४७ भरतजीका तीर्थ-जल-स्थापन तथा चित्रकूटभ्रमण

दोहा

मूल (दोहा)

अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥ ३०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अत्रिजीने भरतजीसे कहा—इस पर्वतके समीप ही एक सुन्दर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत-जैसे तीर्थजलको उसीमें स्थापित कर दीजिये॥ ३०९॥

मूल (चौपाई)

भरत अत्रि अनुसासन पाई।
जल भाजन सब दिए चलाई॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू।
सहित गए जहँ कूप अगाधू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने अत्रिमुनिकी आज्ञा पाकर जलके सब पात्र रवाना कर दिये और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-सन्तोंसहित आप वहाँ गये जहाँ वह अथाह कुआँ था॥ १॥

मूल (चौपाई)

पावन पाथ पुन्यथल राखा।
प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू।
लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उस पवित्र जलको उस पुण्यस्थलमें रख दिया। तब अत्रि ऋषिने प्रेमसे आनन्दित होकर ऐसा कहा—हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रमसे यह लोप हो गया था इसलिये किसीको इसका पता नहीं था॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब सेवकन्ह सरस थलु देखा।
कीन्ह सुजल हित कूप बिसेषा॥
बिधिबस भयउ बिस्व उपकारू।
सुगम अगम अति धरम बिचारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब [भरतजीके] सेवकोंने उस जलयुक्त स्थानको देखा और उस सुन्दर [तीर्थोंके] जलके लिये एक खास कुआँ बना लिया। दैवयोगसे विश्वभरका उपकार हो गया। धर्मका विचार जो अत्यन्त अगम था, वह [इस कूपके प्रभावसे] सुगम हो गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरतकूप अब कहिहहिं लोगा।
अति पावन तीरथ जल जोगा॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी।
होइहहिं बिमल करम मन बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थोंके जलके संयोगसे तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियमसे स्नान करनेपर प्राणी मन, वचन और कर्मसे निर्मल हो जायँगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥ ३१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कूपकी महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गये जहाँ श्रीरघुनाथजी थे। श्रीरघुनाथजीको अत्रिजीने उस तीर्थका पुण्य प्रभाव सुनाया॥ ३१०॥

मूल (चौपाई)

कहत धरम इतिहास सप्रीती।
भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई।
राम अत्रि गुर आयसु पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेमपूर्वक धर्मके इतिहास कहते वह रात सुखसे बीत गयी और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्रीरामजी, अत्रिजी और गुरु वसिष्ठजीकी आज्ञा पाकर,॥ १॥

मूल (चौपाई)

सहित समाज साज सब सादें।
चले राम बन अटन पयादें॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं।
भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

समाजसहित सब सादे साजसे श्रीरामजीके वनमें भ्रमण (प्रदक्षिणा) करनेके लिये पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूतेके चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन-ही-मन सकुचाकर कोमल हो गयी॥ २॥

मूल (चौपाई)

कुस कंटक काँकरीं कुराईं।
कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे।
बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारें आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओंको छिपाकर पृथ्वीने सुन्दर और कोमल मार्ग कर दिये। सुखोंको साथ लिये (सुखदायक) शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा चलने लगी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं।
बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी।
सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलतासे, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुन्दर वाणी बोलकर—सभी भरतजीको श्रीरामचन्द्रजीके प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥ ३११॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब एक साधारण मनुष्यको भी [आलस्यसे] जँभाई लेते समय ‘राम’ कह देनेसे ही सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, तब श्रीरामचन्द्रजीके प्राणप्यारे भरतजीके लिये यह कोई बड़ी (आश्चर्यकी) बात नहीं है॥ ३११॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं।
नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा।
खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भरतजी वनमें फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेमको देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जलके स्थान (नदी, बावली, कुण्ड आदि), पृथ्वीके पृथक्-पृथक् भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे—॥ १॥

मूल (चौपाई)

चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी।
बूझत भरतु दिब्य सब देखी॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ।
हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी विशेषरूपसे सुन्दर, विचित्र, पवित्र और दिव्य देखकर भरतजी पूछते हैं और उनका प्रश्न सुनकर ऋषिराज अत्रिजी प्रसन्न मनसे सबके कारण, नाम, गुण और पुण्य-प्रभावको कहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा।
कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई।
सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी कहीं स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मनोहर स्थानोंके दर्शन करते हैं और कहीं मुनि अत्रिजीकी आज्ञा पाकर बैठकर, सीताजीसहित श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंका स्मरण करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा।
देहिं असीस मुदित बनदेवा॥
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई।
प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके स्वभाव, प्रेम और सुन्दर सेवाभावको देखकर वनदेवता आनन्दित होकर आशीर्वाद देते हैं। यों घूम-फिरकर ढाई पहर दिन बीतनेपर लौट पड़ते हैं और आकर प्रभु श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन करते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥ ३१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने पाँच दिनमें सब तीर्थस्थानोंके दर्शन कर लिये। भगवान् विष्णु और महादेवजीका सुन्दर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, सन्ध्या हो गयी॥ ३१२॥

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