४२ जनकजीका पहुँचना, कोल-किरातादिकी भेंट, सबका परस्पर मिलाप

दोहा

मूल (दोहा)

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥ २७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सब लोग प्रेममें मग्न हैं। इतनेमें ही मिथिलापति जनकजीको आते हुए सुनकर सूर्यकुलरूपी कमलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजी सभासहित आदरपूर्वक जल्दीसे उठ खड़े हुए॥ २७४॥

मूल (चौपाई)

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा।
आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं।
करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई, मन्त्री, गुरु और पुरवासियोंको साथ लेकर श्रीरघुनाथजी आगे (जनकजीकी अगवानीमें) चले। जनकजीने ज्यों ही पर्वतश्रेष्ठ कामदनाथको देखा, त्यों ही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया (पैदल चलना शुरू कर दिया)॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम दरस लालसा उछाहू।
पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही।
बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके दर्शनकी लालसा और उत्साहके कारण किसीको रास्तेकी थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है। मन तो वहाँ है जहाँ श्रीराम और जानकीजी हैं। बिना मनके शरीरके सुख-दुःखकी सुध किसको हो?॥ २॥

मूल (चौपाई)

आवत जनकु चले एहि भाँती।
सहित समाज प्रेम मति माती॥
आए निकट देखि अनुरागे।
सादर मिलन परसपर लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। समाजसहित उनकी बुद्धि प्रेममें मतवाली हो रही है। निकट आये देखकर सब प्रेममें भर गये और आदरपूर्वक आपसमें मिलने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लगे जनक मुनिजन पद बंदन।
रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि।
चले लवाइ समेत समाजहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजी [वसिष्ठ आदि अयोध्यावासी] मुनियोंके चरणोंकी वन्दना करने लगे और श्रीरामचन्द्रजीने [शतानन्द आदि जनकपुरवासी] ऋषियोंको प्रणाम किया। फिर भाइयोंसमेत श्रीरामजी राजा जनकजीसे मिलकर उन्हें समाजसहित अपने आश्रमको लिवा चले॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥ २७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीका आश्रम शान्तरसरूपी पवित्र जलसे परिपूर्ण समुद्र है। जनकजीकी सेना (समाज) मानो करुणा (करुणरस) की नदी है, जिसे श्रीरघुनाथजी [उस आश्रमरूपी शान्तरसके समुद्रमें मिलानेके लिये] लिये जा रहे हैं॥ २७५॥

मूल (चौपाई)

बोरति ग्यान बिराग करारे।
बचन ससोक मिलत नद नारे॥
सोच उसास समीर तरंगा।
धीरज तट तरुबर कर भंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह करुणाकी नदी [इतनी बढ़ी हुई है कि] ज्ञान-वैराग्यरूपी किनारोंको डुबाती जाती है। शोकभरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदीमें मिलते हैं; और सोचकी लम्बी साँसें (आहें) ही वायुके झकोरोंसे उठनेवाली तरङ्गें हैं, जो धैर्यरूपी किनारेके उत्तम वृक्षोंको तोड़ रही हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिषम बिषाद तोरावति धारा।
भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा।
सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयानक विषाद (शोक) ही उस नदीकी तेज धारा है। भय और भ्रम (मोह) ही उसके असंख्य भँवर और चक्र हैं। विद्वान् मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है। परन्तु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्याका उपयोग नहीं कर सकते हैं), किसीको उसकी अटकल ही नहीं आती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

बनचर कोल किरात बिचारे।
थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई।
मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें विचरनेवाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदीको देखकर हृदयमें हारकर थक गये हैं। यह करुणा-नदी जब आश्रम-समुद्रमें जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा (खौल उठा)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोक बिकल दोउ राज समाजा।
रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥
भूप रूप गुन सील सराही।
रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों राजसमाज शोकसे व्याकुल हो गये। किसीको न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथजीके रूप, गुण और शीलकी सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोकसमुद्रमें डुबकी लगा रहे हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकसमुद्रमें डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान् व्याकुल होकर सोच (चिन्ता) कर रहे हैं। वे सब विधाताको दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाताने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणोंमें कोई भी समर्थ नहीं है जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेमकी नदीको पार कर सके (प्रेममें मग्न हुए बिना रह सके)।

सोरठा

मूल (दोहा)

किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥ २७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियोंने लोगोंको अपरिमित उपदेश दिये और वसिष्ठजीने विदेह (जनकजी) से कहा—हे राजन्! आप धैर्य धारण कीजिये॥ २७६॥

मूल (चौपाई)

जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा।
बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥
तेहि कि मोह ममता निअराई।
यह सिय राम सनेह बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन राजा जनकका ज्ञानरूपी सूर्य भव (आवागमन)रूपी रात्रिका नाश कर देता है, और जिनकी वचनरूपी किरणें मुनिरूपी कमलोंको खिला देती हैं (आनन्दित करती हैं), क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्रीसीतारामजीके प्रेमकी महिमा है! [अर्थात् राजा जनककी यह दशा श्रीसीतारामजीके अलौकिक प्रेमके कारण हुई, लौकिक मोह-ममताके कारण नहीं। जो लौकिक मोह-ममताको पार कर चुके हैं उनपर भी श्रीसीतारामजीका प्रेम अपना प्रभाव दिखाये बिना नहीं रहता]॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिषई साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू।
साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयी, साधक और ज्ञानवान् सिद्ध पुरुष—जगत् में ये तीन प्रकारके जीव वेदोंने बताये हैं। इन तीनोंमें जिसका चित्त श्रीरामजीके स्नेहसे सरस (सराबोर) रहता है, साधुओंकी सभामें उसीका बड़ा आदर होता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोह न राम पेम बिनु ग्यानू।
करनधार बिनु जिमि जलजानू॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए।
राम घाट सब लोग नहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके प्रेमके बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधारके बिना जहाज। वसिष्ठजीने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकारसे समझाया। तदनन्तर सब लोगोंने श्रीरामजीके घाटपर स्नान किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सकल सोक संकुल नर नारी।
सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू।
प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री-पुरुष सब शोकसे पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जलके बीत गया (भोजनकी बात तो दूर रही, किसीने जलतक नहीं पिया)। पशु, पक्षी और हिरनोंतकने कुछ आहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियोंका तो विचार ही क्या किया जाय?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥ २७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

निमिराज जनकजी और रघुराज रामचन्द्रजी तथा दोनों ओरके समाजने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़के वृक्षके नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं॥ २७७॥

मूल (चौपाई)

जे महिसुर दसरथ पुर बासी।
जे मिथिलापति नगर निवासी॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा।
जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दशरथजीकी नगरी अयोध्याके रहनेवाले और जो मिथिलापति जनकजीके नगर जनकपुरके रहनेवाले ब्राह्मण थे, तथा सूर्यवंशके गुरु वसिष्ठजी तथा जनकजीके पुरोहित शतानन्दजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदयका मार्ग तथा परमार्थका मार्ग छान डाला था,॥ १॥

मूल (चौपाई)

लगे कहन उपदेस अनेका।
सहित धरम नय बिरति बिबेका॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं।
समुझाई सब सभा सुबानीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब धर्म, नीति, वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजीने पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभाको सुन्दर वाणीसे समझाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ।
नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई।
गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरघुनाथजीने विश्वामित्रजीसे कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिये ही रह गये थे [अब कुछ आहार करना चाहिये]। विश्वामित्रजीने कहा कि श्रीरघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं। ढाई पहर दिन [आज भी] बीत गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू।
इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना।
पाइ रजायसु चले नहाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रजीका रुख देखकर तिरहुतराज जनकजीने कहा—यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है। राजाका सुन्दर कथन सबके मनको अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥ २७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय अनेकों प्रकारके बहुत-से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहँगियों और बोझोंमें भर-भरकर वनवासी (कोल-किरात) लोग ले आये॥ २७८॥

मूल (चौपाई)

कामद भे गिरि राम प्रसादा।
अवलोकत अपहरत बिषादा॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा।
जनु उमगत आनँद अनुरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे सब पर्वत मनचाही वस्तु देनेवाले हो गये। वे देखनेमात्रसे ही दुःखोंको सर्वथा हर लेते थे। वहाँके तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वीके सभी भागोंमें मानो आनन्द और प्रेम उमड़ रहा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

बेलि बिटप सब सफल सफूला।
बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू।
त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलोंसे युक्त हो गये। पक्षी, पशु और भौंरे अनुकूल बोलने लगे। उस अवसरपर वनमें बहुत उत्साह (आनन्द) था, सब किसीको सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा चल रही थी॥ २॥

मूल (चौपाई)

जाइ न बरनि मनोहरताई।
जनु महि करति जनक पहुनाई॥
तब सब लोग नहाइ नहाई।
राम जनक मुनि आयसु पाई॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे।
जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना।
पावन सुंदर सुधा समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनकी मनोहरता वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजीकी पहुनाई कर रही है। तब जनकपुरवासी सब लोग नहा-नहाकर श्रीरामचन्द्रजी, जनकजी और मुनिकी आज्ञा पाकर, सुन्दर वृक्षोंको देख-देखकर प्रेममें भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे। पवित्र, सुन्दर और अमृतके समान [स्वादिष्ट] अनेकों प्रकारके पत्ते, फल, मूल और कन्द—॥ ३-४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥ २७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके गुरु वसिष्ठजीने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर-देवता, अतिथि और गुरुकी पूजा करके फलाहार करने लगे॥ २७९॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि बासर बीते चारी।
रामु निरखि नर नारि सुखारी॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं।
बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार चार दिन बीत गये। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजोंके मनमें ऐसी इच्छा है कि श्रीसीतारामजीके बिना लौटना अच्छा नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीता राम संग बनबासू।
कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥
परिहरि लखन रामु बैदेही।
जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीतारामजीके साथ वनमें रहना करोड़ों देवलोकोंके [निवासके] समान सुखदायक है। श्रीलक्ष्मणजी, श्रीरामजी और श्रीजानकीजीको छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

दाहिन दइउ होइ जब सबही।
राम समीप बसिअ बन तबही॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला।
राम दरसु मुद मंगल माला॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी श्रीरामजीके पास वनमें निवास हो सकता है। मन्दाकिनीजीका तीनों समय स्नान और आनन्द तथा मङ्गलोंकी माला (समूह) रूप श्रीरामका दर्शन,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अटनु राम गिरि बन तापस थल।
असनु अमिअ सम कंद मूल फल॥
सुख समेत संबत दुइ साता।
पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियोंके स्थानोंमें घूमना और अमृतके समान कन्द, मूल, फलोंका भोजन। चौदह वर्ष सुखके साथ पलके समान हो जायँगे (बीत जायँगे), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे॥ ४॥

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