२६ श्रीभरत-शत्रुघ्नका आगमन और शोक

मूल (चौपाई)

हाट बाट नहिं जाइ निहारी।
जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि।
हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगरमें दसों दिशाओंमें दावाग्नि लगी है! पुत्रको आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमलके लिये चाँदनीरूपी कैकेयी [बड़ी] हर्षित हुई॥ १॥

मूल (चौपाई)

सजि आरती मुदित उठि धाई।
द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥
भरत दुखित परिवारु निहारा।
मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह आरती सजाकर आनन्दमें भरकर उठ दौड़ी और दरवाजेपर ही मिलकर भरत-शत्रुघ्नको महलमें ले आयी। भरतने सारे परिवारको दुखी देखा। मानो कमलोंके वनको पाला मार गया हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

कैकेई हरषित एहि भाँती।
मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतहि ससोच देखि मनु मारें।
पूँछति नैहर कुसल हमारें॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दीखती है मानो भीलनी जंगलमें आग लगाकर आनन्दमें भर रही हो। पुत्रको सोचवश और मनमारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी—हमारे नैहरमें कुशल तो है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सकल कुसल कहि भरत सुनाई।
पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता।
कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने सब कुशल कह सुनायी। फिर अपने कुलकी कुशल-क्षेम पूछी। [भरतजीने कहा—] कहो, पिताजी कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥ १५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रके स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रोंमें कपटका जल भरकर पापिनी कैकेयी भरतके कानोंमें और मनमें शूलके समान चुभनेवाले वचन बोली—॥ १५९॥

मूल (चौपाई)

तात बात मैं सकल सँवारी।
भै मंथरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ।
भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मन्थरा सहायक हुई। पर विधाताने बीचमें जरा-सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोकको पधार गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनत भरतु भए बिबस बिषादा।
जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी।
परे भूमितल ब्याकुल भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरत यह सुनते ही विषादके मारे विवश (बेहाल) हो गये। मानो सिंहकी गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो। वे ‘तात! तात! हा तात!’ पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीनपर गिर पड़े॥ २॥

मूल (चौपाई)

चलत न देखन पायउँ तोही।
तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी।
कहु पितु मरन हेतु महतारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और विलाप करने लगे कि] हे तात! मैं आपको [स्वर्गके लिये] चलते समय देख भी न सका। [हाय!] आप मुझे श्रीरामजीको सौंप भी नहीं गये! फिर धीरज धरकर वे सँभलकर उठे और बोले—माता! पिताके मरनेका कारण तो बताओ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुत बचन कहति कैकेई।
मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी।
कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रका वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थानको पाछकर (चाकूसे चीरकर) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयीने अपनी सब करनी शुरूसे [आखीरतक बड़े] प्रसन्न मनसे सुना दी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥ १६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका वन जाना सुनकर भरतजीको पिताका मरण भूल गया और हृदयमें इस सारे अनर्थका कारण अपनेको ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गये (अर्थात् उनकी बोली बंद हो गयी और वे सन्न रह गये)॥ १६०॥

मूल (चौपाई)

बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति।
मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तात राउ नहिं सोचै जोगू।
बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रको व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जलेपर नमक लगा रही हो। [वह बोली—] हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

जीवत सकल जनम फल पाए।
अंत अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू।
सहित समाज राज पुर करहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवनकालमें ही उन्होंने जन्म लेनेके सम्पूर्ण फल पा लिये और अन्तमें वे इन्द्रलोकको चले गये। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाजसहित नगरका राज्य करो॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुन सुठि सहमेउ राजकुमारू।
पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा।
पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गये। मानो पके घावपर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लंबी साँस लेते हुए कहा—पापिनी! तूने सभी तरहसे कुलका नाश कर दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जौं पै कुरुचि रही अति तोही।
जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा।
मीन जिअन निति बारि उलीचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़को काटकर पत्तेको सींचा है और मछलीके जीनेके लिये पानीको उलीच डाला! (अर्थात् मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥ १६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे सूर्यवंश [-सा वंश], दशरथजी [-सरीखे] पिता और राम-लक्ष्मण-से भाई मिले। पर हे जननी! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई! [क्या किया जाय!] विधातासे कुछ भी वश नहीं चलता॥ १६१॥

मूल (चौपाई)

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ।
खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा।
गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी कुमति! जब तूने हृदयमें यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदयके टुकड़े-टुकड़े [क्यों] न हो गये? वरदान माँगते समय तेरे मनमें कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गयी? तेरे मुँहमें कीड़े नहीं पड़ गये?॥ १॥

मूल (चौपाई)

भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही।
मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी।
सकल कपट अघ अवगुन खानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? [जान पड़ता है,] विधाताने मरनेके समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियोंके हृदयकी गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके । वह सम्पूर्ण कपट, पाप और अवगुणोंकी खान है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सरल सुसील धरम रत राऊ।
सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं।
जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला, स्त्री-स्वभावको कैसे जानते? अरे, जगत् के जीव-जन्तुओंमें ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजी प्राणोंके समान प्यारे नहीं हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भे अति अहित रामु तेउ तोही।
को तू अहसि सत्य कहु मोही॥
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई।
आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गये (वैरी लगे)! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मुँहमें स्याही पोतकर (मुँह काला करके) उठकर मेरी आँखोंकी ओटमें जा बैठ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥ १६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने मुझे श्रीरामजीसे विरोध करनेवाले (तेरे) हृदयसे उत्पन्न किया [अथवा विधाताने मुझे हृदयसे रामका विरोधी जाहिर कर दिया]। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ॥ १६२॥

मूल (चौपाई)

सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई।
जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई।
बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताकी कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजीके सब अङ्ग क्रोधसे जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भाँति-भाँतिके कपड़ों और गहनोंसे सजकर कुबरी (मन्थरा) वहाँ आयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई।
बरत अनल घृत आहुति पाई॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा।
परि मुह भर महि करत पुकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे [सजी] देखकर लक्ष्मणके छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोधमें भर गये। मानो जलती हुई आगको घीकी आहुति मिल गयी हो। उन्होंने जोरसे तककर कूबड़पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुँहके बल जमीनपर गिर पड़ी॥ २॥

मूल (चौपाई)

कूबर टूटेउ फूट कपारू।
दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥
आह दइअ मैं काह नसावा।
करत नीक फलु अनइस पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गये और मुँहसे खून बहने लगा। [वह कराहती हुई बोली—] हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी।
लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई।
कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी यह बात सुनकर और उसे नखसे शिखातक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरतजीने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई [तुरंत] कौसल्याजीके पास गये॥ ४॥

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