४० श्रीवसिष्ठजीका भाषण

दोहा

मूल (दोहा)

गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥ २५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी गुरुके चरणकमलोंमें प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गये। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मन्त्री आदि सभी सभासद आकर जुट गये॥ २५३॥

मूल (चौपाई)

बोले मुनिबरु समय समाना।
सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू।
राजा रामु स्वबस भगवानू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी समयोचित वचन बोले—हे सभासदो! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुलके सूर्य महाराज श्रीरामचन्द्र धर्मधुरन्धर और स्वतन्त्र भगवान् हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू।
राम जनमु जग मंगल हेतू॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी।
खल दलु दलन देव हितकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेदकी मर्यादाके रक्षक हैं। श्रीरामजीका अवतार ही जगत् के कल्याणके लिये हुआ है। वे गुरु, पिता और माताके वचनोंके अनुसार चलनेवाले हैं। दुष्टोंके दलका नाश करनेवाले और देवताओंके हितकारी हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु।
कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला।
माया जीव करम कुलि काला॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थको श्रीरामजीके समान यथार्थ (तत्त्वसे) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई।
जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें।
राम रजाइ सीस सबही कें॥

अनुवाद (हिन्दी)

शेषजी और [पृथ्वी एवं पातालके अन्यान्य] राजा आदि जहाँतक प्रभुता है, और योगकी सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रोंमें गायी गयी हैं, हृदयमें अच्छी तरह विचार कर देखो, [तो यह स्पष्ट दिखायी देगा कि] श्रीरामजीकी आज्ञा इन सभीके सिरपर है (अर्थात् श्रीरामजी ही सबके एकमात्र महान् महेश्वर हैं)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥ २५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव श्रीरामजीकी आज्ञा और रुख रखनेमें ही हम सबका हित होगा। [इस तत्त्व और रहस्यको समझकर] अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो॥ २५४॥

मूल (चौपाई)

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू।
मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ।
कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीका राज्याभिषेक सबके लिये सुखदायक है। मङ्गल और आनन्दका मूल यही एक मार्ग है। [अब] श्रीरघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाय॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब सादर सुनि मुनिबर बानी।
नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे।
तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीकी नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसीको कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचारशक्तिसे रहित) हो गये। तब भरतने सिर नवाकर हाथ जोड़े॥ २॥

मूल (चौपाई)

भानुबंस भए भूप घनेरे।
अधिक एक तें एक बड़ेरे॥
जनम हेतु सब कहँ पितु माता।
करम सुभासुभ देइ बिधाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा—] सूर्यवंशमें एक-से-एक अधिक बड़े बहुत-से राजा हो गये हैं। सभीके जन्मके कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मोंको (कर्मोंका फल) विधाता देते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दलि दुख सजइ सकल कल्याना।
अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी।
सकइ को टारि टेक जो टेकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी आशिष ही एक ऐसी है जो दुःखोंका दमन करके, समस्त कल्याणोंको सज देती है; यह जगत् जानता है। हे स्वामी! आप वही हैं जिन्होंने विधाताकी गति (विधान) को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु॥ २५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजीके प्रेममय वचनोंको सुनकर गुरुजीके हृदयमें प्रेम उमड़ आया॥ २५५॥

मूल (चौपाई)

तात बात फुरि राम कृपाहीं।
राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता।
अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वे बोले—] हे तात! बात सत्य है, पर है रामजीकी कृपासे ही। रामविमुखको तो स्वप्नमें भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं एक बात कहनेमें सकुचाता हूँ। बुद्धिमान् लोग सर्वस्व जाता देखकर [आधेकी रक्षाके लिये] आधा छोड़ दिया करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई।
फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता।
भे प्रमोद परिपूरन गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वनको जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्रीरामचन्द्रको लौटा दिया जाय। ये सुन्दर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गये। उनके सारे अंग परमानन्दसे परिपूर्ण हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा।
जनु जिय राउ रामु भए राजा॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी।
सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मन प्रसन्न हो गये। शरीरमें तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे हों और श्रीरामचन्द्रजी राजा हो गये हों! अन्य लोगोंको तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई। परन्तु रानियोंको दुःख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वनमें रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रोंका वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे।
फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥
कानन करउँ जनम भरि बासू।
एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी कहने लगे—मुनिने जो कहा, वह करनेसे जगत् भरके जीवोंको उनकी इच्छित वस्तु देनेका फल होगा। [चौदह वर्षकी कोई अवधि नहीं,] मैं जन्मभर वनमें वास करूँगा। मेरे लिये इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥ २५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी हृदयकी जाननेवाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनोंको प्रमाण कीजिये (उनके अनुसार व्यवस्था कीजिये)॥ २५६॥

मूल (चौपाई)

भरत बचन सुनि देखि सनेहू।
सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥
भरत महा महिमा जलरासी।
मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभासहित मुनि वसिष्ठजी विदेह हो गये (किसीको अपने देहकी सुधि न रही)। भरतजीकी महान् महिमा समुद्र है, मुनिकी बुद्धि उसके तटपर अबला स्त्रीके समान खड़ी है॥ १॥

मूल (चौपाई)

गा चह पार जतनु हियँ हेरा।
पावति नाव न बोहितु बेरा॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई।
सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह [उस समुद्रके] पार जाना चाहती है, इसके लिये उसने हृदयमें उपाय भी ढूँढ़े! पर [उसे पार करनेका साधन] नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजीकी बड़ाई और कौन करेगा? तलैयाकी सीपीमें भी कहीं समुद्र समा सकता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

भरतु मुनिहि मन भीतर भाए।
सहित समाज राम पहिं आए॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु।
बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि वसिष्ठजीके अन्तरात्माको भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाजसहित श्रीरामजीके पास आये। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने प्रणामकर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनिकी आज्ञा सुनकर बैठ गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बोले मुनिबरु बचन बिचारी।
देस काल अवसर अनुहारी॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना।
धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसरके अनुसार विचार करके वचन बोले—हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञानके भण्डार राम! सुनिये—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥ २५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सबके हृदयके भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भावको जानते हैं। जिसमें पुरवासियोंका, माताओंका और भरतका हित हो, वही उपाय बतलाइये॥ २५७॥

मूल (चौपाई)

आरत कहहिं बिचारि न काऊ।
सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ।
नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्त (दुखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरीको अपना ही दाँव सूझता है। मुनिके वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे—हे नाथ! उपाय तो आपहीके हाथ है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब कर हित रुख राउरि राखें।
आयसु किएँ मुदित फुर भाषें॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई।
माथें मानि करौं सिख सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका रुख रखनेमें और आपकी आज्ञाको सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करनेमें ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षाको माथेपर चढ़ाकर करूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं।
सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा।
भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरहसे सेवामें लग जायगा (आज्ञापालन करेगा)। मुनि वसिष्ठजी कहने लगे—हे राम! तुमने सच कहा। पर भरतके प्रेमने विचारको नहीं रहने दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी।
भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी।
जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरतकी भक्तिके वश हो गयी है। मेरी समझमें तो भरतकी रुचि रखकर जो कुछ किया जायगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा॥ ४॥

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