२५ मुनि वसिष्ठका भरतजीको बुलानेके लिये दूत भेजना

दोहा

मूल (दोहा)

तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥ १५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसिष्ठ मुनिने समयके अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञानके प्रकाशसे सबका शोक दूर किया॥ १५६॥

मूल (चौपाई)

तेल नावँ भरि नृप तनु राखा।
दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू।
नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने नावमें तेल भरवाकर राजाके शरीरको उसमें रखवा दिया। फिर दूतोंको बुलवाकर उनसे ऐसा कहा—तुमलोग जल्दी दौड़कर भरतके पास जाओ। राजाकी मृत्युका समाचार कहीं किसीसे न कहना॥ १॥

मूल (चौपाई)

एतनेइ कहेहु भरत सन जाई।
गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए।
चले बेग बर बाजि लजाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाकर भरतसे इतना ही कहना कि दोनों भाइयोंको गुरुजीने बुलवा भेजा है। मुनिकी आज्ञा सुनकर धावन (दूत) दौड़े। वे अपने वेगसे उत्तम घोड़ोंको भी लजाते हुए चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

अनरथु अवध अरंभेउ जब तें।
कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥
देखहिं राति भयानक सपना।
जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे अयोध्यामें अनर्थ प्रारम्भ हुआ, तभीसे भरतजीको अपशकुन होने लगे। वे रातको भयङ्कर स्वप्न देखते थे और जागनेपर [उन स्वप्नोंके कारण] करोड़ों (अनेकों) तरहकी बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे॥३॥

मूल (चौपाई)

बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना।
सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई।
कुसल मातु पितु परिजन भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[अनिष्टशान्तिके लिये] वे प्रतिदिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियोंसे रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजीको हृदयमें मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और भाइयोंका कुशल-क्षेम माँगते थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ॥ १५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी इस प्रकार मनमें चिन्ता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरुजीकी आज्ञा कानोंसे सुनते ही वे गणेशजीको मनाकर चल पड़े॥ १५७॥

मूल (चौपाई)

चले समीर बेग हय हाँके।
नाघत सरित सैल बन बाँके॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई।
अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हवाके समान वेगवाले घोड़ोंको हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलोंको लाँघते हुए चले। उनके हृदयमें बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मनमें ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुँच जाऊँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक निमेष बरष सम जाई।
एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा।
रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-एक निमेष वर्षके समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगरके निकट पहुँचे। नगरमें प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरहसे काँव-काँव कर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला।
सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा।
नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरतके मनमें बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

खग मृग हय गय जाहिं न जोए।
राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी।
मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके वियोगरूपी बुरे रोगसे सताये हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी [ऐसे दुखी हो रहे हैं कि] देखे नहीं जाते। नगरके स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुखी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥ १५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं; गौंसे (चुपकेसे) जोहार (वन्दना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसीसे कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मनमें भय और विषाद छा रहा है॥ १५८॥

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