४६ श्रीराम-भरत-संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥ २९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ सुनकर सभासमेत मुनि और जनकजी सकुचा गये (स्तम्भित रह गये)। किसीसे उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजीका मुँह ताक रहे हैं॥ २९६॥

मूल (चौपाई)

सभा सकुच बस भरत निहारी।
रामबंधु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा।
बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने सभाको संकोचके वश देखा। रामबन्धु (भरतजी) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने [उमड़ते हुए] प्रेमको सँभाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचलको अगस्त्यजीने रोका था॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोक कनकलोचन मति छोनी।
हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला।
अनायास उधरी तेहि काला॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकरूपी हिरण्याक्षने [सारी सभाकी] बुद्धिरूपी पृथ्वीको हर लिया जो विमल गुणसमूहरूपी जगत् की योनि (उत्पन्न करनेवाली) थी। भरतजीके विवेकरूपी विशाल वराह (वराहरूपधारी भगवान्) ने [शोकरूपी हिरण्याक्षको नष्ट कर] बिना ही परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे।
रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा।
कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्रीरामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वसिष्ठजी और साधु-संत सबसे विनती की और कहा—आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्तावको क्षमा कीजियेगा। मैं कोमल (छोटे) मुखसे कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह रहा हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हियँ सुमिरी सारदा सुहाई।
मानस तें मुख पंकज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली।
भरत भारती मंजु मराली॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने हृदयमें सुहावनी सरस्वतीजीका स्मरण किया। वे मानससे (उनके मनरूपी मानसरोवरसे) उनके मुखारविन्दपर आ विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीतिसे युक्त भरतजीकी वाणी सुन्दर हंसिनी [के समान गुण-दोषका विवेचन करनेवाली] है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥ २९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवेकके नेत्रोंसे सारे समाजको प्रेमसे शिथिल देख, सबको प्रणामकर, श्रीसीताजी और श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके भरतजी बोले—॥ २९७॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी।
पूज्य परम हित अंतरजामी॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू।
प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरलहृदय, श्रेष्ठ मालिक, शीलके भण्डार, शरणागतकी रक्षा करनेवाले, सर्वज्ञ, सुजान,॥ १॥

मूल (चौपाई)

समरथ सरनागत हितकारी।
गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं।
मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

समर्थ, शरणागतका हित करनेवाले, गुणोंका आदर करनेवाले और अवगुणों तथा पापोंको हरनेवाले हैं। हे गोसाईं! आप-सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामीके साथ द्रोह करनेमें मेरे समान मैं ही हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पितु बचन मोह बस पेली।
आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू।
अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं मोहवश प्रभु (आप) के और पिताजीके वचनोंका उल्लङ्घनकर और समाज बटोरकर यहाँ आया हूँ। जगत् में भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमृत और अमरपद (देवताओंका पद), विष और मृत्यु आदि—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम रजाइ मेट मन माहीं।
देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई।
प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीको भी कहीं ऐसा नहीं देखा-सुना जो मनमें भी श्रीरामचन्द्रजी (आप) की आज्ञाको मेट दे। मैंने सब प्रकारसे वही ढिठाई की, परन्तु प्रभुने उस ढिठाईको स्नेह और सेवा मान लिया!॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर॥ २९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाईसे मेरा भला किया, जिससे मेरा दूषण (दोष) भी भूषण (गुण) के समान हो गये और चारों ओर मेरा सुन्दर यश छा गया॥ २९८॥

मूल (चौपाई)

राउरि रीति सुबानि बड़ाई।
जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी।
नीच निसील निरीस निसंकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपकी रीति और सुन्दर स्वभावकी बड़ाई जगत् में प्रसिद्ध है, और वेद-शास्त्रोंने गायी है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) और निःशंक (निडर) हैं॥१॥

मूल (चौपाई)

तेउ सुनि सरन सामुहें आए।
सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने।
सुनि गुन साधु समाज बखाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें भी आपने शरणमें सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करनेपर ही अपना लिया। उन (शरणागतों) के दोषोंको देखकर भी आप कभी हृदयमें नहीं लाये और उनके गुणोंको सुनकर साधुओंके समाजमें उनका बखान किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

को साहिब सेवकहि नेवाजी।
आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें।
सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा सेवकपर कृपा करनेवाला स्वामी कौन है जो आप ही सेवकका सारा साज-सामान सज दे (उसकी सारी आवश्यकताओंको पूर्ण कर दे) और स्वप्नमें भी अपनी कोई करनी न समझकर (अर्थात् मैंने सेवकके लिये कुछ किया है ऐसा न जानकर) उलटा सेवकको संकोच होगा, इसका सोच अपने हृदयमें रखे!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी।
भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना।
गुन गति नट पाठक आधीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भुजा उठाकर और प्रण रोपकर (बड़े जोरके साथ) कहता हूँ, ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। [बंदर आदि] पशु नाचते और तोते [सीखे हुए] पाठमें प्रवीण हो जाते हैं। परन्तु तोतेका [पाठप्रवीणतारूप] गुण और पशुके नाचनेकी गति [क्रमशः] पढ़ानेवाले और नचानेवालेके अधीन है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥ २९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने सेवकोंकी (बिगड़ी) बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओंका शिरोमणि बना दिया। कृपालु (आप) के सिवा अपनी विरदावलीका और कौन जबर्दस्ती (हठपूर्वक) पालन करेगा?॥ २९९॥

मूल (चौपाई)

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ।
आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा।
सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं शोकसे या स्नेहसे या बालकस्वभावसे आज्ञाको बायें लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकारसे मेरा भला ही माना (मेरे इस अनुचित कार्यको अच्छा ही समझा)॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखेउँ पाय सुमंगल मूला।
जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला॥
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू।
बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सुन्दर मङ्गलोंके मूल आपके चरणोंका दर्शन किया, और यह जान लिया कि स्वामी मुझपर स्वभावसे ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाजमें अपने भाग्यको देखा कि इतनी बड़ी चूक होनेपर भी स्वामीका मुझपर कितना अनुराग है!॥ २॥

मूल (चौपाई)

कृपा अनुग्रहु अंगु अघाई।
कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं।
अपनें सील सुभायँ भलाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपानिधानने मुझपर साङ्गोपाङ्ग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किये हैं (अर्थात् मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था उतनी अधिक सर्वाङ्गपूर्ण कृपा आपने मुझपर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाईसे मेरा दुलार रखा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई।
स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी।
छमिहि देउ अति आरति जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! मैंने स्वामी और समाजके संकोचको छोड़कर अविनय या विनयभरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप क्षमा करेंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥ ३००॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहृद् (बिना ही हेतुके हित करनेवाले), बुद्धिमान् और श्रेष्ठ मालिकसे बहुत कहना बड़ा अपराध है। इसलिये हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिये, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥ ३००॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पद पदुम पराग दोहाई।
सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥
सो करि कहउँ हिए अपने की।
रुचि जागत सोवत सपने की॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु (आप) के चरणकमलोंकी रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुखकी सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदयकी जागते, सोते और स्वप्नमें भी बनी रहनेवाली रुचि (इच्छा) कहता हूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई।
स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्या सम न सुसाहिब सेवा।
सो प्रसादु जन पावै देवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रुचि है—कपट, स्वार्थ और [अर्थ-धर्म-काम-मोक्षरूप] चारों फलोंको छोड़कर स्वाभाविक प्रेमसे स्वामीकी सेवा करना। और आज्ञापालनके समान श्रेष्ठ स्वामीकी और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञारूप प्रसाद सेवकको मिल जाय॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस कहि प्रेम बिबस भए भारी।
पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई।
समउ सनेहु न सो कहि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी ऐसा कहकर प्रेमके बहुत ही विवश हो गये। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया। अकुलाकर (व्याकुल होकर) उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमल पकड़ लिये। उस समयको और स्नेहको कहा नहीं जा सकता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कृपासिंधु सनमानि सुबानी।
बैठाए समीप गहि पानी॥
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ।
सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपासिन्धु श्रीरामचन्द्रजीने सुन्दर वाणीसे भरतजीका सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास बिठा लिया। भरतजीकी विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा और श्रीरघुनाथजी स्नेहसे शिथिल हो गये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी, साधुओंका समाज, मुनि वसिष्ठजी और मिथिलापति जनकजी स्नेहसे शिथिल हो गये। सब मन-ही-मन भरतजीके भाईपन और उनकी भक्तिकी अतिशय महिमाको सराहने लगे। देवता मलिन मनसे भरतजीकी प्रशंसा करते हुए उनपर फूल बरसाने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं—सब लोग भरतजीका भाषण सुनकर व्याकुल हो गये और ऐसे सकुचा गये जैसे रात्रिके आगमनसे कमल!

सोरठा

मूल (दोहा)

देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥ ३०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों समाजोंके सभी नर-नारियोंको दीन और दुखी देखकर महामलिन-मन इन्द्र मरे हुओंको मारकर अपना मङ्गल चाहता है॥ ३०१॥

मूल (चौपाई)

कपट कुचालि सीवँ सुरराजू।
पर अकाज प्रिय आपन काजू॥
काक समान पाकरिपु रीती।
छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्र कपट और कुचालकी सीमा है। उसे परायी हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्रकी रीति कौएके समान है। वह छली और मलिन-मन है, उसका कहीं किसीपर विश्वास नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला।
सो उचाटु सब कें सिर मेला॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे।
राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले तो कुमत (बुरा विचार) करके कपटको बटोरा (अनेक प्रकारके कपटका साज सजा)। फिर वह (कपटजनित) उचाट सबके सिरपर डाल दिया। फिर देवमायासे सब लोगोंको विशेषरूपसे मोहित कर दिया। किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमसे उनका अत्यन्त बिछोह नहीं हुआ (अर्थात् उनका श्रीरामजीके प्रति प्रेम कुछ तो बना ही रहा)॥ २॥

मूल (चौपाई)

भय उचाट बस मन थिर नाहीं।
छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी।
सरित सिंधु संगम जनु बारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भय और उचाटके वश किसीका मन स्थिर नहीं है। क्षणमें उनकी वनमें रहनेकी इच्छा होती है और क्षणमें उन्हें घर अच्छे लगने लगते हैं। मनकी इस प्रकारकी दुविधामयी स्थितिसे प्रजा दुखी हो रही है। मानो नदी और समुद्रके सङ्गमका जल क्षुब्ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समुद्रके सङ्गमका जल स्थिर नहीं रहता, कभी इधर आता और कभी उधर जाता है, उसी प्रकारकी दशा प्रजाके मनकी हो गयी)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं।
एक एक सन मरमु न कहहीं॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू।
सरिस स्वान मघवान जुबानू॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्त दोतरफा हो जानेसे वे कहीं सन्तोष नहीं पाते और एक-दूसरेसे अपना मर्म भी नहीं कहते। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी यह दशा देखकर हृदयमें हँसकर कहने लगे—कुत्ता, इन्द्र और नवयुवक (कामी पुरुष) एक-सरीखे (एक ही स्वभावके) हैं। [पाणिनीय व्याकरणके अनुसार श्वन्, युवन् और मघवन् शब्दोंके रूप भी एक-सरीखे होते हैं]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥ ३०२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी, जनकजी, मुनिजन, मन्त्री और ज्ञानी साधु-संतोंको छोड़कर अन्य सभीपर जिस मनुष्यको जिस योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थितिका) पाया, उसपर वैसे ही देवमाया लग गयी॥ ३०२॥

मूल (चौपाई)

कृपासिंधु लखि लोग दुखारे।
निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री।
भरत भगति सब कै मति जंत्री॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपासिन्धु श्रीरामचन्द्रजीने लोगोंको अपने स्नेह और देवराज इन्द्रके भारी छलसे दुखी देखा। सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण और मन्त्री आदि सभीकी बुद्धिको भरतजीकी भक्तिने कील दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामहि चितवत चित्र लिखे से।
सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई।
सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग चित्रलिखे-से श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाये हुए-से वचन बोलते हैं। भरतजीकी प्रीति, नम्रता, विनय और बड़ाई सुननेमें सुख देनेवाली है, पर उसके वर्णन करनेमें कठिनता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जासु बिलोकि भगति लवलेसू।
प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी।
भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी भक्तिका लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेममें मग्न हो गये, उन भरतजीकी महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुन्दर भावसे [कविके] हृदयमें सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आपु छोटि महिमा बड़ि जानी।
कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई।
मति गति बाल बचन की नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु वह बुद्धि अपनेको छोटी और भरतजीकी महिमाको बड़ी जानकर कविपरम्पराकी मर्यादाको मानकर सकुचा गयी (उसका वर्णन करनेका साहस नहीं कर सकी)। उसकी गुणोंमें रुचि तो बहुत है; पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धिकी गति बालकके वचनोंकी तरह हो गयी (वह कुण्ठित हो गयी)!॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥ ३०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका निर्मल यश निर्मल चन्द्रमा है और कविकी सुबुद्धि चकोरी है, जो भक्तोंके हृदयरूपी निर्मल आकाशमें उस चन्द्रमाको उदित देखकर उसकी ओर टकटकी लगाये देखती ही रह गयी है [तब उसका वर्णन कौन करे?]॥ ३०३॥

मूल (चौपाई)

भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ।
लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को।
सीय राम पद होइ न रत को॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके स्वभावका वर्णन वेदोंके लिये भी सुगम नहीं है। [अतः] मेरी तुच्छ बुद्धिकी चञ्चलताको कविलोग क्षमा करें! भरतजीके सद्भावको कहते-सुनते कौन मनुष्य श्रीसीतारामजीके चरणोंमें अनुरक्त न हो जायगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को।
जेहि न सुलभु तेहि सरिस बाम को॥
देखि दयाल दसा सबही की।
राम सुजान जानि जन जी की॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका स्मरण करनेसे जिसको श्रीरामजीका प्रेम सुलभ न हुआ, उसके समान वाम (अभागा) और कौन होगा? दयालु और सुजान श्रीरामजीने सभीकी दशा देखकर और भक्त (भरतजी) के हृदयकी स्थिति जानकर,॥ २॥

मूल (चौपाई)

धरम धुरीन धीर नय नागर।
सत्य सनेह सील सुख सागर॥
देसु कालु लखि समउ समाजू।
नीति प्रीति पालक रघुराजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मधुरन्धर, धीर, नीतिमें चतुर; सत्य, स्नेह, शील और सुखके समुद्र; नीति और प्रीतिके पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजी देश, काल, अवसर और समाजको देखकर,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बोले बचन बानि सरबसु से।
हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना।
लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

[तदनुसार] ऐसे वचन बोले जो मानो वाणीके सर्वस्व ही थे, परिणाममें हितकारी थे और सुननेमें चन्द्रमाके रस (अमृत)-सरीखे थे। [उन्होंने कहा—] हे तात भरत! तुम धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले हो, लोक और वेद दोनोंके जाननेवाले और प्रेममें प्रवीण हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥ ३०४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! कर्मसे, वचनसे और मनसे निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनोंके समाजमें और ऐसे कुसमयमें छोटे भाईके गुण किस तरह कहे जा सकते हैं?॥ ३०४॥

मूल (चौपाई)

जानहु तात तरनि कुल रीती।
सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की।
उदासीन हित अनहित मन की॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम सूर्यकुलकी रीतिको, सत्यप्रतिज्ञ पिताजीकी कीर्ति और प्रीतिको, समय, समाज और गुरुजनोंकी लज्जा (मर्यादा) को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मनकी बातको जानते हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि बिदित सबही कर करमू।
आपन मोर परम हित धरमू।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा।
तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमको सबके कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्मका पता है। यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकारसे भरोसा है, तथापि मैं समयके अनुसार कुछ कहता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

तात तात बिनु बात हमारी।
केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू।
हमहि सहित सबु होत खुआरू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! पिताजीके बिना (उनकी अनुपस्थितिमें) हमारी बात केवल गुरुवंशकी कृपाने ही सम्हाल रखी है; नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद हो जाते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू।
जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा।
मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि बिना समयके (संध्यासे पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाय तो कहो जगत् में किसको क्लेश न होगा? हे तात! उसी प्रकारका उत्पात विधाताने यह (पिताकी असामयिक मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराजने तथा मिथिलेश्वरने सबको बचा लिया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥ ३०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

राज्यका सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर—इन सभीका पालन (रक्षण) गुरुजीका प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥ ३०५॥

मूल (चौपाई)

सहित समाज तुम्हार हमारा।
घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू।
सकल धरम धरनीधर सेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीका प्रसाद (अनुग्रह) ही घरमें और वनमें समाजसहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामीकी आज्ञा [का पालन] समस्त धर्मरूपी पृथ्वीको धारण करनेमें शेषजीके समान है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो तुम्ह करहु करावहु मोहू।
तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी।
कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुलके रक्षक बनो। साधकके लिये यह एक ही (आज्ञापालनरूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धियोंकी देनेवाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो बिचारि सहि संकटु भारी।
करहु प्रजा परिवारु सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई।
तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसे विचारकर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवारको सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभीने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष)-तक बड़ी कठिनाई है (सबसे अधिक दुःख है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा।
कुसमयँ तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए।
ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमको कोमल जानकर भी मैं कठोर (वियोगकी बात) कह रहा हूँ। हे तात! बुरे समयमें मेरे लिये यह कोई अनुचित बात नहीं है। कुठौर (कुअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं। वज्रके आघात भी हाथसे ही रोके जाते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥ ३०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवक हाथ, पैर और नेत्रोंके समान और स्वामी मुखके समान होना चाहिये। तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक-स्वामीकी ऐसी प्रीतिकी रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं॥ ३०६॥

मूल (चौपाई)

सभा सकल सुनि रघुबर बानी।
प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी।
देखि दसा चुप सारद साधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी वाणी सुनकर, जो मानो प्रेमरूपी समुद्रके [मन्थनसे निकले हुए] अमृतमें सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया; सबको प्रेमसमाधि लग गयी। यह दशा देखकर सरस्वतीने चुप साध ली॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरतहि भयउ परम संतोषू।
सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू।
भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीको परम सन्तोष हुआ। स्वामीके सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषोंने मुँह मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गये)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मनका विषाद मिट गया। मानो गूँगेपर सरस्वतीकी कृपा हो गयी हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी।
बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को।
लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलोंको जोड़कर वे बोले—हे नाथ! मुझे आपके साथ जानेका सुख प्राप्त हो गया और मैंने जगत् में जन्म लेनेका लाभ भी पा लिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब कृपाल जस आयसु होई।
करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई।
अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो, उसीको मैं सिरपर धरकर आदरपूर्वक करूँ! परन्तु देव! आप मुझे वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें जिसकी सेवा कर मैं अवधिका पार पा जाऊँ (अवधिको बिता दूँ)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥ ३०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! स्वामी (आप) के अभिषेकके लिये गुरुजीकी आज्ञा पाकर मैं सब तीर्थोंका जल लेता आया हूँ; उसके लिये क्या आज्ञा होती है?॥ ३०७॥

मूल (चौपाई)

एकु मनोरथु बड़ मन माहीं।
सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई।
बोले बानि सनेह सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मनमें एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोचके कारण कहा नहीं जाता। [श्रीरामचन्द्रजीने कहा—] हे भाई! कहो। तब प्रभुकी आज्ञा पाकर भरतजी स्नेहपूर्ण सुन्दर वाणी बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन।
खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी।
आयसु होइ त आवौं देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज्ञा हो तो चित्रकूटके पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतोंके समूह तथा विशेषकर प्रभु (आप) के चरणचिह्नोंसे अंकित भूमिको देख आऊँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू।
तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता।
पावन परम सुहावन भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

[श्रीरघुनाथजी बोले—] अवश्य ही अत्रि ऋषिकी आज्ञाको सिरपर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वनमें विचरो। हे भाई! अत्रि मुनिके प्रसादसे वन मङ्गलोंका देनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त सुन्दर है—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं।
राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा।
मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ऋषियोंके प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं [लाया हुआ] तीर्थोंका जल स्थापित कर देना। प्रभुके वचन सुनकर भरतजीने सुख पाया और आनन्दित होकर मुनि अत्रिजीके चरणकमलोंमें सिर नवाया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥ ३०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त सुन्दर मङ्गलोंका मूल भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीका संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुलकी सराहना करके कल्पवृक्षके फूल बरसाने लगे॥ ३०८॥

मूल (चौपाई)

धन्य भरत जय राम गोसाईं।
कहत देव हरषत बरिआईं॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू।
भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्रीरामजीकी जय हो!’ ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजीके वचन सुनकर मुनि वसिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और सभामें सब किसीको बड़ा उत्साह (आनन्द) हुआ॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरत राम गुन ग्राम सनेहू।
पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन।
नेमु पेमु अति पावन पावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूहकी तथा प्रेमकी विदेहराज जनकजी पुलकित होकर प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनोंका सुन्दर स्वभाव है। इनके नियम और प्रेम पवित्रको भी अत्यन्त पवित्र करनेवाले हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मति अनुसार सराहन लागे।
सचिव सभासद सब अनुरागे॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू।
दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्री और सभासद सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार सराहना करने लगे। श्रीरामचन्द्रजी और भरतजीका संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजोंके हृदयोंमें हर्ष और विषाद (भरतजीके सेवाधर्मको देखकर हर्ष और रामवियोगकी सम्भावनासे विषाद) दोनों हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम मातु दुखु सुखु सम जानी।
कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई।
एक सराहत भरत भलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी माता कौसल्याजीने दुःख और सुखको समान जानकर श्रीरामजीके गुण कहकर दूसरी रानियोंको धैर्य बँधाया। कोई श्रीरामजीकी बड़ाई (बड़प्पन) की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजीके अच्छेपनकी सराहना करते हैं॥ ४॥

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