ३२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये नियम और उपवास करने लगे। वे भूषण और भोग-सुखोंको छोड़-छाड़कर अवधिकी आशापर जी रहे हैं॥ ३२२॥

मूल (चौपाई)

सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे।
निज निज काज पाइ सिख ओधे॥
पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई।
सौंपी सकल मातु सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने मन्त्रियों और विश्वासी सेवकोंको समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काममें लग गये। फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजीको बुलाकर शिक्षा दी और सब माताओंकी सेवा उनको सौंपी॥ १॥

मूल (चौपाई)

भूसुर बोलि भरत कर जोरे।
करि प्रनाम बय बिनय निहोरे॥
ऊँच नीच कारजु भल पोचू।
आयसु देब न करब सँकोचू॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंको बुलाकर भरतजीने हाथ जोड़कर प्रणाम कर अवस्थाके अनुसार विनय और निहोरा किया कि आपलोग ऊँचा-नीचा (छोटा-बड़ा), अच्छा-मन्दा जो कुछ भी कार्य हो, उसके लिये आज्ञा दीजियेगा। संकोच न कीजियेगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

परिजन पुरजन प्रजा बोलाए।
समाधानु करि सुबस बसाए॥
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी।
करि दंडवत कहत कर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने फिर परिवारके लोगोंको, नागरिकोंको तथा अन्य प्रजाको बुलाकर, उनका समाधान करके उनको सुखपूर्वक बसाया। फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजीसहित वे गुरुजीके घर गये और दण्डवत् करके हाथ जोड़कर बोले—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आयसु होइ त रहौं सनेमा।
बोले मुनि तन पुलकि सपेमा॥
समुझब कहब करब तुम्ह जोई।
धरम सारु जग होइहि सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज्ञा हो तो मैं नियमपूर्वक रहूँ! मुनि वसिष्ठजी पुलकितशरीर हो प्रेमके साथ बोले—हे भरत! तुम जो कुछ समझोगे, कहोगे और करोगे, वही जगत् में धर्मका सार होगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि॥ ३२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने यह सुनकर और शिक्षा तथा बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियोंको बुलाया और दिन (अच्छा मुहूर्त) साधकर प्रभुकी चरणपादुकाओंको निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासनपर विराजित कराया॥ ३२३॥

मूल (चौपाई)

राम मातु गुर पद सिरु नाई।
प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥
नंदिगावँ करि परन कुटीरा।
कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामजीकी माता कौसल्याजी और गुरुजीके चरणोंमें सिर नवाकर और प्रभुकी चरणपादुकाओंकी आज्ञा पाकर धर्मकी धुरी धारण करनेमें धीर भरतजीने नन्दिग्राममें पर्णकुटी बनाकर उसीमें निवास किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

जटाजूट सिर मुनिपट धारी।
महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
असन बसन बासन ब्रत नेमा।
करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरपर जटाजूट और शरीरमें मुनियोंके [वल्कल] वस्त्र धारणाकर, पृथ्वीको खोदकर उसके अंदर कुशकी आसनी बिछायी। भोजन, वस्त्र, बरतन, व्रत, नियम—सभी बातोंमें वे ऋषियोंके कठिन धर्मका प्रेमसहित आचरण करने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

भूषन बसन भोग सुख भूरी।
मन तन बचन तजे तिन तूरी॥
अवध राजु सुर राजु सिहाई।
दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गहने-कपड़े और अनेकों प्रकारके भोग-सुखोंको मन, तन और वचनसे तृण तोड़कर (प्रतिज्ञा करके) त्याग दिया। जिस अयोध्याके राज्यको देवराज इन्द्र सिहाते थे और [जहाँके राजा] दशरथजीकी सम्पत्ति सुनकर कुबेर भी लजा जाते थे,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा।
चंचरीक जिमि चंपक बागा॥
रमा बिलासु राम अनुरागी।
तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी अयोध्यापुरीमें भरतजी अनासक्त होकर इस प्रकार निवास कर रहे हैं जैसे चम्पाके बागमें भौंरा। श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मीके विलास [भोगैश्वर्य] को वमनकी भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते भी नहीं)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति॥ ३२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भरतजी तो [स्वयं] श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमके पात्र हैं। वे इस (भोगैश्वर्यत्यागरूप) करनीसे बड़े नहीं हुए (अर्थात् उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है)। [पृथ्वीपरका जल न पीनेकी] टेकसे चातककी और नीर-क्षीर-विवेककी विभूति (शक्ति) से हंसकी भी सराहना होती है॥ ३२४॥

मूल (चौपाई)

देह दिनहुँ दिन दूबरि होई।
घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना।
बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका शरीर दिनोंदिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदिसे उत्पन्न होनेवाला मेद*) घट रहा है। बल और मुखछबि (मुखकी कान्ति अथवा शोभा) वैसी ही बनी हुई है। रामप्रेमका प्रण नित्य नया और पुष्ट होता है, धर्मका दल बढ़ता है और मन उदास नहीं है (अर्थात् प्रसन्न है)॥ १॥

पादटिप्पनी
  • संस्कृत-कोषमें ‘तेज’ का अर्थ मेद मिलता है और यह अर्थ लेनेसे ‘घटइ’ के अर्थमें भी किसी प्रकारकी खींचतान नहीं करनी पड़ती।
मूल (चौपाई)

जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे।
बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम संजम नियम उपासा।
नखत भरत हिय बिमल अकासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरद्-ऋतुके प्रकाश [विकास] से जल घटता है, किन्तु बेंत शोभा पाते हैं और कमल विकसित होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरतजीके हृदयरूपी निर्मल आकाशके नक्षत्र (तारागण) हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी।
स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा।
सहित समाज सोह नित चोखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वास ही [उस आकाशमें ] ध्रुवतारा है, चौदह वर्षकी अवधि [का ध्यान] पूर्णिमाके समान है और स्वामी श्रीरामजीकी सुरति (स्मृति) आकाशगङ्गा-सरीखी प्रकाशित है। रामप्रेम ही अचल (सदा रहनेवाला) और कलङ्करहित चन्द्रमा है। वह अपने समाज (नक्षत्रों) सहित नित्य सुन्दर सुशोभित है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत रहनि समुझनि करतूती।
भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं।
सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीकी रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल गुण और ऐश्वर्यका वर्णन करनेमें सभी सुकवि सकुचाते हैं; क्योंकि वहाँ [औरोंकी तो बात ही क्या] स्वयं शेष, गणेश और सरस्वतीकी भी पहुँच नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥ ३२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नित्यप्रति प्रभुकी पादुकाओंका पूजन करते हैं, हृदयमें प्रेम समाता नहीं है। पादुकाओंसे आज्ञा माँग-माँगकर वे बहुत प्रकार (सब प्रकारके) राज-काज करते हैं॥ ३२५॥

मूल (चौपाई)

पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू।
जीह नामु जप लोचन नीरू॥
लखन राम सिय कानन बसहीं।
भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीर पुलकित है, हृदयमें श्रीसीतारामजी हैं। जीभ राम-नाम जप रही है, नेत्रोंमें प्रेमका जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी तो वनमें बसते हैं, परन्तु भरतजी घरहीमें रहकर तपके द्वारा शरीरको कस रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू।
सब बिधि भरत सराहन जोगू॥
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं।
देखि दसा मुनिराज लजाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओरकी स्थिति समझकर सब लोग कहते हैं कि भरतजी सब प्रकारसे सराहने योग्य हैं। उनके व्रत और नियमोंको सुनकर साधु-संत भी सकुचा जाते हैं और उनकी स्थिति देखकर मुनिराज भी लज्जित होते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

परम पुनीत भरत आचरनू।
मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू।
महामोह निसि दलन दिनेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका परम पवित्र आचरण (चरित्र) मधुर, सुन्दर और आनन्द-मङ्गलोंका करनेवाला है। कलियुगके कठिन पापों और क्लेशोंको हरनेवाला है। महामोहरूपी रात्रिको नष्ट करनेके लिये सूर्यके समान है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पाप पुंज कुंजर मृगराजू।
समन सकल संताप समाजू॥
जन रंजन भंजन भव भारू।
राम सनेह सुधाकर सारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापसमूहरूपी हाथीके लिये सिंह है। सारे सन्तापोंके दलका नाश करनेवाला है। भक्तोंको आनन्द देनेवाला और भवके भार (संसारके दुःख)-का भञ्जन करनेवाला तथा श्रीरामप्रेमरूपी चन्द्रमाका सार (अमृत) है॥ ४॥

मूल (दोहा)

छंद
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीतारामजीके प्रेमरूपी अमृतसे परिपूर्ण भरतजीका जन्म यदि न होता तो मुनियोंके मनको भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतोंका आचरण कौन करता? दुःख, सन्ताप, दरिद्रता, दम्भ आदि दोषोंको अपने सुयशके बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकालमें तुलसीदास-जैसे शठोंको हठपूर्वक कौन श्रीरामजीके सम्मुख करता?

सोरठा

मूल (दोहा)

भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति॥ ३२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—जो कोई भरतजीके चरित्रको नियमसे आदरपूर्वक सुनेंगे, उनको अवश्य ही श्रीसीतारामजीके चरणोंमें प्रेम होगा और सांसारिक विषय-रससे वैराग्य होगा॥ ३२६॥

भागसूचना

मासपारायण, इक्‍कीसवाँ विश्राम

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः।

अनुवाद (समाप्ति)

कलियुगके सम्पूर्ण पापोंको विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानसका
यह दूसरा सोपान समाप्त हुआ।

मूलम् (समाप्तिः)

(अयोध्याकाण्ड समाप्त)

Misc Detail

॥श्रीगणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

भागसूचना

श्रीरामचरितमानस (तृतीय सोपान)