३३ भरद्वाजद्वारा भरतका सत्कार

दोहा

मूल (दोहा)

करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥ २१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीने उनका समाधान करके कहा—अब आपलोग हमारे प्रेमप्रिय अतिथि बनिये और कृपा करके कन्द-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिये॥ २१२॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू।
भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी।
चरन बंदि बोले कर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके वचन सुनकर भरतके हृदयमें सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनोंकी वाणीको महत्त्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए।
सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजीके ये वचन मुनिश्रेष्ठके मनको अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्योंको पास बुलाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई।
कंद मूल फल आनहु जाई॥
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए।
प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा कि] भरतकी पहुनई करनी चाहिये। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होंने ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनन्दित होकर अपने-अपने कामको चल दिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता।
तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं।
आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिको चिन्ता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमानको न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिये। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गयीं [और बोलीं—] हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥ २१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिराजने प्रसन्न होकर कहा—छोटे भाई शत्रुघ्न और समाजसहित भरतजी श्रीरामचन्द्रजीके विरहमें व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य-सत्कार) करके इनके श्रमको दूर करो॥ २१३॥

मूल (चौपाई)

रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी।
बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई।
अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋद्धि-सिद्धिने मुनिराजकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर अपनेको बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपसमें कहने लगीं—श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलनामें कोई नहीं आ सकता॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू।
होइ सुखी सब राज समाजू॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना।
जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मुनिके चरणोंकी वन्दना करके आज वही करना चाहिये जिससे सारा राज-समाज सुखी हो। ऐसा कहकर उन्होंने बहुत-से सुन्दर घर बनाये, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं (लजा जाते हैं)॥ २॥

मूल (चौपाई)

भोग बिभूति भूरि भरि राखे।
देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें।
जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन घरोंमें बहुत-से भोग (इन्द्रियोंके विषय) और ऐश्वर्य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गये। दासी-दास सब प्रकारकी सामग्री लिये हुए मन लगाकर उनके मनोंको देखते रहते हैं (अर्थात् उनके मनकी रुचिके अनुसार करते रहते हैं)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब समाजु सजि सिधि पल माहीं।
जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही।
सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सुखके सामान स्वर्गमें भी स्वप्नमें भी नहीं हैं ऐसे सब सामान सिद्धियोंने पलभरमें सज दिये। पहले तो उन्होंने सब किसीको, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही, सुन्दर सुखदायक निवासस्थान दिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥ २१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर कुटुम्बसहित भरतजीको दिये, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजीने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। [भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियोंको आराम मिले, इसलिये उनके मनकी बात जानकर मुनिने पहले उन लोगोंको स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजीको स्थान देनेके लिये आज्ञा दी थी।] मुनिश्रेष्ठने तपोबलसे ब्रह्माको भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया॥ २१४॥

मूल (चौपाई)

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका।
सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी।
देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भरतजीने मुनिके प्रभावको देखा तो उसके सामने उन्हें [इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि] सभी लोकपालोंके लोक तुच्छ जान पड़े। सुखकी सामग्रीका वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानीलोग भी वैराग्य भूल जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

आसन सयन सुबसन बिताना।
बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना।
बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँतिके पक्षी और पशु, सुगन्धित फूल और अमृतके समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकारके (तालाब, कुएँ, बावली आदि) निर्मल जलाशय,॥ २॥

मूल (चौपाई)

असन पान सुचि अमिअ अमी से।
देखि लोग सकुचात जमी से॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें।
लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा अमृतके भी अमृत-सरीखे पवित्र खान-पानके पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं। सभीके डेरोंमें [मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले] कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राणीको भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी।
सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा।
देखि हरष बिसमय बस लोगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसन्त-ऋतु है। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकारकी हवा बह रही है। सभीको [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चन्दन, स्त्री आदिक भोगोंको देखकर सब लोग हर्ष और विषादके वश हो रहे हैं। [हर्ष तो भोग-सामग्रियोंको और मुनिके तपःप्रभावको देखकर होता है और विषाद इस बातसे होता है कि श्रीरामके वियोगमें नियम-व्रतसे रहनेवाले हमलोग भोग-विलासमें क्यों आ फँसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतोंको न त्याग दे]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥ २१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पत्ति (भोग-विलासकी सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनिकी आज्ञा खेल है, जिसने उस रातको आश्रमरूपी पिंजड़ेमें दोनोंको बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया। [जैसे किसी बहेलियेके द्वारा एक पिंजड़ेमें रखे जानेपर भी चकवी-चकवेका रातको संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजीकी आज्ञासे रातभर भोग-सामग्रियोंके साथ रहनेपर भी भरतजीने मनसे भी उनका स्पर्शतक नहीं किया।]॥ २१५॥

भागसूचना

मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम

मूल (चौपाई)

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा।
नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी।
करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[प्रातःकाल] भरतजीने तीर्थराजमें स्नान किया और समाजसहित मुनिको सिर नवाकर और ऋषिकी आज्ञा तथा आशीर्वादको सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की॥ १॥

मूल (चौपाई)

पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें।
चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू।
चलत देह धरि जनु अनुरागू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रास्तेकी पहचान रखनेवाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगोंको लिये हुए भरतजी चित्रकूटमें चित्त लगाये चले। भरतजी रामसखा गुहके हाथमें हाथ दिये हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये हुए हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया।
पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी।
पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो उनके पैरोंमें जूते हैं और न सिरपर छाया है। उनका प्रेम, नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराजसे लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीके रास्तेकी बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणीसे कहता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम बास थल बिटप बिलोकें।
उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला।
भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके ठहरनेकी जगहों और वृक्षोंको देखकर उनके हृदयमें प्रेम रोके नहीं रुकता। भरतजीकी यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गयी और मार्ग मङ्गलका मूल बन गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥ २१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

बादल छाया किये जा रहे हैं, सुख देनेवाली सुन्दर हवा बह रही है। भरतजीके जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचन्द्रजीको भी नहीं हुआ था॥ २१६॥

मूल (चौपाई)

जड़ चेतन मग जीव घनेरे।
जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
ते सब भए परम पद जोगू।
भरत दरस मेटा भव रोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमेंसे जिनको प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखा वे सब [उसी समय] परमपदके अधिकारी हो गये। परन्तु अब भरतजीके दर्शनने तो उनका भव (जन्म-मरण)-रूपी रोग मिटा ही दिया। [श्रीरामदर्शनसे तो वे परमपदके अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरतदर्शनसे उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया]॥ १॥

मूल (चौपाई)

यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं।
सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
बारक राम कहत जग जेऊ।
होत तरन तारन नर तेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मनमें स्मरण करते रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार ‘राम’ कह लेते हैं, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते हैं!॥ २॥

मूल (चौपाई)

भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता।
कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं।
भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भरतजी तो श्रीरामचन्द्रजीके प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिये मार्ग मङ्गल (सुख) दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजीको देखकर हृदयमें हर्ष-लाभ करते हैं॥ ३॥

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