२३ सुमन्त्रका अयोध्याको लौटना और सर्वत्र शोक देखना

दोहा

मूल (दोहा)

भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥ १४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्री और घोड़ोंकी यह दशा देखकर निषादराज विषादके वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथीके साथ कर दिये॥ १४३॥

मूल (चौपाई)

गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई।
बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा।
होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषादराज गुह सारथी (सुमन्त्रजी)-को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःखका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवधको चले। [सुमन्त्र और घोड़ोंको देख-देखकर] वे भी क्षण-क्षणभर विषादमें डूबे जाते थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना।
धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू।
जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्याकुल और दुःखसे दीन हुए सुमन्त्र जी सोचते हैं कि श्रीरघुवीरके बिना जीनेको धिक्‍कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी श्रीरामचन्द्रजीके बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश [क्यों] नहीं ले लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

भए अजस अघ भाजन प्राना।
कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मंद मनु अवसर चूका।
अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये प्राण अपयश और पापके भाँड़े हो गये। अब ये किस कारण कूच नहीं करते (निकलते नहीं)? हाय! नीच मन [बड़ा अच्छा] मौका चूक गया। अब भी तो हृदयके दो टुकड़े नहीं हो जाते!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई।
मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई।
चलेउ समर जनु सुभट पराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कंजूस धनका खजाना खो बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीरका बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्धसे भाग चला हो!॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥ १४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई विवेकशील, वेदका ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणोंवाला और उत्तम जातिका (कुलीन) ब्राह्मण धोखेसे मदिरा पी ले और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मन्त्री सुमन्त्र सोच कर रहे (पछता रहे) हैं॥ १४४॥

मूल (चौपाई)

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी।
पतिदेवता करम मन बानी॥
रहै करम बस परिहरि नाहू।
सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधुस्वभावकी, समझदार और मन,वचन,कर्मसे पतिको ही देवता माननेवाली पतिव्रता स्त्रीको भाग्यवश पतिको छोड़कर (पतिसे अलग) रहना पड़े, उस समय उसके हृदयमें जैसे भयानक सन्ताप होता है, वैसे ही मन्त्रीके हृदयमें हो रहा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

लोचन सजल डीठि भइ थोरी।
सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी।
जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्रोंमें जल भरा है, दृष्टि मन्द हो गयी है। कानोंसे सुनायी नहीं पड़ता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है। ओठ सूख रहे हैं, मुँहमें लाटी लग गयी है। किन्तु [ये सब मृत्युके लक्षण हो जानेपर भी] प्राण नहीं निकलते; क्योंकि हृदयमें अवधिरूपी किवाड़ लगे हैं (अर्थात् चौदह वर्ष बीत जानेपर भगवान् फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रही है)॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिबरन भयउ न जाइ निहारी।
मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी।
जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्रजीके मुखका रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है मानो इन्होंने माता-पिताको मार डाला हो। उनके मनमें रामवियोगरूपी हानिकी महान् ग्लानि (पीड़ा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरकको जाता हुआ रास्तेमें सोच कर रहा हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बचनु न आव हृदयँ पछिताई।
अवध काह मैं देखब जाई॥
राम रहित रथ देखिहि जोई।
सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुँहसे वचन नहीं निकलते। हृदयमें पछताते हैं कि मैं अयोध्यामें जाकर क्या देखूँगा? श्रीरामचन्द्रजीसे शून्य रथको जो भी देखेगा, वही मुझे देखनेमें संकोच करेगा (अर्थात् मेरा मुँह नहीं देखना चाहेगा)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥ १४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदयपर वज्र रखकर सबको उत्तर दूँगा॥ १४५॥

मूल (चौपाई)

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता।
कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता॥
पूछिहि जबहिं लखन महतारी।
कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दीन-दुखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजीकी माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उन्हें कौन-सा सुखदायी सँदेसा कहूँगा?॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम जननि जब आइहि धाई।
सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही।
गे बनु राम लखनु बैदेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे नयी ब्यायी हुई गौ बछड़ेको याद करके दौड़ी आती है, तब उनके पूछनेपर मैं उन्हें यह उत्तर दूँगा कि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता वनको चले गये!॥ २॥

मूल (चौपाई)

जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।
जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना।
जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुःखसे दीन महाराज, जिनका जीवन श्रीरघुनाथजीके [दर्शनके] ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई।
आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू ।
तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैं कौन-सा मुँह लेकर उन्हें उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारोंको कुशलपूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीरामका समाचार सुनते ही महाराज तिनकेकी तरह शरीरको त्याग देंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥ १४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रियतम (श्रीरामजी) रूपी जलके बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूँ कि विधाताने मुझे यह ‘यातनाशरीर’ ही दिया है [जो पापी जीवोंको नरक भोगनेके लिये मिलता है]॥ १४६॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि करत पंथ पछितावा।
तमसा तीर तुरत रथु आवा॥
बिदा किए करि बिनय निषादा।
फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्र इस प्रकार मार्गमें पछतावा कर रहे थे, इतनेमें ही रथ तुरंत तमसा नदीके तटपर आ पहुँचा। मन्त्रीने विनय करके चारों निषादोंको विदा किया। वे विषादसे व्याकुल होते हुए सुमन्त्रके पैरों पड़कर लौटे॥ १॥

मूल (चौपाई)

पैठत नगर सचिव सकुचाई।
जनु मारेसि गुर बाँभन गाई॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा।
साँझ समय तब अवसरु पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरमें प्रवेश करते मन्त्री [ग्लानिके कारण] ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौको मारकर आये हों। सारा दिन एक पेड़के नीचे बैठकर बिताया। जब सन्ध्या हुई तब मौका मिला॥ २॥

मूल (चौपाई)

अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें।
पैठ भवन रथु राखि दुआरें॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए।
भूप द्वार रथु देखन आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

अँधेरा होनेपर उन्होंने अयोध्यामें प्रवेश किया और रथको दरवाजेपर खड़ा करके वे [चुपके-से] महलमें घुसे। जिन-जिन लोगोंने यह समाचार सुन पाया, वे सभी रथ देखनेको राजद्वारपर आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे।
गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैसें।
निघटत नीर मीनगन जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथको पहचानकर और घोड़ोंको व्याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे हैं (क्षीण हो रहे हैं) जैसे घाममें ओले! नगरके स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल हैं जैसे जलके घटनेपर मछलियाँ [व्याकुल होती हैं]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥ १४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रीका [अकेले ही] आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतोंका निवासस्थान (श्मशान) हो॥ १४७॥

मूल (चौपाई)

अति आरति सब पूँछहिं रानी।
उतरु न आव बिकल भइ बानी॥
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा।
कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं; पर सुमन्त्रको कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गयी (रुक गयी) है। न कानोंसे सुनायी पड़ता है और न आँखोंसे कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं—कहो, राजा कहाँ हैं?॥ १॥

मूल (चौपाई)

दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई।
कौसल्या गृहँ गईं लवाई॥
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा।
अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दासियाँ मन्त्रीको व्याकुल देखकर उन्हें कौसल्याजीके महलमें लिवा गयीं। सुमन्त्रने जाकर वहाँ राजाको कैसा [बैठे] देखा मानो बिना अमृतका चन्द्रमा हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

आसन सयन बिभूषन हीना।
परेउ भूमितल निपट मलीना॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती।
सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा आसन, शय्या और आभूषणोंसे रहित बिलकुल मलिन (उदास) पृथ्वीपर पड़े हुए हैं। वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं मानो राजा ययाति स्वर्गसे गिरकर सोच कर रहे हों॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती।
जनु जरि पंख परेउ संपाती॥
राम राम कह राम सनेही।
पुनि कह राम लखन बैदेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा क्षण-क्षणमें सोचसे छाती भर लेते हैं। ऐसी विकल दशा है मानो [गीधराज जटायुका भाई] सम्पाती पंखोंके जल जानेपर गिर पड़ा हो। राजा [बार-बार] ‘राम, राम’, ‘हा स्नेही (प्यारे) राम!’ कहते हैं, फिर ‘हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी’ ऐसा कहने लगते हैं॥ ४॥

Misc Detail