२२ चित्रकूटमें निवास, कोल-भीलोंके द्वारा सेवा

दोहा

मूल (दोहा)

चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥ १३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुनि वाल्मीकिजीने चित्रकूटकी अपरिमित महिमा बखानकर कही। तब सीताजीसहित दोनों भाइयोंने आकर श्रेष्ठ नदी मन्दाकिनीमें स्नान किया॥ १३२॥

मूल (चौपाई)

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू।
करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा।
चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने कहा—लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरनेकी व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजीने पयस्विनी नदीके उत्तरके ऊँचे किनारेको देखा [और कहा कि—] इसके चारों ओर धनुषके-जैसा एक नाला फिरा हुआ है॥ १॥

मूल (चौपाई)

नदी पनच सर सम दम दाना।
सकल कलुष कलि साउज नाना॥
चित्रकूट जनु अचल अहेरी।
चुकइ न घात मार मुठभेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदी (मन्दाकिनी) उस धनुषकी प्रत्यञ्चा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुगके समस्त पाप उसके अनेकों हिंसक पशु [रूप निशाने] हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामनेसे मारता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस कहि लखन ठाउँ देखरावा।
थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना।
चले सहित सुर थपति प्रधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर लक्ष्मणजीने स्थान दिखलाया। स्थानको देखकर श्रीरामचन्द्रजीने सुख पाया। जब देवताओंने जाना कि श्रीरामचन्द्रजीका मन यहाँ रम गया तब वे देवताओंके प्रधान थवई (मकान बनानेवाले) विश्वकर्माको साथ लेकर चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कोल किरात बेष सब आए।
रचे परन तृन सदन सुहाए॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला।
एक ललित लघु एक बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब देवता कोल-भीलोंके वेषमें आये और उन्होंने [दिव्य] पत्तों और घासोंके सुन्दर घर बना दिये। दो ऐसी सुन्दर कुटियाँ बनायीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुन्दर छोटी-सी थी और दूसरी बड़ी थी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥ १३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी और जानकीजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर घास-पत्तोंके घरमें शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनिका वेष धारण करके पत्नी रति और वसन्त-ऋतुके साथ सुशोभित हो॥ १३३॥

भागसूचना

मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम

मूल (चौपाई)

अमर नाग किंनर दिसिपाला।
चित्रकूट आए तेहि काला॥
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू।
मुदित देव लहि लोचन लाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूटमें आये और श्रीरामचन्द्रजीने सब किसीको प्रणाम किया। देवता नेत्रोंका लाभ पाकर आनन्दित हुए॥ १॥

मूल (चौपाई)

बरषि सुमन कह देव समाजू।
नाथ सनाथ भए हम आजू॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए।
हरषित निज निज सदन सिधाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

फूलोंकी वर्षा करके देवसमाजने कहा—हे नाथ! आज [आपका दर्शन पाकर] हम सनाथ हो गये। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाये और [दुःखोंके नाशका आश्वासन पाकर] हर्षित होकर अपने-अपने स्थानोंको चले गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

चित्रकूट रघुनंदनु छाए।
समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥
आवत देखि मुदित मुनिबृंदा।
कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी चित्रकूटमें आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत-से मुनि आये। रघुकुलके चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजीने मुदित हुई मुनिमण्डलीको आते देखकर दण्डवत् प्रणाम किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं।
सुफल होन हित आसिष देहीं॥
सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं।
साधन सकल सफल करि लेखहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिगण श्रीरामजीको हृदयसे लगा लेते हैं और सफल होनेके लिये आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखते हैं और अपने सारे साधनोंको सफल हुआ समझते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।
करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥ १३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने यथायोग्य सम्मान करके मुनिमण्डलीको विदा किया। [श्रीरामचन्द्रजीके आ जानेसे] वे सब अपने-अपने आश्रमोंमें अब स्वतन्त्रताके साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे॥ १३४॥

मूल (चौपाई)

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई।
हरषे जनु नव निधि घर आई॥
कंद मूल फल भरि भरि दोना।
चले रंक जनु लूटन सोना॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह (श्रीरामजीके आगमनका) समाचार जब कोल-भीलोंने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घरहीपर आ गयी हों। वे दोनोंमें कन्द, मूल, फल भर-भरकर चले। मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता।
अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई।
आइ सबन्हि देखे रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे जो दोनों भाइयोंको [पहले] देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्तेमें जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीकी सुन्दरता कहते-सुनते सबने आकर श्रीरघुनाथजीके दर्शन किये॥ २॥

मूल (चौपाई)

करहिं जोहारु भेंट धरि आगे।
प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े।
पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥

अनुवाद (हिन्दी)

भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुरागके साथ प्रभुको देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ-के-तहाँ मानो चित्रलिखे-से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंके जलकी बाढ़ आ रही है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम सनेह मगन सब जाने।
कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी।
बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने उन सबको प्रेममें मग्न जाना, और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥ १३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! प्रभु (आप) के चरणोंका दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गये। हे कोसलराज! हमारे ही भाग्यसे आपका यहाँ शुभागमन हुआ है॥ १३५॥

मूल (चौपाई)

धन्य भूमि बन पंथ पहारा।
जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥
धन्य बिहग मृग काननचारी।
सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वनमें विचरनेवाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफलजन्म हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

हम सब धन्य सहित परिवारा।
दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी।
इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम सब भी अपने परिवारसहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओंमें आप सुखी रहियेगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

हम सब भाँति करब सेवकाई।
करि केहरि अहि बाघ बराई॥
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा।
सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग सब प्रकारसे हाथी, सिंह, सर्प और बाघोंसे बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो! यहाँके बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर्रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब।
सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥
हम सेवक परिवार समेता।
नाथ न सकुचब आयसु देता॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानोंमें) आपको शिकार खिलावेंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयोंको दिखावेंगे। हम कुटुम्बसमेत आपके सेवक हैं। हे नाथ! इसलिये हमें आज्ञा देनेमें संकोच न कीजियेगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥ १३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदोंके वचन और मुनियोंके मनको भी अगम हैं, वे करुणाके धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी भीलोंके वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकोंके वचन सुनता है॥ १३६॥

मूल (चौपाई)

रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
जानि लेउ जो जाननिहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे।
कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीको केवल प्रेम प्यारा है; जो जाननेवाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्रीरामचन्द्रजीने प्रेमसे परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वनमें विचरण करनेवाले लोगोंको संतुष्ट किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिदा किए सिर नाइ सिधाए।
प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई।
बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभुके गुण कहते-सुनते घर आये। इस प्रकार देवता और मुनियोंको सुख देनेवाले दोनों भाई सीताजीसमेत वनमें निवास करने लगे॥२॥

मूल (चौपाई)

जब तें आइ रहे रघुनायकु।
तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना।
मंजु बलित बर बेलि बिताना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे श्रीरघुनाथजी वनमें आकर रहे तबसे वन मङ्गलदायक हो गया। अनेकों प्रकारके वृक्ष फूलते और फलते हैं और उनपर लिपटी हुई सुन्दर बेलोंके मण्डप तने हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए।
मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥
गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी।
त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कल्पवृक्षके समान स्वाभाविक ही सुन्दर हैं। मानो वे देवताओंके वन (नन्दनवन) को छोड़कर आये हों। भौंरोंकी पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥ १३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीलकण्ठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानोंको सुख देनेवाली और चित्तको चुरानेवाली तरह-तरहकी बोलियाँ बोलते हैं॥ १३७॥

मूल (चौपाई)

करि केहरि कपि कोल कुरंगा।
बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥
फिरत अहेर राम छबि देखी।
होहिं मुदित मृगबृंद बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन—ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकारके लिये फिरते हुए श्रीरामचन्द्रजीकी छबिको देखकर पशुओंके समूह विशेष आनन्दित होते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं।
देखि रामबनु सकल सिहाहीं॥
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या।
मेकलसुता गोदावरि धन्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में जहाँतक (जितने) देवताओंके वन हैं,सब श्रीरामजीके वनको देखकर सिहाते हैं। गङ्गा, सरस्वती,सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य (पुण्यमयी) नदियाँ,॥ २॥

मूल (चौपाई)

सब सर सिंधु नदीं नद नाना।
मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू।
मंदर मेरु सकल सुरबासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मन्दाकिनीकी बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मन्दराचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओंके रहनेके स्थान हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सैल हिमाचल आदिक जेते।
चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥
बिधि मुदित मन सुखु न समाई।
श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूटका यश गाते हैं। विन्ध्याचल बड़ा आनन्दित है, उसके मनमें सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥ १३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रकूटके पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादिकी सभी जातियाँ पुण्यकी राशि हैं और धन्य हैं—देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं॥ १३८॥

मूल (चौपाई)

नयनवंत रघुबरहि बिलोकी।
पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥
परसि चरन रज अचर सुखारी।
भए परम पद के अधिकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आँखोंवाले जीव श्रीरामचन्द्रजीको देखकर जन्मका फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं, और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान् की चरण-रजका स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परमपद (मोक्ष) के अधिकारी हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन।
मंगलमय अति पावन पावन॥
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू।
सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुन्दर, मङ्गलमय और अत्यन्त पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कही जाय, जहाँ सुखके समुद्र श्रीरामजीने निवास किया है॥२॥

मूल (चौपाई)

पय पयोधि तजि अवध बिहाई।
जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन।
जौं सत सहस होहिं सहसानन॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षीरसागरको त्यागकर और अयोध्याको छोड़कर जहाँ सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजी आकर रहे, उस वनकी जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुखवाले जो लाख शेषजी हों तो वे भी नहीं कह सकते॥३॥

मूल (चौपाई)

सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं।
डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥
सेवहिं लखनु करम मन बानी।
जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे भला, मैं किस प्रकारसे वर्णन करके कह सकता हूँ। कहीं पोखरेका [क्षुद्र] कछुआ भी मन्दराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्मसे श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेहका वर्णन नहीं किया जा सकता॥४॥

दोहा

मूल (दोहा)

छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥ १३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षण-क्षणपर श्रीसीतारामजीके चरणोंको देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्नमें भी भाइयों, माता-पिता और घरकी याद नहीं करते॥ १३९॥

मूल (चौपाई)

राम संग सिय रहति सुखारी।
पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी।
प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्बके लोग और घरकी याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं। क्षण-क्षणपर पति श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्रमाके समान मुखको देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं जैसे चकोरी चन्द्रमाको देखकर!॥ १॥

मूल (चौपाई)

नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी।
हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा।
अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीका प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती हैं जैसे दिनमें चकवी! सीताजीका मन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवधके समान प्रिय लगता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा।
प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर।
असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रियतम (श्रीरामचन्द्रजी) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियोंके समान लगते हैं। मुनियोंकी स्त्रियाँ सासके समान, श्रेष्ठ मुनि ससुरके समान और कन्द-मूल-फलोंका आहार उनको अमृतके समान लगता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाथ साथ साँथरी सुहाई।
मयन सयन सय सम सुखदाई॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू।
तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीके साथ सुन्दर साथरी (कुश और पत्तोंकी सेज) सैकड़ों कामदेवकी सेजोंके समान सुख देनेवाली है। जिनके [कृपापूर्वक] देखनेमात्रसे जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं!॥ ४॥

मूल (दोहा)

सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥ १४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करनेसे ही भक्तजन तमाम भोग-विलासको तिनकेके समान त्याग देते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीकी प्रिय पत्नी और जगत् की माता सीताजीके लिये यह [भोग-विलासका त्याग] कुछ भी आश्चर्य नहीं है॥ १४०॥

मूल (चौपाई)

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं।
सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी।
सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी और लक्ष्मणजीको जिस प्रकार सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान् प्राचीन कथाएँ और कहानियाँ कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा सीताजी अत्यन्त सुख मानकर सुनते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जब जब रामु अवध सुधि करहीं।
तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई।
भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब-जब श्रीरामचन्द्रजी अयोध्याकी याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रोंमें जल भर आता है। माता-पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरतके प्रेम, शील और सेवाभावको याद करके—॥ २॥

मूल (चौपाई)

कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी।
धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं।
जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाके समुद्र प्रभु श्रीरामचन्द्रजी दुःखी हो जाते हैं, किन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्रीरामचन्द्रजीको दुखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्यकी परछाहीं उस मनुष्यके समान ही चेष्टा करती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु।
धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता।
सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धीर,कृपालु और भक्तोंके हृदयोंको शीतल करनेके लिये चन्दनरूप रघुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मणकी दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएँ कहने लगते हैं,जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥ १४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी और सीताजीसहित श्रीरामचन्द्रजी पर्णकुटीमें ऐसे सुशोभित हैं जैसे अमरावतीमें इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयन्तसहित बसता है॥ १४१॥

मूल (चौपाई)

जोगवहिं प्रभु सिय लखनहि कैसें।
पलक बिलोचन गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि।
जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजीकी कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रोंके गोलकोंकी। इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजीकी [अथवा लक्ष्मणजी और सीताजी श्रीरामचन्द्रजीकी] ऐसी सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीरकी करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी।
खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा।
सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियोंके हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वनमें निवास कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—मैंने श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमन्त्र अयोध्यामें आये वह [कथा] सुनो॥ २॥

मूल (चौपाई)

फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई।
सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू।
कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको पहुँचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथको मन्त्री (सुमन्त्र)- सहित देखा। मन्त्रीको व्याकुल देखकर निषादको जैसा दुःख हुआ, वह कहा नहीं जाता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम राम सिय लखन पुकारी।
परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं।
जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

[निषादको अकेले आया देखकर] सुमन्त्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरतीपर गिर पड़े। [रथके] घोड़े दक्षिण दिशाकी ओर [जिधर श्रीरामचन्द्रजी गये थे] देख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पंखके पक्षी व्याकुल हो रहे हों॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥ १४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे न तो घास चरते हैं,न पानी पीते हैं। केवल आँखोंसे जल बहा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजीके घोड़ोंको इस दशामें देखकर सब निषाद व्याकुल हो गये॥ १४२॥

मूल (चौपाई)

धरि धीरजु तब कहइ निषादू।
अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता।
धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा—हे सुमन्त्रजी! अब विषादको छोड़िये। आप पण्डित और परमार्थके जाननेवाले हैं। विधाताको प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी।
रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी।
रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोमल वाणीसे भाँति-भाँतिकी कथाएँ कहकर निषादने जबर्दस्ती लाकर सुमन्त्रको रथपर बैठाया। परन्तु शोकके मारे वे इतने शिथिल हो गये कि रथको हाँक नहीं सकते। उनके हृदयमें श्रीरामचन्द्रजीके विरहकी बड़ी तीव्र वेदना है॥ २॥

मूल (चौपाई)

चरफराहिं मग चलहिं न घोरे।
बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें।
राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़े तड़फड़ाते हैं और [ठीक] रास्तेपर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथमें जोत दिये गये हों। वे श्रीरामचन्द्रजीके वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछेकी ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःखसे व्याकुल हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जो कह रामु लखनु बैदेही।
हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती।
बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकीका नाम ले लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यारसे देखने लगते हैं। घोड़ोंकी विरहदशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे मणिके बिना साँप व्याकुल होता है॥ ४॥

Misc Detail