४८ श्रीराम-भरत-संवाद, पादुका-प्रदान, भरतजीकी विदाई

मूल (चौपाई)

भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू।
भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं।
रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

[अगले छठे दिन] सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करनेके लिये अच्छा दिन है, यह मनमें जानकर भी कृपालु श्रीरामजी कहनेमें सकुचा रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुर नृप भरत सभा अवलोकी।
सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची।
कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने गुरु वसिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभाकी ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वीकी ओर ताकने लगे। सभा उनके शीलकी सराहना करके सोचती है कि श्रीरामचन्द्रजीके समान संकोची स्वामी कहीं नहीं हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

भरत सुजान राम रुख देखी।
उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दंडवत कहत कर जोरी।
राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुजान भरतजी श्रीरामचन्द्रजीका रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेषरूपसे धीरज धारणकर दण्डवत् करके हाथ जोड़कर कहने लगे—हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू।
बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई।
सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे लिये सब लोगोंने सन्ताप सहा और आपने भी बहुत प्रकारसे दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधिभर (चौदह वर्षतक) अवधका सेवन करूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥ ३१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दीनदयालु! जिस उपायसे यह दास फिर चरणोंका दर्शन करे—हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभरके लिये मुझे वही शिक्षा दीजिये॥ ३१३॥

मूल (चौपाई)

पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं।
सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू।
प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गोसाईं! आपके प्रेम और सम्बन्धसे अवधपुरवासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनन्द) से युक्त हैं। आपके लिये भवदुःख (जन्म-मरणके दुःख) की ज्वालामें जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है॥ १॥

मूल (चौपाई)

स्वामि सुजानु जानि सब ही की।
रुचि लालसा रहनि जन जी की॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू।
देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभीके हृदयकी और मुझ सेवकके मनकी रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसीका पालन करेंगे और हे देव! दोनों तरफको ओर-अन्ततक निबाहेंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो।
किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू।
दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे सब प्रकारसे ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है। विचार करनेपर तिनकेके बराबर (जरा-सा) भी सोच नहीं रह जाता। मेरी दीनता और स्वामीका स्नेह दोनोंने मिलकर मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी।
तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी।
खीर नीर बिबरन गति हंसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामी! इस बड़े दोषको दूर करके संकोच त्यागकर मुझ सेवकको शिक्षा दीजिये। दूध और जलको अलग-अलग करनेमें हंसिनीकी-सी गतिवाली भरतजीकी विनती सुनकर उसकी सभीने प्रशंसा की॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥ ३१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

दीनबन्धु और परम चतुर श्रीरामजी भाई भरतजीके दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसरके अनुकूल वचन बोले—॥ ३१४॥

मूल (चौपाई)

तात तुम्हारि मोरि परिजन की।
चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू।
हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवारकी, घरकी और वनकी सारी चिन्ता गुरु वसिष्ठजी और महाराज जनकजीको है। हमारे सिरपर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्नमें भी क्लेश नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोर तुम्हार परम पुरुषारथु।
स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं।
लोक बेद भल भूप भलाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसीमें है कि हम दोनों भाई पिताजीकी आज्ञाका पालन करें। राजाकी भलाई (उनके व्रतकी रक्षा) से ही लोक और वेद दोनोंमें भला है॥ २॥

मूल (चौपाई)

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई।
पालहु अवध अवधि भरि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु, पिता, माता और स्वामीकी शिक्षा (आज्ञा)का पालन करनेसे कुमार्गपर भी चलनेसे पैर गड्ढेमें नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)। ऐसा विचारकर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देसु कोसु परिजन परिवारू।
गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी।
पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरुजीकी चरण-रजपर है। तुम तो मुनि वसिष्ठजी, माताओं और मन्त्रियोंकी शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानीका पालन (रक्षा)-भर करते रहना॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥ ३१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—[श्रीरामजीने कहा—] मुखिया मुखके समान होना चाहिये, जो खाने-पीनेको तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अंगोंका पालन-पोषण करता है॥ ३१५॥

मूल (चौपाई)

राजधरम सरबसु एतनोई।
जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती।
बिनु अधार मन तोषु न साँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजधर्मका सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मनके भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्रीरघुनाथजीने भाई भरतको बहुत प्रकारसे समझाया। परन्तु कोई अवलम्बन पाये बिना उनके मनमें न सन्तोष हुआ, न शान्ति॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरत सील गुर सचिव समाजू।
सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर तो भरतजीका शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मन्त्रियों तथा समाजकी उपस्थिति! यह देखकर श्रीरघुनाथजी संकोच तथा स्नेहके विशेष वशीभूत हो गये। (अर्थात् भरतजीके प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किन्तु साथ ही गुरु आदिका संकोच भी होता है।) आखिर [भरतजीके प्रेमवश] प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने कृपाकर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजीने उन्हें आदरपूर्वक सिरपर धारण कर लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

चरनपीठ करुनानिधान के।
जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के।
आखर जुग जनु जीव जतन के॥

अनुवाद (हिन्दी)

करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजीके दोनों खड़ाऊँ प्रजाके प्राणोंकी रक्षाके लिये मानो दो पहरेदार हैं। भरतजीके प्रेमरूपी रत्नके लिये मानो डिब्बा है और जीवके साधनके लिये मानो राम-नामके दो अक्षर हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कुल कपाट कर कुसल करम के।
बिमल नयन सेवा सुधरम के॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें।
अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुकुल [की रक्षा] के लिये दो किवाड़ हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करनेके लिये दो हाथकी भाँति (सहायक) हैं। और सेवारूपी श्रेष्ठ धर्मके सुझानेके लिये निर्मल नेत्र हैं। भरतजी इस अवलम्बके मिल जानेसे परम आनन्दित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्रीसीतारामजीके रहनेसे होता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥ ३१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने प्रणाम करके विदा माँगी, तब श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें हृदयसे लगा लिया। इधर कुटिल इन्द्रने बुरा मौका पाकर लोगोंका उच्चाटन कर दिया॥ ३१६॥

मूल (चौपाई)

सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी।
अवधि आस सम जीवनि जी की॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा।
हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कुचाल भी सबके लिये हितकर हो गयी। अवधिकी आशाके समान ही वह जीवनके लिये संजीवनी हो गयी। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मणजी, सीताजी और श्रीरामचन्द्रजीके वियोगरूपी बुरे रोगसे सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामकृपाँ अवरेब सुधारी।
बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो।
राम प्रेम रसु कहि न परत सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी कृपाने सारी उलझन सुधार दी। देवताओंकी सेना जो लूटने आयी थी, वही गुणदायक (हितकारी) और रक्षक बन गयी। श्रीरामजी भुजाओंमें भरकर भाई भरतसे मिल रहे हैं। श्रीरामजीके प्रेमका वह रस (आनन्द) कहते नहीं बनता॥ २॥

मूल (चौपाई)

तन मन बचन उमग अनुरागा।
धीर धुरंधर धीरजु त्यागा॥
बारिज लोचन मोचत बारी।
देखि दसा सुर सभा दुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तन, मन और वचन तीनोंमें प्रेम उमड़ पड़ा। धीरजकी धुरीको धारण करनेवाले श्रीरघुनाथजीने भी धीरज त्याग दिया। वे कमलसदृश नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओंकी सभा (समाज) दुःखी हो गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनिगन गुर धुर धीर जनक से।
ग्यान अनल मन कसें कनक से॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए।
पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिगण, गुरु वसिष्ठजी और जनकजी-सरीखे धीरधुरन्धर जो अपने मनोंको ज्ञानरूपी अग्निमें सोनेके समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्माजीने निर्लेप ही रचा और जो जगत् रूपी जलमें कमलके पत्तेकी तरह ही (जगत् में रहते हुए भी जगत् से अनासक्त) पैदा हुए,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥ ३१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भी श्रीरामजी और भरतजीके उपमारहित अपार प्रेमको देखकर वैराग्य और विवेकसहित तन, मन, वचनसे उस प्रेममें मग्न हो गये॥ ३१७॥

मूल (चौपाई)

जहाँ जनक गुर गति मति भोरी।
प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू।
सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ जनकजी और गुरु वसिष्ठजीकी बुद्धिकी गति कुण्ठित हो गयी, उस दिव्य प्रेमको प्राकृत (लौकिक) कहनेमें बड़ा दोष है। श्रीरामचन्द्रजी और भरतजीके वियोगका वर्णन करते सुनकर लोग कविको कठोरहृदय समझेंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो सकोच रसु अकथ सुबानी।
समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥
भेंटि भरतु रघुबर समुझाए।
पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह संकोच-रस अकथनीय है। अतएव कविकी सुन्दर वाणी उस समय उसके प्रेमको स्मरण करके सकुचा गयी। भरतजीको भेंटकर श्रीरघुनाथजीने उनको समझाया। फिर हर्षित होकर शत्रुघ्नजीको हृदयसे लगा लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सेवक सचिव भरत रुख पाई।
निज निज काज लगे सब जाई॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा।
लगे चलन के साजन साजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवक और मन्त्री भरतजीका रुख पाकर सब अपने-अपने काममें जा लगे। यह सुनकर दोनों समाजोंमें दारुण दुःख छा गया। वे चलनेकी तैयारियाँ करने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई।
चले सीस धरि राम रजाई॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी।
सब सनमानि बहोरि बहोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके चरणकमलोंकी वन्दना करके तथा श्रीरामजीकी आज्ञाको सिरपर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि॥ ३१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर लक्ष्मणजीको क्रमशः भेंटकर तथा प्रणाम करके और सीताजीके चरणोंकी धूलिको सिरपर धारण करके और समस्त मङ्गलोंके मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेमसहित चले॥ ३१८॥

मूल (चौपाई)

सानुज राम नृपहि सिर नाई।
कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥
देव दया बस बड़ दुखु पायउ।
सहित समाज काननहिं आयउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे भाई लक्ष्मणजीसमेत श्रीरामजीने राजा जनकजीको सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकारसे विनती और बड़ाई की [और कहा—] हे देव! दयावश आपने बहुत दुःख पाया। आप समाजसहित वनमें आये॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुर पगु धारिअ देइ असीसा।
कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने।
बिदा किए हरि हर सम जाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब आशीर्वाद देकर नगरको पधारिये। यह सुन राजा जनकजीने धीरज धरकर गमन किया। फिर श्रीरामचन्द्रजीने मुनि, ब्राह्मण और साधुओंको विष्णु और शिवके समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सासु समीप गए दोउ भाई।
फिरे बंदि पग आसिष पाई॥
कौसिक बामदेव जाबाली।
पुरजन परिजन सचिव सुचाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई सास (सुनयनाजी)के पास गये और उनके चरणोंकी वन्दना करके आशीर्वाद पाकर लौट आये। फिर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि और शुभ आचरणवाले कुटुम्बी, नगरनिवासी और मन्त्री—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जथा जोगु करि बिनय प्रनामा।
बिदा किए सब सानुज रामा॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे।
सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबको छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित श्रीरामचन्द्रजीने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने छोटे, मध्यम (मझले) और बड़े सभी श्रेणीके स्त्री-पुरुषोंका सम्मान करके उनको लौटाया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि॥ ३१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकी माता कैकेयीके चरणोंकी वन्दना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने पवित्र (निश्छल) प्रेमके साथ उनसे मिल-भेंटकर तथा उनके सारे संकोच और सोचको मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया॥ ३१९॥

मूल (चौपाई)

परिजन मातु पितहि मिलि सीता।
फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥
करि प्रनामु भेंटीं सब सासू।
प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणप्रिय पति श्रीरामचन्द्रजीके साथ पवित्र प्रेम करनेवाली सीताजी नैहरके कुटुम्बियोंसे तथा माता-पितासे मिलकर लौट आयीं। फिर प्रणाम करके सब सासुओंसे गले लगकर मिलीं। उनके प्रेमका वर्णन करनेके लिये कविके हृदयमें हुलास (उत्साह) नहीं होता॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि सिख अभिमत आसिष पाई।
रही सीय दुहु प्रीति समाई॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं।
करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीताजी सासुओं तथा माता-पिता दोनों ओरकी प्रीतिमें समायी (बहुत देरतक निमग्न) रहीं! [तब] श्रीरघुनाथजीने सुन्दर पालकियाँ मँगवायीं और सब माताओंको आश्वासन देकर उनपर चढ़ाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

बार बार हिलि मिलि दुहु भाईं।
सम सनेहँ जननीं पहुँचाईं॥
साजि बाजि गज बाहन नाना।
भरत भूप दल कीन्ह पयाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाइयोंने माताओंसे समान प्रेमसे बार-बार मिल-जुलकर उनको पहुँचाया। भरतजी और राजा जनकजीके दलोंने घोड़े, हाथी और अनेकों तरहकी सवारियाँ सजाकर प्रस्थान किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हृदयँ रामु सिय लखन समेता।
चले जाहिं सब लोग अचेता॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें।
चले जाहिं परबस मन मारें॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी एवं लक्ष्मणजीसहित श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं। बैल, घोड़े, हाथी आदि पशु हृदयमें हारे (शिथिल) हुए परवश मनमारे चले जा रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत॥ ३२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु वसिष्ठजी और गुरुपत्नी अरुन्धतीजीके चरणोंकी वन्दना करके सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी हर्ष और विषादके साथ लौटकर पर्णकुटीपर आये॥ ३२०॥

मूल (चौपाई)

बिदा कीन्ह सनमानि निषादू।
चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी।
फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सम्मान करके निषादराजको विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदयमें विरहका बड़ा भारी विषाद था। फिर श्रीरामजीने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगोंको लौटाया। वे सब जोहार-जोहारकर (वन्दना कर-करके) लौटे॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं।
प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी।
प्रिया अनुज सन कहत बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी बड़की छायामें बैठकर प्रियजन एवं परिवारके वियोगसे दुखी हो रहे हैं। भरतजीके स्नेह, स्वभाव और सुन्दर वाणीको बखान-बखानकर वे प्रिय पत्नी सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसे कहने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रीति प्रतीति बचन मन करनी।
श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी॥
तेहि अवसर खग मृग जल मीना।
चित्रकूट चर अचर मलीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने प्रेमके वश होकर भरतजीके वचन, मन, कर्मकी प्रीति तथा विश्वासका अपने श्रीमुखसे वर्णन किया। उस समय पक्षी, पशु और जलकी मछलियाँ, चित्रकूटके सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की।
बरषि सुमन कहि गति घर घर की॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो।
चले मुदित मन डर न खरो सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी दशा देखकर देवताओंने उनपर फूल बरसाकर अपनी घर-घरकी दशा कही (दुखड़ा सुनाया)। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम कर आश्वासन दिया। तब वे प्रसन्न होकर चले, मनमें जरा-सा भी डर न रहा॥ ४॥

Misc Detail