३९ वनवासियोंद्वारा भरतजीकी मण्डलीका सत्कार, कैकेयीका पश्चात्ताप

दोहा

मूल (दोहा)

सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥ २४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तालाबोंमें कमल खिल रहे हैं, जलके पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगोंके पक्षी और पशु वनमें वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥ २४९॥

मूल (चौपाई)

कोल किरात भिल्ल बनबासी।
मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी।
कंद मूल फल अंकुर जूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोल, किरात और भील आदि वनके रहनेवाले लोग पवित्र, सुन्दर एवं अमृतके समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुन्दर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कन्द, मूल, फल और अंकुर आदिकी जूड़ियों (अँटियों) को॥ १॥

मूल (चौपाई)

सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा।
कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं।
फेरत राम दोहाई देहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजोंके अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देनेमें श्रीरामजीकी दुहाई देते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी।
मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा।
पावा दरसनु राम प्रसादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेममें मग्न हुए वे कोमल वाणीसे कहते हैं कि साधु लोग प्रेमको पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात् आप साधु हैं, आप हमारे प्रेमको देखिये, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेमका तिरस्कार न कीजिये)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजीकी कृपासे ही हमने आपलोगोंके दर्शन पाये हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा।
जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा।
परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोगोंको आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमिके लिये गङ्गाजीकी धारा दुर्लभ है! [देखिये,] कृपालु श्रीरामचन्द्रजीने निषादपर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजाको भी होना चाहिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥ २५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करनेके लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये॥ २५०॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे।
सेवा जोगु न भाग हमारे॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई।
ईंधनु पात किरात मिताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप प्रिय पाहुने वनमें पधारे हैं। आपकी सेवा करनेके योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलोंकी मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तोंहीतक है॥ १॥

मूल (चौपाई)

यह हमारि अति बड़ि सेवकाई।
लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती।
कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हमलोग जड़ जीव हैं, जीवोंकी हिंसा करनेवाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

पाप करत निसि बासर जाहीं।
नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ।
यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमरमें कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं। हममें स्वप्नमें भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्रीरघुनाथजीके दर्शनका प्रभाव है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जब तें प्रभु पद पदुम निहारे।
मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे।
तिन्ह के भाग सराहन लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे प्रभुके चरणकमल देखे, तबसे हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गये। वनवासियोंके वचन सुनकर अयोध्याके लोग प्रेममें भर गये और उनके भाग्यकी सराहना करने लगे॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब उनके भाग्यकी सराहना करने लगे और प्रेमके वचन सुनाने लगे। उन लोगोंके बोलने और मिलनेका ढंग तथा श्रीसीतारामजीके चरणोंमें उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलोंकी वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेमका निरादर करते हैं (उसे धिक्‍कार देते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजीकी कृपा है कि लोहा नौकाको अपने ऊपर लेकर तैर गया।

सोरठा

मूल (दोहा)

बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥ २५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग दिनोंदिन परम आनन्दित होते हुए वनमें चारों ओर विचरते हैं, जैसे पहली वर्षाके जलसे मेढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं)॥ २५१॥

मूल (चौपाई)

पुर जन नारि मगन अति प्रीती।
बासर जाहिं पलक सम बीती॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई।
सादर करइ सरिस सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यापुरीके पुरुष और स्त्री सभी प्रेममें अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पलके समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओंकी आदरपूर्वक एक-सी सेवा करती हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

लखा न मरमु राम बिनु काहूँ।
माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं।
तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके सिवा इस भेदको और किसीने नहीं जाना। सब मायाएँ [पराशक्ति महामाया] श्रीसीताजीकी मायामें ही हैं। सीताजीने सासुओंको सेवासे वशमें कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

लखि सिय सहित सरल दोउ भाई।
कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई।
महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीसमेत दोनों भाइयों (श्रीराम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछतायी। वह पृथ्वी तथा यमराजसे याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जानेके लिये रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं।
राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं।
राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोक और वेदमें प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्रीरामजीसे विमुख हैं उन्हें नरकमें भी ठौर नहीं मिलती। सबके मनमें यह सन्देह हो रहा था कि हे विधाता! श्रीरामचन्द्रजीका अयोध्या जाना होगा या नहीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥ २५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीको न तो रातको नींद आती है, न दिनमें भूख ही लगती है। वे पवित्र सोचमें ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़में डूबी हुई मछलीको जलकी कमीसे व्याकुलता होती है॥ २५२॥

मूल (चौपाई)

कीन्हि मातु मिस काल कुचाली।
ईति भीति जस पाकत साली॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू।
मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥

अनुवाद (हिन्दी)

[भरतजी सोचते हैं कि] माताके मिससे कालने कुचाल की है। जैसे धानके पकते समय ईतिका भय आ उपस्थित हो। अब श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता॥ १॥

मूल (चौपाई)

अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी।
मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ।
राम जननि हठ करबि कि काऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीकी आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्याको लौट चलेंगे। परन्तु मुनि वसिष्ठजी तो श्रीरामचन्द्रजीकी रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे (अर्थात् वे श्रीरामजीकी रुचि देखे बिना जानेको नहीं कहेंगे)। माता कौसल्याजीके कहनेसे भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजीको जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी?॥ २॥

मूल (चौपाई)

मोहि अनुचर कर केतिक बाता।
तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू।
हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझ सेवककी तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवकका धर्म शिवजीके पर्वत कैलाससे भी भारी (निबाहनेमें कठिन) है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एकउ जुगुति न मन ठहरानी।
सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई।
बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक भी युक्ति भरतजीके मनमें न ठहरी। सोचते-ही-सोचते रात बीत गयी। भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वसिष्ठजीने उनको बुलवा भेजा॥४॥

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