४१ श्रीराम-भरतादिका संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥ २५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले भरतकी विनती आदरपूर्वक सुन लीजिये, फिर उसपर विचार कीजिये। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदोंका निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसीके अनुसार) कीजिये॥ २५८॥

मूल (चौपाई)

गुर अनुरागु भरत पर देखी।
राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी।
निज सेवक तन मानस बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीपर गुरुजीका स्नेह देखकर श्रीरामचन्द्रजीके हृदयमें विशेष आनन्द हुआ। भरतजीको धर्मधुरन्धर और तन, मन, वचनसे अपना सेवक जानकर—॥ १॥

मूल (चौपाई)

बोले गुर आयस अनुकूला।
बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई।
भयउ न भुअन भरत सम भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी गुरुकी आज्ञाके अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याणके मूल वचन बोले—हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजीके चरणोंकी दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभरमें भरतके समान भाई कोई हुआ ही नहीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे गुर पद अंबुज अनुरागी।
ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू।
को कहि सकइ भरत कर भागू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग गुरुके चरणकमलोंके अनुरागी हैं, वे लोकमें (लौकिक दृष्टिसे) भी और वेदमें (पारमार्थिक दृष्टिसे) भी बड़भागी होते हैं! [फिर] जिसपर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरतके भाग्यको कौन कह सकता है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई।
करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई।
अस कहि राम रहे अरगाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटा भाई जानकर भरतके मुँहपर उसकी बड़ाई करनेमें मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करनेमें भलाई है। ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥२५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनि भरतजीसे बोले—हे तात! सब सङ्कोच त्यागकर कृपाके समुद्र अपने प्यारे भाईसे अपने हृदयकी बात कहो॥ २५९॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई।
गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू।
कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजीका रुख पाकर—गुरु तथा स्वामीको भरपेट अपने अनुकूल जानकर—सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े।
नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा।
एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरसे पुलकित होकर वे सभामें खड़े हो गये। कमलके समान नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंकी बाढ़ आ गयी। [वे बोले—] मेरा कहना तो मुनिनाथने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥ २॥

मूल (चौपाई)

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ।
अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी।
खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने स्वामीका स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधीपर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेलमें भी कभी उनकी रिस (अप्रसन्नता) नहीं देखी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू।
कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही।
हारेहुँ खेल जितावहिं मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

बचपनसे ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मनको कभी नहीं तोड़ा (मेरे मनके प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभुकी कृपाकी रीतिको हृदयमें भलीभाँति देखा (अनुभव किया है)। मेरे हारनेपर भी खेलमें प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥ २६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेमके प्यासे मेरे नेत्र आजतक प्रभुके दर्शनसे तृप्त नहीं हुए॥ २६०॥

मूल (चौपाई)

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा।
नीच बीचु जननी मिस पारा॥
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा।
अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माताके बहाने [मेरे और स्वामीके बीच] अन्तर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता। क्योंकि अपनी समझसे कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है)॥ १॥

मूल (चौपाई)

मातु मंदि मैं साधु सुचाली।
उर अस आनत कोटि कुचाली॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली।
मुकता प्रसव कि संबुक काली॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदयमें लाना ही करोड़ दुराचारोंके समान है। क्या कोदोंकी बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू।
मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू।
जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वप्नमें भी किसीको दोषका लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापोंका परिणाम समझे बिना ही माताको कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा।
एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू।
लागत मोहि नीक परिनामू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने हृदयमें सब ओर खोजकर हार गया (मेरी भलाईका कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्रीसीतारामजी मेरे स्वामी हैं। इसीसे परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥ २६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधुओंकी सभामें गुरुजी और स्वामीके समीप इस पवित्र तीर्थ-स्थानमें मैं सत्य भावसे कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपञ्च (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे [सर्वज्ञ] मुनि वसिष्ठजी और [अन्तर्यामी] श्रीरघुनाथजी जानते हैं॥ २६१॥

मूल (चौपाई)

भूपति मरन पेम पनु राखी।
जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं।
जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेमके प्रणको निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माताकी कुबुद्धि, दोनोंका सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरीके नर-नारी दुःसह तापसे जल रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

महीं सकल अनरथ कर मूला।
सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा।
करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ।
संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू।
कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ही इन सारे अनर्थोंका मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजीके साथ मुनियोंका-सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वनको चले गये, यह सुनकर, शङ्करजी साक्षी हैं, इस घावसे भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गये)! फिर निषादराजका प्रेम देखकर भी इस वज्रसे भी कठोर हृदयमें छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)॥ २-३॥

मूल (चौपाई)

अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई।
जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी।
तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रहकर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्तेकी साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोधको त्याग देती हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥ २६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही श्रीरघुनन्दन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयीके पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा?॥ २६२॥

मूल (चौपाई)

सुनि अति बिकल भरत बर बानी।
आरति प्रीति बिनय नय सानी॥
सोक मगन सब सभाँ खभारू।
मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीतिमें सनी हुई भरतजीकी श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोकमें मग्न हो गये, सारी सभामें विषाद छा गया। मानो कमलके वनपर पाला पड़ गया हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहि अनेक बिधि कथा पुरानी।
भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी॥
बोले उचित बचन रघुनंदू।
दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ज्ञानी मुनि वसिष्ठजीने अनेक प्रकारकी पुरानी (ऐतिहासिक) कथाएँ कहकर भरतजीका समाधान किया। फिर सूर्यकुलरूपी कुमुदवनके प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा श्रीरघुनन्दन उचित वचन बोले—॥ २॥

मूल (चौपाई)

तात जायँ जियँ करहु गलानी।
ईस अधीन जीव गति जानी॥
तीनि काल तिभुअन मत मोरें।
पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम अपने हृदयमें व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीवकी गतिको ईश्वरके अधीन जानो। मेरे मतमें [भूत, भविष्य, वर्तमान] तीनों कालों और [स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल] तीनों लोकोंके सब पुण्यात्मा पुरुष तुमसे नीचे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई।
जाइ लोकु परलोकु नसाई॥
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई।
जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें भी तुमपर कुटिलताका आरोप करनेसे यह लोक (यहाँके सुख, यश आदि) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरनेके बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता कैकेयीको तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं जिन्होंने गुरु और साधुओंकी सभाका सेवन नहीं किया है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥ २६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! तुम्हारा नाम-स्मरण करते ही सब पाप, प्रपञ्च (अज्ञान) और समस्त अमङ्गलोंके समूह मिट जायँगे तथा इस लोकमें सुन्दर यश और परलोकमें सुख प्राप्त होगा॥ २६३॥

मूल (चौपाई)

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी।
भरत भूमि रह राउरि राखी॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ।
बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! मैं स्वभावसे ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाये नहीं छिपते॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं।
बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना।
मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षी और पशु मुनियोंके पास [बेधड़क] चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधिकोंको देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रुको पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्यशरीर तो गुण और ज्ञानका भण्डार ही है॥ २॥

मूल (चौपाई)

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें।
करौं काह असमंजस जीकें॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी।
तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ! क्या करूँ? जीमें बड़ा असमञ्जस (दुविधा) है। राजाने मुझे त्यागकर सत्यको रखा और प्रेम-प्रणके लिये शरीर छोड़ दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तासु बचन मेटत मन सोचू।
तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा।
अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके वचनको मेटते मनमें सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उसपर भी गुरुजीने मुझे आज्ञा दी है। इसलिये अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता हूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥ २६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मनको प्रसन्न कर और संकोचको त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजीका यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥ २६४॥

मूल (चौपाई)

सुर गन सहित सभय सुरराजू।
सोचहिं चाहत होन अकाजू॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं।
राम सरन सब गे मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवगणोंसहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन-ही-मन श्रीरामजीकी शरण गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं।
रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥
सुधि करि अंबरीष दुरबासा।
भे सुर सुरपति निपट निरासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे विचार करके आपसमें कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्तकी भक्तिके वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासाकी [घटना] याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा।
नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा।
अब सुर काज भरत के हाथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले देवताओंने बहुत समयतक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लादने ही नृसिंहभगवान् को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानोंसे लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब (इस बार) देवताओंका काम भरतजीके हाथ है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आन उपाउ न देखिअ देवा।
मानत रामु सुसेवक सेवा॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि।
निज गुन सील राम बस करतहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देवताओ! और कोई उपाय नहीं दिखायी देता। श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकोंकी सेवाको मानते हैं (अर्थात् उनके भक्तकी कोई सेवा करता है तो उसपर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शीलसे श्रीरामजीको वशमें करनेवाले भरतजीका ही सब लोग अपने-अपने हृदयमें प्रेमसहित स्मरण करो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सुरमत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥ २६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंका मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजीने कहा—अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजीके चरणोंका प्रेम जगत् में समस्त शुभ मङ्गलोंका मूल है॥ २६५॥

मूल (चौपाई)

सीतापति सेवक सेवकाई।
कामधेनु सय सरिस सुहाई॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई।
तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीतानाथ श्रीरामजीके सेवककी सेवा सैकड़ों कामधेनुओंके समान सुन्दर है। तुम्हारे मनमें भरतजीकी भक्ति आयी है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाताने बात बना दी॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखु देवपति भरत प्रभाऊ।
सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं।
भरतहि जानि राम परिछाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देवराज! भरतजीका प्रभाव तो देखो। श्रीरघुनाथजी सहज स्वभावसे ही उनके पूर्णरूपसे वशमें हैं। हे देवताओ! भरतजीको श्रीरामचन्द्रजीकी परछाईं (परछाईंकी भाँति उनका अनुसरण करनेवाला) जानकर मन स्थिर करो, डरकी बात नहीं है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू।
अंतरजामी प्रभुहि सकोचू॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना।
करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओंकी सम्मति (आपसका विचार) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजीको संकोच हुआ। भरतजीने अपने मनमें सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदयमें करोड़ों (अनेकों) प्रकारके अनुमान (विचार) करने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करि बिचारु मन दीन्ही ठीका।
राम रजायस आपन नीका॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा।
छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब तरहसे विचार करके अन्तमें उन्होंने मनमें यही निश्चय किया कि श्रीरामजीकी आज्ञामें ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात् अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥ २६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीजानकीनाथजीने सब प्रकारसे मुझपर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों कर-कमलोंको जोड़कर प्रणाम करके बोले—॥ २६६॥

मूल (चौपाई)

कहौं कहावौं का अब स्वामी।
कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला।
मिटी मलिन मन कलपित सूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामी! हे कृपाके समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं [अधिक] क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराजको प्रसन्न और स्वामीको अनुकूल जानकर मेरे मलिन मनकी कल्पित पीड़ा मिट गयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

अपडर डरेउँ न सोच समूलें।
रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें॥
मोर अभागु मातु कुटिलाई।
बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं मिथ्या डरसे ही डर गया था। मेरे सोचकी जड़ ही न थी। दिशा भूल जानेपर हे देव! सूर्यका दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माताकी कुटिलता, विधाताकी टेढ़ी चाल और कालकी कठिनता,॥ २॥

मूल (चौपाई)

पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला।
प्रनतपाल पन आपन पाला॥
यह नइ रीति न राउरि होई।
लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सबने मिलकर पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था। परन्तु शरणागतके रक्षक आपने अपना [शरणागतकी रक्षाका] प्रण निबाहा (मुझे बचा लिया)। यह आपकी कोई नयी रीति नहीं है। यह लोक और वेदोंमें प्रकट है, छिपी नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जगु अनभल भल एकु गोसाईं।
कहिअ होइ भल कासु भलाईं॥
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ।
सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारा जगत् बुरा [करनेवाला] हो; किन्तु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाईसे भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्षके समान है; वह न कभी किसीके सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥ २६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाय, तो उसकी छाया ही सारी चिन्ताओंका नाश करनेवाली है। राजा-रंक, भले-बुरे, जगत् में सभी उससे माँगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं॥ २६७॥

मूल (चौपाई)

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू।
मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई।
जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु और स्वामीका सब प्रकारसे स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मनमें कुछ भी सन्देह नहीं रहा। हे दयाकी खान! अब वही कीजिये जिससे दासके लिये प्रभुके चित्तमें क्षोभ (किसी प्रकारका विचार) न हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

जो सेवकु साहिबहि सँकोची।
निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई।
करै सकल सुख लोभ बिहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सेवक स्वामीको संकोचमें डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवकका हित तो इसीमें है कि वह समस्त सुखों और लोभोंको छोड़कर स्वामीकी सेवा ही करे॥ २॥

मूल (चौपाई)

स्वारथु नाथ फिरें सबही का।
किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू।
सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपके लौटनेमें सभीका स्वार्थ है, और आपकी आज्ञा पालन करनेमें करोड़ों प्रकारसे कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थका सार (निचोड़) है, समस्त पुण्योंका फल और सम्पूर्ण शुभ गतियोंका शृङ्गार है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देव एक बिनती सुनि मोरी।
उचित होइ तस करब बहोरी॥
तिलक समाजु साजि सबु आना।
करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये। राजतिलककी सब सामग्री सजाकर लायी गयी है, जो प्रभुका मन माने तो उसे सफल कीजिये (उसका उपयोग कीजिये)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥ २६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे भाई शत्रुघ्नसमेत मुझे वनमें भेज दीजिये और [अयोध्या लौटकर] सबको सनाथ कीजिये। नहीं तो किसी तरह भी (यदि आप अयोध्या जानेको तैयार न हों) हे नाथ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयोंको लौटा दीजिये और मैं आपके साथ चलूँ॥ २६८॥

मूल (चौपाई)

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई।
बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई।
करुना सागर कीजिअ सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा हम तीनों भाई वन चले जायँ और हे श्रीरघुनाथजी! आप श्रीसीताजीसहित [अयोध्याको] लौट जाइये। हे दयासागर! जिस प्रकारसे प्रभुका मन प्रसन्न हो, वही कीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारू।
मोरें नीति न धरम बिचारू॥
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू।
रहत न आरत कें चित चेतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! आपने सारा भार (जिम्मेवारी) मुझपर रख दिया। पर मुझमें न तो नीतिका विचार है, न धर्मका। मैं तो अपने स्वार्थके लिये सब बातें कह रहा हूँ। आर्त (दुखी) मनुष्यके चित्तमें चेत (विवेक) नहीं रहता॥ २॥

मूल (चौपाई)

उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई।
सो सेवकु लखि लाज लजाई॥
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू।
स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीकी आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवकको देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं अवगुणोंका ऐसा अथाह समुद्र हूँ [कि प्रभुको उत्तर दे रहा हूँ]। किन्तु स्वामी (आप) स्नेहवश साधु कहकर मुझे सराहते हैं!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब कृपाल मोहि सो मत भावा।
सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा॥
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ।
जग मंगल हित एक उपाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, जिससे स्वामीका मन संकोच न पावे। प्रभुके चरणोंकी शपथ है, मैं सत्य भावसे कहता हूँ, जगत् के कल्याणके लिये एक यही उपाय है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥ २६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसन्न मनसे संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा-चढ़ाकर [पालन] करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जायँगी॥ २६९॥

मूल (चौपाई)

भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे।
साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
असमंजस बस अवध नेवासी।
प्रमुदित मन तापस बनबासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओंने फूल बरसाये। अयोध्यानिवासी असमंजसके वश हो गये [कि देखें अब श्रीरामजी क्या कहते हैं]। तपस्वी तथा वनवासी लोग [श्रीरामजीके वनमें बने रहनेकी आशासे] मनमें परम आनन्दित हुए॥ १॥

मूल (चौपाई)

चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची।
प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥
जनक दूत तेहि अवसर आए।
मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु संकोची श्रीरघुनाथजी चुप ही रह गये। प्रभुकी यह स्थिति (मौन) देख सारी सभा सोचमें पड़ गयी। उसी समय जनकजीके दूत आये, यह सुनकर मुनि वसिष्ठजीने उन्हें तुरंत बुलवा लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे।
बेषु देखि भए निपट दुखारे॥
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता।
कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने [आकर] प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजीको देखा। उनका [मुनियोंका-सा] वेष देखकर वे बहुत ही दुखी हुए। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीने दूतोंसे बात पूछी कि राजा जनकका कुशल-समाचार कहो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा।
बोले चरबर जोरें हाथा॥
बूझब राउर सादर साईं।
कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह (मुनिका कुशलप्रश्न) सुनकर सकुचाकर पृथ्वीपर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले—हे स्वामी! आपका आदरके साथ पूछना, यही हे गोसाईं! कुशलका कारण हो गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥ २७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो हे नाथ! कुशल-क्षेम तो सब कोसलनाथ दशरथजीके साथ ही चली गयी। [उनके चले जानेसे] यों तो सारा जगत् ही अनाथ (स्वामीके बिना असहाय) हो गया, किन्तु मिथिला और अवध तो विशेषरूपसे अनाथ हो गये॥ २७०॥

मूल (चौपाई)

कोसलपति गति सुनि जनकौरा।
भे सब लोक सोकबस बौरा॥
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू।
नामु सत्य अस लाग न केहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यानाथकी गति (दशरथजीका मरण) सुनकर जनकपुरवासी सभी लोग शोकवश बावले हो गये (सुध-बुध भूल गये)। उस समय जिन्होंने विदेहको [शोकमग्न] देखा, उनमेंसे किसीको ऐसा न लगा कि उनका विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य है! [क्योंकि देहाभिमानसे शून्य पुरुषको शोक कैसा?]॥ १॥

मूल (चौपाई)

रानि कुचालि सुनत नरपालहि।
सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि॥
भरत राज रघुबर बनबासू।
भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानीकी कुचाल सुनकर राजा जनकजीको कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणिके बिना साँपको नहीं सूझता। फिर भरतजीको राज्य और श्रीरामचन्द्रजीको वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजीके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ॥ २॥

मूल (चौपाई)

नृप बूझे बुध सचिव समाजू।
कहहु बिचारि उचित का आजू॥
समुझि अवध असमंजस दोऊ।
चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने विद्वानों और मन्त्रियोंके समाजसे पूछा कि विचारकर कहिये, आज (इस समय) क्या करना उचित है? अयोध्याकी दशा समझकर और दोनों प्रकारसे असमंजस जानकर ‘चलिये या रहिये?’ किसीने कुछ नहीं कहा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नृपहिं धीर धरि हृदयँ बिचारी।
पठए अवध चतुर चर चारी॥
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ।
आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[जब किसीने कोई सम्मति नहीं दी] तब राजाने धीरज धर हृदयमें विचारकर चार चतुर गुप्तचर (जासूस) अयोध्याको भेजे [और उनसे कह दिया कि] तुमलोग [श्रीरामजीके प्रति] भरतजीके सद्भाव (अच्छे भाव, प्रेम) या दुर्भाव (बुरा भाव, विरोध) का [यथार्थ] पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसीको तुम्हारा पता न लगने पावे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहुती॥ २७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुप्तचर अवधको गये और भरतजीका ढंग जानकर और उनकी करनी देखकर, जैसे ही भरतजी चित्रकूटको चले, वे तिरहुत (मिथिला) को चल दिये॥ २७१॥

मूल (चौपाई)

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी।
जनक समाज जथामति बरनी॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति।
भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥

अनुवाद (हिन्दी)

[गुप्त] दूतोंने आकर राजा जनकजीकी सभामें भरतजीकी करनीका अपनी बुद्धिके अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मन्त्री और राजा सभी सोच और स्नेहसे अत्यन्त व्याकुल हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

धरि धीरजु करि भरत बड़ाई।
लिए सुभट साहनी बोलाई॥
घर पुर देस राखि रखवारे।
हय गय रथ बहु जान सँवारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जनकजीने धीरज धरकर और भरतजीकी बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहनियोंको बुलाया। घर, नगर और देशमें रक्षकोंको रखकर घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत-सी सवारियाँ सजवायीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

दुघरी साधि चले ततकाला।
किए बिश्रामु न मग महिपाला॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा।
चले जमुन उतरन सबु लागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दुघड़िया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजाने रास्तेमें कहीं विश्राम भी नहीं किया। आज ही सबेरे प्रयागराजमें स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुनाजी उतरने लगे,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

खबरि लेन हम पठए नाथा।
तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे।
मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हे नाथ! हमें खबर लेनेको भेजा। उन्होंने (दूतोंने) ऐसा कहकर पृथ्वीपर सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीने कोई छः-सात भीलोंको साथ देकर दूतोंको तुरंत विदा कर दिया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥ २७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीका आगमन सुनकर अयोध्याका सारा समाज हर्षित हो गया। श्रीरामजीको बड़ा संकोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेषरूपसे सोचके वशमें हो गये॥ २७२॥

मूल (चौपाई)

गरइ गलानि कुटिल कैकेई।
काहि कहै केहि दूषनु देई॥
अस मन आनि मुदित नर नारी।
भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुटिल कैकेयी मन-ही-मन ग्लानि (पश्चात्ताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मनमें ऐसा विचारकर प्रसन्न हो रहे हैं कि [अच्छा हुआ, जनकजीके आनेसे] चार (कुछ) दिन और रहना हो गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहि प्रकार गत बासर सोऊ।
प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी।
गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्यभगवान् की पूजा करते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

रमा रमन पद बंदि बहोरी।
बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥
राजा रामु जानकी रानी।
आनँद अवधि अवध रजधानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके चरणोंकी वन्दना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर विनती करते हैं कि श्रीरामजी राजा हों, जानकीजी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनन्दकी सीमा होकर—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुबस बसउ फिरि सहित समाजा।
भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥
एहि सुख सुधाँ सींच सब काहू।
देव देहु जग जीवन लाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर समाजसहित सुखपूर्वक बसे और श्रीरामजी भरतजीको युवराज बनावें। हे देव! इस सुखरूपी अमृतसे सींचकर सब किसीको जगत् में जीनेका लाभ दीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥ २७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु, समाज और भाइयोंसमेत श्रीरामजीका राज्य अवधपुरीमें हो और श्रीरामजीके राजा रहते ही हमलोग अयोध्यामें मरें। सब कोई यही माँगते हैं॥ २७३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सनेहमय पुरजन बानी।
निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन।
रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यावासियोंकी प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्यकी निन्दा करते हैं। अवधवासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्रीरामजीको पुलकितशरीर हो प्रणाम करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

ऊँच नीच मध्यम नर नारी।
लहहिं दरसु निज निज अनुहारी॥
सावधान सबही सनमानहिं।
सकल सराहत कृपानिधानहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊँच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियोंके स्त्री-पुरुष अपने-अपने भावके अनुसार श्रीरामजीका दर्शन प्राप्त करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी सावधानीके साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

लरिकाइहि तें रघुबर बानी।
पालत नीति प्रीति पहिचानी॥
सील सकोच सिंधु रघुराऊ।
सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी लड़कपनसे ही यह बान है कि वे प्रेमको पहचानकर नीतिका पालन करते हैं। श्रीरघुनाथजी शील और संकोचके समुद्र हैं। वे सुन्दर मुखके [या सबके अनुकूल रहनेवाले], सुन्दर नेत्रवाले [या सबको कृपा और प्रेमकी दृष्टिसे देखनेवाले] और सरलस्वभाव हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहत राम गुन गन अनुरागे।
सब निज भाग सराहन लागे॥
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे।
जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके गुणसमूहोंको कहते-कहते सब लोग प्रेममें भर गये और अपने भाग्यकी सराहना करने लगे कि जगत् में हमारे समान पुण्यकी बड़ी पूँजीवाले थोड़े ही हैं; जिन्हें श्रीरामजी अपना करके जानते हैं (ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं)॥ ४॥

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