३२ भरतजीका प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज-संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥ २०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेममें उमँग-उमँगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरतजीने तीसरे पहर प्रयागमें प्रवेश किया॥ २०३॥

मूल (चौपाई)

झलका झलकत पायन्ह कैसें।
पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू।
भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके चरणोंमें छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमलकी कलीपर ओसकी बूँदें चमकती हों। भरतजी आज पैदल ही चलकर आये हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

खबरि लीन्ह सब लोग नहाए।
कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥
सबिधि सितासित नीर नहाने।
दिए दान महिसुर सनमाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भरतजीने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणीपर आकर उन्हें प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक [गङ्गा-यमुनाके] श्वेत और श्याम जलमें स्नान किया और दान देकर ब्राह्मणोंका सम्मान किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखत स्यामल धवल हलोरे।
पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥
सकल कामप्रद तीरथराऊ।
बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्याम और सफेद (यमुनाजी और गङ्गाजीकी) लहरोंको देखकर भरतजीका शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा—हे तीर्थराज! आप समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। आपका प्रभाव वेदोंमें प्रसिद्ध और संसारमें प्रकट है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मागउँ भीख त्यागि निज धरमू।
आरत काह न करइ कुकरमू॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी।
सफल करहिं जग जाचक बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपना धर्म (न माँगनेका क्षत्रियधर्म) त्यागकर आपसे भीख माँगता हूँ। आर्त्त मनुष्य कौन-सा कुकर्म नहीं करता? ऐसा हृदयमें जानकर सुजान उत्तम दानी जगत् में माँगनेवालेकी वाणीको सफल किया करते हैं (अर्थात् वह जो माँगता है, सो दे देते हैं)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥ २०४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे न अर्थकी रुचि (इच्छा) है, न धर्मकी, न कामकी और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्ममें मेरा श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥ २०४॥

मूल (चौपाई)

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही।
लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें।
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं श्रीरामचन्द्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामिद्रोही भले ही कहें; पर श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम आपकी कृपासे दिन-दिन बढ़ता ही रहे॥ १॥

मूल (चौपाई)

जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ।
जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई।
बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघ चाहे जन्मभर चातककी सुधि भुला दे और जल माँगनेपर वह चाहे वज्र और पत्थर (ओले) ही गिरावे, पर चातककी रटन घटनेसे तो उसकी बात ही घट जायगी (प्रतिष्ठा ही नष्ट हो जायगी)। उसकी तो प्रेम बढ़नेमें ही सब तरहसे भलाई है॥ २॥

मूल (चौपाई)

कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें।
तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी।
भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तपानेसे सोनेपर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही प्रियतमके चरणोंमें प्रेमका नियम निबाहनेसे प्रेमी सेवकका गौरव बढ़ जाता है। भरतजीके वचन सुनकर बीच त्रिवेणीमेंसे सुन्दर मङ्गल देनेवाली कोमल वाणी हुई॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू।
राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं।
तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात भरत! तुम सब प्रकारसे साधु हो। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मनमें ग्लानि कर रहे हो। श्रीरामचन्द्रको तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥ २०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिवेणीजीके अनुकूल वचन सुनकर भरतजीका शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें हर्ष छा गया। भरतजी धन्य हैं, धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे॥ २०५॥

मूल (चौपाई)

प्रमुदित तीरथराज निवासी।
बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा।
भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीर्थराज प्रयागमें रहनेवाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुत ही आनन्दित हैं और दस-पाँच मिलकर आपसमें कहते हैं कि भरतजीका प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए।
भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे।
मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर गुणसमूहोंको सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीके पास आये। मुनिने भरतजीको दण्डवत्-प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान् सौभाग्य समझा॥ २॥

मूल (चौपाई)

धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे।
दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे।
चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने दौड़कर भरतजीको उठाकर हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनिने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोचके घरमें घुस जाना चाहते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू।
बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई।
बिधि करतब पर किछु न बसाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मनमें यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे [तो मैं क्या उत्तर दूँगा]। भरतजीके शील और संकोचको देखकर ऋषि बोले—भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाताके कर्तव्यपर कुछ वश नहीं चलता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥ २०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताकी करतूतको समझकर (याद करके) तुम हृदयमें ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयीका कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गयी थी॥ २०६॥

मूल (चौपाई)

यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ।
लोकु बेदु बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई।
पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानोंको मान्य है। किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

लोक बेद संमत सबु कहई।
जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई।
देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह लोक और वेद दोनोंको मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम गवनु बन अनरथ मूला।
जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी।
करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे अनर्थकी जड़ तो श्रीरामचन्द्रजीका वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसारको पीड़ा हुई। वह श्रीरामका वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्तमें पछतायी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू।
कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू।
रामहि होत सुनत संतोषू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक-सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको भी सन्तोष ही होता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥ २०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिये उचित था। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम होना ही संसारमें समस्त सुन्दर मङ्गलोंका मूल है॥ २०७॥

मूल (चौपाई)

सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना।
भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता।
दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सो वह (श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात! तुम्हारे लिये यह आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि तुम दशरथजीके पुत्र और श्रीरामचन्द्रजीके प्यारे भाई हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु भरत रघुबर मन माहीं।
पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती।
निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! सुनो, श्रीरामचन्द्रजीके मनमें तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी तीनोंको सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेमके साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती॥ २॥

मूल (चौपाई)

जाना मरमु नहात प्रयागा।
मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें।
सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रयागराजमें जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेममें मग्न हो रहे थे। तुमपर श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा ही (अगाध) स्नेह है जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्यका संसारमें सुखमय जीवनपर होता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

यह न अधिक रघुबीर बड़ाई।
प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू।
धरें देह जनु राम सनेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह श्रीरघुनाथजीकी बहुत बड़ाई नहीं है। क्योंकि श्रीरघुनाथजी तो शरणागतके कुटुम्बभरको पालनेवाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामजीके प्रेम ही हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥ २०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! तुम्हारे लिये (तुम्हारी समझमें) यह कलङ्क है, पर हम सबके लिये तो उपदेश है। श्रीरामभक्तिरूपी रसकी सिद्धिके लिये यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है॥ २०८॥

मूल (चौपाई)

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा।
रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना।
घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्रीरामचन्द्रजीके दास कुमुद और चकोर हैं [वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोरको दुःख होता है]; परन्तु यह तुम्हारा यशरूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं। जगद्रूपी आकाशमें यह घटेगा नहीं, वरं दिन-दिन दूना होगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

कोक तिलोक प्रीति अति करिही।
प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू।
ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रैलोक्यरूपी चकवा इस यशरूपी चन्द्रमापर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका प्रतापरूपी सूर्य इसकी छविको हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा रात-दिन सदा सब किसीको सुख देनेवाला होगा। कैकेयीका कुकर्मरूपी राहु इसे ग्रास नहीं करेगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

पूरन राम सुपेम पियूषा।
गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
रामभगत अब अमिअँ अघाहूँ।
कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर प्रेमरूपी अमृतसे पूर्ण है। यह गुरुके अपमानरूपी दोषसे दूषित नहीं है। तुमने इस यशरूपी चन्द्रमाकी सृष्टि करके पृथ्वीपर भी अमृतको सुलभ कर दिया। अब श्रीरामजीके भक्त इस अमृतसे तृप्त हो लें॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भूप भगीरथ सुरसरि आनी।
सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं।
अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भगीरथ गङ्गाजीको लाये, जिन (गङ्गाजी) का स्मरण ही सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलोंकी खान है। दशरथजीके गुणसमूहोंका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरीका जगत् में कोई नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥ २०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके प्रेम और संकोच (शील) के वशमें होकर स्वयं [सच्चिदानन्दघन] भगवान् श्रीराम आकर प्रकट हुए, जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदयके नेत्रोंसे कभी अघाकर नहीं देख पाये (अर्थात् जिनका स्वरूप हृदयमें देखते-देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं हुए)॥ २०९॥

मूल (चौपाई)

कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा।
जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ।
डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[परन्तु उनसे भी बढ़कर] तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमाको उत्पन्न किया, जिसमें श्रीरामप्रेम ही हिरनके [चिह्नके] रूपमें बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदयमें ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रतासे डर रहे हो!॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं।
उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा।
लखन राम सिय दरसनु पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसीका पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं (किसीकी मुँहदेखी नहीं कहते) और वनमें रहते हैं (किसीसे कुछ प्रयोजन नहीं रखते)। सब साधनोंका उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजीका दर्शन प्राप्त हुआ॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा।
सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ।
कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[सीता-लक्ष्मणसहित श्रीरामदर्शनरूप] उस महान् फलका परम फल यह तुम्हारा दर्शन है। प्रयागराजसमेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यशसे जगत् को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेममें मग्न हो गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन सभासद हरषे।
साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा।
सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाज मुनिके वचन सुनकर सभासद् हर्षित हो गये। ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओंने फूल बरसाये। आकाशमें और प्रयागराजमें ‘धन्य, धन्य’ की ध्वनि सुन-सुनकर भरतजी प्रेममें मग्न हो रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥२१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका शरीर पुलकित है, हृदयमें श्रीसीतारामजी हैं और कमलके समान नेत्र [प्रेमाश्रुके] जलसे भरे हैं। वे मुनियोंकी मण्डलीको प्रणाम करके गद्गद वचन बोले—॥ २१०॥

मूल (चौपाई)

मुनि समाजु अरु तीरथराजू।
साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई।
एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनियोंका समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खानेसे भी भरपूर हानि होती है। इस स्थानमें यदि कुछ बनाकर कहा जाय, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी॥१॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ।
उर अंतरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू।
नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सच्चे भावसे कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयीकी करनीका कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मनमें इसी बातका दुःख है कि जगत् मुझे नीच समझेगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू।
पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए।
लछिमन राम सरिस सुत पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जायगा और न पिताजीके मरनेका ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुन्दर पुण्य और सुयश विश्वभरमें सुशोभित है। उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण-सरीखे पुत्र पाये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू।
भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं।
करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके विरहमें अपने क्षणभङ्गुर शरीरको त्याग दिया, ऐसे राजाके लिये सोच करनेका कौन प्रसंग है? [सोच इसी बातका है कि] श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरोंमें बिना जूतीके मुनियोंका वेष बनाये वन-वनमें फिरते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥ २११॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलोंका भोजन करते हैं, पृथ्वीपर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षोंके नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं॥ २११॥

मूल (चौपाई)

एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती।
भूख न बासर नीद न राती॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं।
सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दुःखकी जलनसे निरन्तर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिनमें भूख लगती है, न रातको नींद आती है। मैंने मन-ही-मन समस्त विश्वको खोज डाला, पर इस कुरोगकी औषध कहीं नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

मातु कुमत बढ़ई अघ मूला।
तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू।
गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताका कुमत (बुरा विचार) पापोंका मूल बढ़ई है। उसने हमारे हितका बसूला बनाया। उससे कलहरूपी कुकाठका कुयन्त्र बनाया और चौदह वर्षकी अवधिरूपी कठिन कुमन्त्र पढ़कर उस यन्त्रको गाड़ दिया। [यहाँ माताका कुविचार बढ़ई है, भरतको राज्य बसूला है, रामका वनवास कुयन्त्र है और चौदह वर्षकी अवधि कुमन्त्र है]॥ २॥

मूल (चौपाई)

मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा।
घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ।
बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे लिये उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत् को बारहबाट (छिन्न-भिन्न) करके नष्ट कर डाला। यह कुयोग श्रीरामचन्द्रजीके लौट आनेपर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपायसे नहीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई।
सबहिं कीन्हि बहु भाँति बड़ाई॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी।
सब दुखु मिटिहि राम पग देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके वचन सुनकर मुनिने सुख पाया और सभीने उनकी बहुत प्रकारसे बड़ाई की। [मुनिने कहा—] हे तात! अधिक सोच मत करो। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका दर्शन करते ही सारा दुःख मिट जायगा॥ ४॥

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