४३ कौसल्या-सुनयना-संवाद, श्रीसीताजीका शील

दोहा

मूल (दोहा)

एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥ २८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग कह रहे हैं कि हम इस सुखके योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? दोनों समाजोंका श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सहज स्वभावसे ही प्रेम है॥ २८०॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं।
बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं।
दासीं देखि सुअवसरु आईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही [सुननेवालोंके] मनोंको हर लेते हैं। उसी समय सीताजीकी माता श्रीसुनयनाजीकी भेजी हुई दासियाँ [कौसल्याजी आदिके मिलनेका] सुन्दर अवसर देखकर आयीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सावकास सुनि सब सिय सासू।
आयउ जनकराज रनिवासू॥
कौसल्याँ सादर सनमानी।
आसन दिए समय सम आनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनसे यह सुनकर कि सीताकी सब सासुएँ इस समय फुरसतमें हैं, जनकराजका रनिवास उनसे मिलने आया। कौसल्याजीने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा।
द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन।
महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओर सबके शील और प्रेमको देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं। शरीर पुलकित और शिथिल हैं और नेत्रोंमें [शोक और प्रेमके] आँसू हैं। सब अपने [पैरोंके] नखोंसे जमीन कुरेदने और सोचने लगीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब सिय राम प्रीति कि सि मूरति।
जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी।
जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी श्रीसीतारामजीके प्रेमकी मूर्ति-सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत-से वेष (रूप) धारण करके विसूर रही हो (दुःख कर रही हो)। सीताजीकी माता सुनयनाजीने कहा—विधाताकी बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूधके फेन-जैसी कोमल वस्तुको वज्रकी टाँकीसे फोड़ रहा है (अर्थात् जो अत्यन्त कोमल और निर्दोष हैं उनपर विपत्ति-पर-विपत्ति ढहा रहा है)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥ २८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमृत केवल सुननेमें आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाताकी सभी करतूतें भयङ्कर हैं। जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही [दिखायी देते] हैं; हंस तो एक मानसरोवरमें ही है॥ २८१॥

मूल (चौपाई)

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा।
बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी।
बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोकके साथ कहने लगीं—विधाताकी चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टिको उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाताकी बुद्धि बालकोंके खेलके समान भोली (विवेकशून्य) है॥ १॥

मूल (चौपाई)

कौसल्या कह दोसु न काहू।
करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥
कठिन करम गति जान बिधाता।
जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीने कहा—किसीका दोष नहीं है; दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्मके अधीन हैं। कर्मकी गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलोंका देनेवाला है॥ २॥

मूल (चौपाई)

ईस रजाइ सीस सबही कें।
उतपति थिति लय बिषहु अमी कें॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी।
बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईश्वरकी आज्ञा सभीके सिरपर है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विषके भी सिरपर है (ये सब भी उसीके अधीन हैं)। हे देवि! मोहवश सोच करना व्यर्थ है। विधाताका प्रपञ्च ऐसा ही अचल और अनादि है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भूपति जिअब मरब उर आनी।
सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी।
सुकृती अवधि अवधपति रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराजके मरने और जीनेकी बातको हृदयमें याद करके जो चिन्ता करती हैं, वह तो हे सखी! हम अपने ही हितकी हानि देखकर (स्वार्थवश) करती हैं। सीताजीकी माताने कहा—आपका कथन उत्तम और सत्य है। आप पुण्यात्माओंके सीमारूप अवधपति (महाराज दशरथजी) की ही तो रानी हैं। [फिर, भला ऐसा क्यों न कहेंगी]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लखनु रामु सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥ २८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीने दुःखभरे हृदयसे कहा—श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वनमें जायँ, इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरतकी चिन्ता है॥ २८२॥

मूल (चौपाई)

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी।
सुत सुतबधू देवसरि बारी॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ।
सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईश्वरके अनुग्रह और आपके आशीर्वादसे मेरे [चारों] पुत्र और [चारों] बहुएँ गङ्गाजीके जलके समान पवित्र हैं। हे सखी! मैंने कभी श्रीरामकी सौगन्ध नहीं की, सो आज श्रीरामकी शपथ करके सत्य भावसे कहती हूँ—॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरत सील गुन बिनय बड़ाई।
भायप भगति भरोस भलाई॥
कहत सारदहु कर मति हीचे।
सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतके शील, गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपनका वर्णन करनेमें सरस्वतीजीकी बुद्धि भी हिचकती है। सीपसे कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं?॥ २॥

मूल (चौपाई)

जानउँ सदा भरत कुलदीपा।
बार बार मोहि कहेउ महीपा॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ।
पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भरतको सदा कुलका दीपक जानती हूँ। महाराजने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना कसौटीपर कसे जानेपर और रत्न पारखी (जौहरी) के मिलनेपर ही पहचाना जाता है। वैसे ही पुरुषकी परीक्षा समय पड़नेपर उसके स्वभावसे ही (उसका चरित्र देखकर) हो जाती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अनुचित आजु कहब अस मोरा।
सोक सनेहँ सयानप थोरा॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी।
भईं सनेह बिकल सब रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुचित है। शोक और स्नेहमें सयानापन (विवेक) कम हो जाता है (लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरतकी बड़ाई कर रही हूँ)। कौसल्याजीकी गङ्गाजीके समान पवित्र करनेवाली वाणी सुनकर सब रानियाँ स्नेहके मारे विकल हो उठीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥ २८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीने फिर धीरज धरकर कहा—हे देवि मिथिलेश्वरी! सुनिये, ज्ञानके भण्डार श्रीजनकजीकी प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥ २८३॥

मूल (चौपाई)

रानि राय सन अवसरु पाई।
अपनी भाँति कहब समुझाई॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन।
जौं यह मत मानै महीप मन॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रानी! मौका पाकर आप राजाको अपनी ओरसे जहाँतक हो सके समझाकर कहियेगा कि लक्ष्मणको घर रख लिया जाय और भरत वनको जायँ। यदि यह राय राजाके मनमें [ठीक] जँच जाय,॥ १॥

मूल (चौपाई)

तौ भल जतनु करब सुबिचारी।
मोरें सोचु भरत कर भारी॥
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं।
रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भलीभाँति खूब विचारकर ऐसा यत्न करें। मुझे भरतका अत्यधिक सोच है। भरतके मनमें गूढ़ प्रेम है। उनके घर रहनेमें मुझे भलाई नहीं जान पड़ती (यह डर लगता है कि उनके प्राणोंको कोई भय न हो जाय)॥ २॥

मूल (चौपाई)

लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी।
सब भइ मगन करुन रस रानी॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि।
सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीका स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणीको सुनकर सब रानियाँ करुणरसमें निमग्न हो गयीं। आकाशसे पुष्पवर्षाकी झड़ी लग गयी और धन्य-धन्यकी ध्वनि होने लगी। सिद्ध, योगी और मुनि स्नेहसे शिथिल हो गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ।
तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती।
राम मातु सुनि उठी सप्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारा रनिवास देखकर थकित रह गया (निस्तब्ध हो गया), तब सुमित्राजीने धीरज धरके कहा कि हे देवि! दो घड़ी रात बीत गयी है। यह सुनकर श्रीरामजीकी माता कौसल्याजी प्रेमपूर्वक उठीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति कै मिथिलेस सहाय॥ २८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और प्रेमसहित सद्भावसे बोलीं—अब आप शीघ्र डेरेको पधारिये। हमारे तो अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर जनकजी सहायक हैं॥ २८४॥

मूल (चौपाई)

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता।
जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी।
दसरथ घरिनि राम महतारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीके प्रेमको देखकर और उनके विनम्र वचनोंको सुनकर जनकजीकी प्रिय पत्नीने उनके पवित्र चरण पकड़ लिये और कहा—हे देवि! आप राजा दशरथजीकी रानी और श्रीरामजीकी माता हैं। आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रभु अपने नीचहु आदरहीं।
अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥
सेवकु राउ करम मन बानी।
सदा सहाय महेसु भवानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु अपने नीच जनोंका भी आदर करते हैं। अग्नि धुएँको और पर्वत तृण (घास) को अपने सिरपर धारण करते हैं। हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणीसे आपके सेवक हैं और सदा सहायक तो श्रीमहादेव-पार्वतीजी हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

रउरे अंग जोगु जग को है।
दीप सहाय कि दिनकर सोहै॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू।
अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका सहायक होने योग्य जगत् में कौन है? दीपक सूर्यकी सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा सकता है? श्रीरामचन्द्रजी वनमें जाकर देवताओंका कार्य करके अवधपुरीमें अचल राज्य करेंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अमर नाग नर राम बाहुबल।
सुख बसिहहिं अपनें अपनें थल॥
यह सब जागबलिक कहि राखा।
देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, नाग और मनुष्य सब श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके बलपर अपने-अपने स्थानों (लोकों) में सुखपूर्वक बसेंगे। यह सब याज्ञवल्क्य मुनिने पहलेहीसे कह रखा है। हे देवि! मुनिका कथन व्यर्थ (झूठा) नहीं हो सकता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥ २८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर बड़े प्रेमसे पैरों पड़कर सीताजी [को साथ भेजने] के लिये विनती करके और सुन्दर आज्ञा पाकर तब सीताजीसमेत सीताजीकी माता डेरेको चलीं॥ २८५॥

मूल (चौपाई)

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही।
जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी।
भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियोंसे—जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजीको तपस्विनीके वेषमें देखकर सभी शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

जनक राम गुर आयसु पाई।
चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी।
पाहुनि पावन पेम प्रान की॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजी श्रीरामजीके गुरु वसिष्ठजीकी आज्ञा पाकर डेरेको चले और आकर उन्होंने सीताजीको देखा। जनकजीने अपने पवित्र प्रेम और प्राणोंकी पाहुनी जानकीजीको हृदयसे लगा लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू।
भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा।
ता पर राम पेम सिसु सोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके हृदयमें [वात्सल्य] प्रेमका समुद्र उमड़ पड़ा। राजाका मन मानो प्रयाग हो गया। उस समुद्रके अंदर उन्होंने [आदिशक्ति] सीताजीके [अलौकिक] स्नेहरूपी अक्षयवटको बढ़ते हुए देखा। उस (सीताजीके प्रेमरूपी वट) पर श्रीरामजीका प्रेमरूपी बालक (बालरूपधारी भगवान्) सुशोभित हो रहा है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु।
बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की।
महिमा सिय रघुबर सनेह की॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीका ज्ञानरूपी चिरंजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस श्रीरामप्रेमरूपी बालकका सहारा पाकर बच गया। वस्तुतः [ज्ञानिशिरोमणि] विदेहराजकी बुद्धि मोहमें मग्न नहीं है। यह तो श्रीसीतारामजीके प्रेमकी महिमा है [जिसने उन-जैसे महान् ज्ञानीके ज्ञानको भी विकल कर दिया]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥ २८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता-माताके प्रेमके मारे सीताजी ऐसी विकल हो गयीं कि अपनेको सँभाल न सकीं। [परन्तु परम धैर्यवती] पृथ्वीकी कन्या सीताजीने समय और सुन्दर धर्मका विचार कर धैर्य धारण किया॥ २८६॥

मूल (चौपाई)

तापस बेष जनक सिय देखी।
भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ।
सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीको तपस्विनी-वेषमें देखकर जनकजीको विशेष प्रेम और सन्तोष हुआ। [उन्होंने कहा—] बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिये। तेरे निर्मल यशसे सारा जगत् उज्ज्वल हो रहा है; ऐसा सब कोई कहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी।
गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी॥
गंग अवन थल तीनि बड़ेरे।
एहिं किए साधु समाज घनेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरी कीर्तिरूपी नदी देवनदी गङ्गाजीको भी जीतकर [जो एक ही ब्रह्माण्डमें बहती है] करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें बह चली है। गङ्गाजीने तो पृथ्वीपर तीन ही स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज और गङ्गासागर) को बड़ा (तीर्थ) बनाया है। पर तेरी इस कीर्तिनदीने तो अनेकों संतसमाजरूपी तीर्थस्थान बना दिये हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी।
सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई।
सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता जनकजीने तो स्नेहसे सच्ची सुन्दर वाणी कही। परन्तु अपनी बड़ाई सुनकर सीताजी मानो संकोचमें समा गयीं। पिता-माताने उन्हें फिर हृदयसे लगा लिया और हितभरी सुन्दर सीख और आशिष दी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहति न सीय सकुचि मन माहीं।
इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ।
हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी कुछ कहती नहीं हैं, परन्तु मनमें सकुचा रही हैं कि रातमें [सासुओंकी सेवा छोड़कर] यहाँ रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयनाजीने जानकीजीका रुख देखकर (उनके मनकी बात समझकर) राजा जनकजीको जना दिया। तब दोनों अपने हृदयोंमें सीताजीके शील और स्वभावकी सराहना करने लगे॥ ४॥

Misc Detail