४५ जनक-वसिष्ठादि-संवाद, इन्द्रकी चिन्ता, सरस्वतीका इन्द्रको समझाना

मूल (चौपाई)

आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ।
भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए।
रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप आश्रमको पधारिये। इतना कह मुनिराज स्नेहसे शिथिल हो गये। तब श्रीरामजी प्रणाम करके चले गये और ऋषि वसिष्ठजी धीरज धरकर जनकजीके पास आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम बचन गुरु नृपहि सुनाए।
सील सनेह सुभायँ सुहाए॥
महाराज अब कीजिअ सोई।
सब कर धरम सहित हित होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीने श्रीरामचन्द्रजीके शील और स्नेहसे युक्त स्वभावसे ही सुन्दर वचन राजा जनकजीको सुनाये [और कहा—] हे महाराज! अब वही कीजिये जिसमें सबका धर्मसहित हित हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥ २९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! तुम ज्ञानके भण्डार, सुजान, पवित्र और धर्ममें धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधाको दूर करनेमें और कौन समर्थ है?॥ २९१॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे।
लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं।
आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि वसिष्ठजीके वचन सुनकर जनकजी प्रेममें मग्न हो गये। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्यको भी वैराग्य हो गया (अर्थात् उनके ज्ञान-वैराग्य छूट-से गये)। वे प्रेमसे शिथिल हो गये और मनमें विचार करने लगे कि हम यहाँ आये, यह अच्छा नहीं किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामहि रायँ कहेउ बन जाना।
कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥
हम अब बन तें बनहि पठाई।
प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथजीने श्रीरामजीको वन जानेके लिये कहा और स्वयं अपने प्रियके प्रेमको प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रियवियोगमें प्राण त्याग दिये)। परन्तु हम अब इन्हें वनसे [और गहन] वनको भेजकर अपने विवेककी बड़ाईमें आनन्दित होते हुए लौटेंगे [कि हमें जरा भी मोह नहीं है; हम श्रीरामजीको वनमें छोड़कर चले आये, दशरथजीकी तरह मरे नहीं!]॥ २॥

मूल (चौपाई)

तापस मुनि महिसुर सुनि देखी।
भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा।
चले भरत पहिं सहित समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गये। समयका विचार करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाजसहित भरतजीके पास चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत आइ आगें भइ लीन्हे।
अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ।
तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिये। तिरहुतराज जनकजी कहने लगे—हे तात भरत! तुमको श्रीरामजीका स्वभाव मालूम ही है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु॥ २९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखनेवाले हैं। इसीलिये वे संकोचवश संकट सह रहे हैं; अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाय॥ २९२॥

मूल (चौपाई)

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी।
बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू।
कुलगुरु सम हित माय न बापू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी यह सुनकर पुलकितशरीर हो नेत्रोंमें जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले—हे प्रभो! आप हमारे पिताके समान प्रिय और पूज्य हैं। और कुलगुरु श्रीवसिष्ठजीके समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

कौसिकादि मुनि सचिव समाजू।
ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी।
जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मन्त्रियोंका समाज है। और आजके दिन ज्ञानके समुद्र आप भी उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलनेवाला समझकर शिक्षा दीजिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

एहिं समाज थल बूझब राउर।
मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता।
छमब तात लखि बाम बिधाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समाज और [पुण्य] स्थलमें आप [जैसे ज्ञानी और पूज्य] का पूछना! इसपर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा; और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ। हे तात! विधाताको प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजियेगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।
सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू।
बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद, शास्त्र और पुराणोंमें प्रसिद्ध है और जगत् जानता है कि सेवाधर्म बड़ा कठिन है। स्वामिधर्ममें (स्वामीके प्रति कर्तव्यपालनमें) और स्वार्थमें विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते)। वैर अंधा होता है और प्रेमको ज्ञान नहीं रहता [मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनोंमें ही भूल होनेका भय है]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि॥ २९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्रीरामचन्द्रजीके रुख (रुचि), धर्म और [सत्यके] व्रतको रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिये हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिये॥ २९३॥

मूल (चौपाई)

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ।
सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे।
अरथु अमित अति आखर थोरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाजसहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजीके वचन सुगम और अगम, सुन्दर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है॥ १॥

मूल (चौपाई)

ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी।
गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतु मुनि सहित समाजू।
गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मुख [का प्रतिबिम्ब] दर्पणमें दीखता है और दर्पण अपने हाथमें है, फिर भी वह (मुखका प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजीकी यह अद्भुत वाणी भी पकड़में नहीं आती (शब्दोंसे उसका आशय समझमें नहीं आता)। [किसीसे कुछ उत्तर देते नहीं बना] तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वसिष्ठजी समाजके साथ वहाँ गये जहाँ देवतारूपी कुमुदोंके खिलानेवाले (सुख देनेवाले) चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा।
मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी।
निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार सुनकर सब लोग सोचसे व्याकुल हो गये; जैसे नये (पहली वर्षाके) जलके संयोगसे मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओंने पहले कुलगुरु वसिष्ठजीकी [प्रेमविह्वल] दशा देखी, फिर विदेहजीके विशेष स्नेहको देखा;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम भगतिमय भरतु निहारे।
सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम पेममय पेखा।
भए अलेख सोच बस लेखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तब श्रीरामभक्तिसे ओतप्रोत भरतजीको देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदयमें हार मान गये (निराश हो गये)। उन्होंने सब किसीको श्रीरामप्रेममें सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोचके वश हो गये कि जिसका कोई हिसाब नहीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥ २९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्र सोचमें भरकर कहने लगे कि श्रीरामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोचके वशमें हैं। इसलिये सब लोग मिलकर कुछ प्रपञ्च (माया) रचो; नहीं तो काम बिगड़ा [ही समझो]॥ २९४॥

मूल (चौपाई)

सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही।
देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया।
पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंने सरस्वतीका स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति)की और कहा—हे देवि! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिये। अपनी माया रचकर भरतजीकी बुद्धिको फेर दीजिये। और छलकी छाया कर देवताओंके कुलका पालन (रक्षा) कीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी।
बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू।
लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी विनती सुनकर और देवताओंको स्वार्थके वश होनेसे मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वतीजी बोलीं—मुझसे कह रहे हो कि भरतजीकी मति पलट दो! हजार नेत्रोंसे भी तुमको सुमेरु नहीं सूझ पड़ता!॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिधि हरि हर माया बड़ि भारी।
सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी।
चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा, विष्णु और महेशकी माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजीकी बुद्धिकी ओर ताक नहीं सकती। उस बुद्धिको, तुम मुझसे कह रहे हो कि भोली कर दो (भुलावेमें डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचण्ड किरणवाले सूर्यको चुरा सकती है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत हृदयँ सिय राम निवासू।
तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका।
बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके हृदयमें श्रीसीतारामजीका निवास है। जहाँ सूर्यका प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोकको चली गयीं। देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे रात्रिमें चकवा व्याकुल होता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥ २९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मलिन मनवाले स्वार्थी देवताओंने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा। प्रबल मायाजाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥ २९५॥

मूल (चौपाई)

करि कुचालि सोचत सुरराजू।
भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा।
सनमाने सब रबिकुल दीपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि कामका बनना-बिगड़ना सब भरतजीके हाथ है। इधर राजा जनकजी [मुनि वसिष्ठ आदिके साथ] श्रीरघुनाथजीके पास गये। सूर्यकुलके दीपक श्रीरामचन्द्रजीने सबका सम्मान किया,॥ १॥

मूल (चौपाई)

समय समाज धरम अबिरोधा।
बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत संबादु सुनाई।
भरत कहाउति कही सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रघुकुलके पुरोहित वसिष्ठजी समय, समाज और धर्मके अविरोधी (अर्थात् अनुकूल) वचन बोले। उन्होंने पहले जनकजी और भरतजीका संवाद सुनाया। फिर भरतजीकी कही हुई सुन्दर बातें कह सुनायीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

तात राम जस आयसु देहू।
सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी।
बोले सत्य सरल मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[फिर बोले—] हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसी ही सब करें! यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्रीरघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू।
मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई।
राउरि सपथ सही सिर सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके और मिथिलेश्वर जनकजीके विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकारसे भद्दा (अनुचित) है। आपकी और महाराजकी जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी॥ ४॥

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