२७ भरत-कौसल्या-संवाद और दशरथजीकी अन्त्येष्टि क्रिया

दोहा

मूल (दोहा)

मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥ १६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरेका रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही हैं, दुःखके बोझसे शरीर सूख गया है। ऐसी दीख रही हैं मानो सोनेकी सुन्दर कल्पलताको वनमें पाला मार गया हो॥ १६३॥

मूल (चौपाई)

भरतहि देखि मातु उठि धाई।
मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी।
परे चरन तन दसा बिसारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतको देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जानेसे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बडे़ व्याकुल हो गये और शरीरकी सुध भुलाकर चरणोंमें गिर पड़े॥ १॥

मूल (चौपाई)

मातु तात कहँ देहि देखाई।
कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा।
जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[फिर बोले—] माता! पिताजी कहाँ हैं? उन्हें दिखा दे। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम-लक्ष्मण कहाँ हैं? [उन्हें दिखा दे।] कैकेयी जगत् में क्यों जनमी? और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई?—॥ २॥

मूल (चौपाई)

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही।
अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी।
गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने कुलके कलंक, अपयशके भाँड़े और प्रियजनोंके द्रोही मुझ-जैसे पुत्रको उत्पन्न किया। तीनों लोकोंमें मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण, हे माता! तेरी यह दशा हुई!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पितु सुरपुर बन रघुबर केतू।
मैं केवल सब अनरथ हेतू॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी।
दुसह दाह दुख दूषन भागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी स्वर्गमें हैं और श्रीरामजी वनमें हैं। केतुके समान केवल मैं ही इन सब अनर्थोंका कारण हूँ। मुझे धिक्‍कार है! मैं बाँसके वनमें आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुःख और दोषोंका भागी बना॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी सँभारि।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥ १६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर सँभलकर उठीं। उन्होंने भरतको उठाकर छातीसे लगा लिया और नेत्रोंसे आँसू बहाने लगीं॥ १६४॥

मूल (चौपाई)

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए।
अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई।
सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरल स्वभाववाली माताने बड़े प्रेमसे भरतजीको छातीसे लगा लिया; मानो श्रीरामजी ही लौटकर आ गये हों। फिर लक्ष्मणजीके छोटे भाई शत्रुघ्नको हृदयसे लगाया। शोक और स्नेह हृदयमें समाता नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखि सुभाउ कहत सबु कोई।
राम मातु अस काहे न होई॥
माताँ भरतु गोद बैठारे।
आँसु पोंछि मृदु बचन उचारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीका स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं—श्रीरामकी माताका ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माताने भरतजीको गोदमें बैठा लिया और उनके आँसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं—॥ २॥

मूल (चौपाई)

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू।
कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी।
काल करम गति अघटित जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वत्स! मैं बलैया लेती हूँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्मकी गति अमिट जानकर हृदयमें हानि और ग्लानि मत मानो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

काहुहि दोसु देहु जनि ताता।
भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा।
अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! किसीको दोष मत दो। विधाता मुझको सब प्रकारसे उलटा हो गया है, जो इतने दुःखपर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर॥ १६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! पिताकी आज्ञासे श्रीरघुवीरने भूषण-वस्त्र त्याग दिये और वल्कल-वस्त्र पहन लिये। उनके हृदयमें न कुछ विषाद था, न हर्ष!॥ १६५॥

मूल (चौपाई)

मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू।
सब कर सब बिधि करि परितोषू॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी।
रहइ न राम चरन अनुरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका मुख प्रसन्न था, मनमें न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष)। सबका सब तरहसे सन्तोष कराकर वे वनको चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गयीं। श्रीरामके चरणोंकी अनुरागिणी वे किसी तरह न रहीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनतहिं लखनु चले उठि साथा।
रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई।
चले संग सिय अरु लघु भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। श्रीरघुनाथने उन्हें रोकनेके बहुत यत्न किये, पर वे न रहे। तब श्रीरघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मणको साथ लेकर चले गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

रामु लखनु सिय बनहि सिधाए।
गइउँ न संग न प्रान पठाए॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें।
तउ न तजा तनु जीव अभागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वनको चले गये। मैं न तो साथ ही गयी और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब इन्हीं आँखोंके सामने हुआ। तो भी अभागे जीवने शरीर नहीं छोड़ा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोहि न लाज निज नेहु निहारी।
राम सरिस सुत मैं महतारी॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना।
मोर हृदय सत कुलिस समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने स्नेहकी ओर देखकर मुझे लाज भी नहीं आती; राम-सरीखे पुत्रकी मैं माता! जीना और मरना तो राजाने खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रोंके समान कठोर है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवासु।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥ १६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्याजीके वचनोंको सुनकर भरतसहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो शोकका निवास बन गया॥ १६६॥

मूल (चौपाई)

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई।
कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥
भाँति अनेक भरतु समुझाए।
कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजीने उनको हृदयसे लगा लिया। अनेकों प्रकारसे भरतजीको समझाया और बहुत-सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनायीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरतहुँ मातु सकल समुझाईं।
कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी।
बोले भरत जोरि जुग पानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने भी सब माताओंको पुराण और वेदोंकी सुन्दर कथाएँ कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरतजी छलरहित, पवित्र और सीधी सुन्दर वाणी बोले—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे अघ मातु पिता सुत मारें।
गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें।
मीत महीपति माहुर दीन्हें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पाप माता-पिता और पुत्रके मारनेसे होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणोंके नगर जलानेसे होते हैं; जो पाप स्त्री और बालककी हत्या करनेसे होते हैं और जो मित्र और राजाको जहर देनेसे होते हैं—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जे पातक उपपातक अहहीं।
करम बचन मन भव कबि कहहीं॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता।
जौं यहु होइ मोर मत माता॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्म, वचन और मनसे होनेवाले जितने पातक एवं उपपातक (बड़े-छोटे पाप) हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं; हे विधाता! यदि इस काममें मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥ १६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग श्रीहरि और श्रीशंकरजीके चरणोंको छोड़कर भयानक भूत-प्रेतोंको भजते हैं, हे माता! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे॥ १६७॥

मूल (चौपाई)

बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं।
पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी।
बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग वेदोंको बेचते हैं, धर्मको दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरोंके पापोंको कह देते हैं; जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदोंकी निन्दा करनेवाले और विश्वभरके विरोधी हैं;॥ १॥

मूल (चौपाई)

लोभी लंपट लोलुपचारा।
जे ताकहिं परधनु परदारा॥
पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा।
जौं जननी यहु संमत मोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोभी, लम्पट और लालचियोंका आचरण करनेवाले हैं; जो पराये धन और परायी स्त्रीकी ताकमें रहते हैं; हे जननी! यदि इस काममें मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गतिको पाऊँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे नहिं साधुसंग अनुरागे।
परमारथ पथ बिमुख अभागे॥
जे न भजहिं हरि नर तनु पाई।
जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका सत्सङ्गमें प्रेम नहीं है; जो अभागे परमार्थके मार्गसे विमुख हैं; जो मनुष्यशरीर पाकर श्रीहरिका भजन नहीं करते; जिनको हरि-हर (भगवान् विष्णु और शंकरजी) का सुयश नहीं सुहाता;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं।
बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं॥
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ।
जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदमार्गको छोड़कर वाम (वेदप्रतिकूल) मार्गपर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत् को छलते हैं; हे माता! यदि मैं इस भेदको जानता भी होऊँ तो शंकरजी मुझे उन लोगोंकी गति दें॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥ १६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता कौसल्याजी भरतजीके स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनोंको सुनकर कहने लगीं—हे तात! तुम तो मन, वचन और शरीरसे सदा ही श्रीरामचन्द्रके प्यारे हो॥ १६८॥

मूल (चौपाई)

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे।
तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी।
होइ बारिचर बारि बिरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम तुम्हारे प्राणोंसे भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्रीरघुनाथको प्राणोंसे भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जलसे विरक्त हो जाय,॥ १॥

मूल (चौपाई)

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू।
तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं।
सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ज्ञान हो जानेपर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम श्रीरामचन्द्रके प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत् में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्नमें भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस कहि मातु भरतु हियँ लाए।
थन पय स्रवहिं नयन जल छाए॥
करत बिलाप बहुत एहि भाँती।
बैठेहिं बीति गई सब राती॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर माता कौसल्याने भरतजीको हृदयसे लगा लिया। उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा और नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बामदेउ बसिष्ठ तब आए।
सचिव महाजन सकल बोलाए॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे।
कहि परमारथ बचन सुदेसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वामदेवजी और वसिष्ठजी आये। उन्होंने सब मन्त्रियों तथा महाजनोंको बुलवाया। फिर मुनि वसिष्ठजीने परमार्थके सुन्दर समयानुकूल वचन कहकर बहुत प्रकारसे भरतजीको उपदेश दिया॥ ४॥

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