२१ श्रीराम-वाल्मीकि-संवाद

मूल (चौपाई)

देखत बन सर सैल सुहाए।
बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन।
सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजी वाल्मीकिजीके आश्रममें आये। श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि मुनिका निवासस्थान बहुत सुन्दर है, जहाँ सुन्दर पर्वत, वन और पवित्र जल है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सरनि सरोज बिटप बन फूले।
गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं।
बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरोवरोंमें कमल और वनोंमें वृक्ष फूल रहे हैं और मकरन्द-रसमें मस्त हुए भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं। बहुत-से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैरसे रहित होकर प्रसन्न मनसे विचर रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥ १२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र और सुन्दर आश्रमको देखकर कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी हर्षित हुए। रघुश्रेष्ठ श्रीरामजीका आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकिजी उन्हें लेनेके लिये आगे आये॥ १२४॥

मूल (चौपाई)

मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा।
आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने।
करि सनमानु आश्रमहिं आने॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने मुनिको दण्डवत् किया। विप्रश्रेष्ठ मुनिने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्रीरामचन्द्रजीकी छवि देखकर मुनिके नेत्र शीतल हो गये। सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रममें ले आये॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए।
कंद मूल फल मधुर मगाए॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए।
तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकिजीने प्राणप्रिय अतिथियोंको पाकर उनके लिये मधुर कन्द, मूल और फल मँगवाये। श्रीसीताजी, लक्ष्मणजी और रामचन्द्रजीने फलोंको खाया। तब मुनिने उनको [विश्राम करनेके लिये] सुन्दर स्थान बतला दिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बालमीकि मन आनँदु भारी।
मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई।
बोले बचन श्रवन सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[मुनि श्रीरामजीके पास बैठे हैं और उनकी] मङ्गल-मूर्तिको नेत्रोंसे देखकर वाल्मीकिजीके मनमें बड़ा भारी आनन्द हो रहा है। तब श्रीरघुनाथजी कमलसदृश हाथोंको जोड़कर, कानोंको सुख देनेवाले मधुर वचन बोले—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा।
बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी।
जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिये हथेलीपर रखे हुए बेरके समान है। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकारसे रानी कैकेयीने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तारसे सुनायी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥ १२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा—] हे प्रभो! पिताकी आज्ञा [का पालन], माताका हित और भरत-जैसे [स्नेही एवं धर्मात्मा] भाईका राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुण्योंका प्रभाव है॥ १२५॥

मूल (चौपाई)

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे।
भए सुकृत सब सुफल हमारे॥
अब जहँ राउर आयसु होई।
मुनि उदबेगु न पावै कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिराज! आपके चरणोंका दर्शन करनेसे आज हमारे सब पुण्य सफल हो गये (हमें सारे पुण्योंका फल मिल गया)। अब जहाँ आपकी आज्ञा हो और जहाँ कोई भी मुनि उद्वेगको प्राप्त न हो—॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं।
ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू।
दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्निके ही (अपने दुष्ट कर्मोंसे ही) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणोंका संतोष सब मङ्गलोंकी जड़ है और भूदेव ब्राह्मणोंका क्रोध करोड़ों कुलोंको भस्म कर देता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ।
सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला।
बासु करौं कछु काल कृपाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा हृदयमें समझकर—वह स्थान बतलाइये जहाँ मैं लक्ष्मण और सीतासहित जाऊँ। और वहाँ सुन्दर पत्तों और घासकी कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय निवास करूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सहज सरल सुनि रघुबर बानी।
साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू।
तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले—धन्य! धन्य! हे रघुकुलके ध्वजास्वरूप! आप ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेदकी मर्यादाका पालन (रक्षण) करते हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप वेदकी मर्यादाके रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी [आपकी स्वरूपभूता] माया हैं, जो कृपाके भण्डार आपकी रुख पाकर जगत् का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तकवाले सर्पोंके स्वामी और पृथ्वीको अपने सिरपर धारण करनेवाले हैं, वही चराचरके स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओंके कार्यके लिये आप राजाका शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसोंकी सेनाका नाश करनेके लिये चले हैं।

सोरठा

मूल (दोहा)

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥ १२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपका स्वरूप वाणीके अगोचर, बुद्धिसे परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरन्तर उसका ‘नेति-नेति’ कहकर वर्णन करते हैं॥ १२६॥

मूल (चौपाई)

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे।
बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा।
औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! जगत् दृश्य है, आप उसके देखनेवाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करको भी नचानेवाले हैं। जब वे भी आपके मर्मको नहीं जानते, तब और कौन आपको जाननेवाला है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनन्दन! हे भक्तोंके हृदयके शीतल करनेवाले चन्दन! आपकी ही कृपासे भक्त आपको जान पाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

चिदानंदमय देह तुम्हारी।
बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा।
कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पञ्चमहाभूतोंकी बनी हुई कर्मबन्धनयुक्त, त्रिदेह-विशिष्ट मायिक नहीं है) और [उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि] सब विकारोंसे रहित है; इस रहस्यको अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतोंके कार्यके लिये [दिव्य] नर-शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृतिके तत्त्वोंसे निर्मित देहवाले, साधारण) राजाओंकी तरहसे कहते और करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे।
जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा।
जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपके चरित्रोंको देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोहको प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है; क्योंकि जैसा स्वाँगभरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये (इस समय आप मनुष्यरूपमें हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥ १२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। तब मैं आपके रहनेके लिये स्थान दिखाऊँ॥ १२७॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने।
सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी।
बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके प्रेमरससे सने हुए वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी [रहस्य खुल जानेके डरसे] सकुचाकर मनमें मुसकराये। वाल्मीकिजी हँसकर फिर अमृत-रसमें डुबोयी हुई मीठी वाणी बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु राम अब कहउँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रामजी! सुनिये, अब मैं वे स्थान बताता हूँ जहाँ आप सीताजी और लक्ष्मणजी-समेत निवास करिये। जिनके कान समुद्रकी भाँति आपकी सुन्दर कथारूपी अनेकों सुन्दर नदियोंसे—॥ २॥

मूल (चौपाई)

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

निरन्तर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिये सुन्दर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रोंको चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघके लिये सदा लालायित रहते हैं;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी।
रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक।
बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलोंका निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्य [रूपी मेघ] के एक बूँद जलसे सुखी हो जाते हैं (अर्थात् आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूपके किसी एक अङ्गकी जरा-सी भी झाँकीके सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत् के, अर्थात् पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोकतकके सौन्दर्यका तिरस्कार करते हैं), हे रघुनाथजी! उन लोगोंके हृदयरूपी सुखदायी भवनोंमें आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसहित निवास कीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥ १२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवरमें जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियोंको चुगती रहती है, हे रामजी! आप उसके हृदयमें बसिये॥ १२८॥

मूल (चौपाई)

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा।
सादर जासु लहइ नित नासा॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगन्धित [पुष्पादि] सुन्दर प्रसादको नित्य आदरके साथ ग्रहण करती (सूँघती) है, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसादरूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं;॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी।
प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥
कर नित करहिं राम पद पूजा।
राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणोंको देखकर बड़ी नम्रताके साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य श्रीरामचन्द्रजी (आप) के चरणोंकी पूजा करते हैं, और जिनके हृदयमें श्रीरामचन्द्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं;॥ २॥

मूल (चौपाई)

चरन राम तीरथ चलि जाहीं।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा।
पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिनके चरण श्रीरामचन्द्रजी (आप) के तीर्थोंमें चलकर जाते हैं; हे रामजी! आप उनके मनमें निवास कीजिये। जो नित्य आपके [रामनामरूप] मन्त्रराजको जपते हैं और परिवार (परिकर)-सहित आपकी पूजा करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तरपन होम करहिं बिधि नाना।
बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी।
सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अनेकों प्रकारसे तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराकर बहुत दान देते हैं; तथा जो गुरुको हृदयमें आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभावसे सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं;॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥ १२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ये सब कर्म करके सबका एकमात्र यही फल माँगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें हमारी प्रीति हो; उन लोगोंके मनरूपी मन्दिरोंमें सीताजी और रघुकुलको आनन्दित करनेवाले आप दोनों बसिये॥ १२९॥

मूल (चौपाई)

काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षोभ है; न राग है, न द्वेष है; और न कपट, दम्भ और माया ही है—हे रघुराज! आप उनके हृदयमें निवास कीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब के प्रिय सब के हितकारी।
दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी।
जागत सोवत सरन तुम्हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सबके प्रिय और सबका हित करनेवाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निन्दा) समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी।
धनु पराव बिष तें बिष भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और आपको छोड़कर जिनके दूसरी कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके मनमें बसिये। जो परायी स्त्रीको जन्म देनेवाली माताके समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विषसे भी भारी विष है;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जे हरषहिं पर संपति देखी।
दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरेकी सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरेकी विपत्ति देखकर विशेष रूपसे दुःखी होते हैं, और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणोंके समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहनेयोग्य शुभ भवन हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥ १३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मन्दिरमें सीतासहित आप दोनों भाई निवास कीजिये॥ १३०॥

मूल (चौपाई)

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं।
बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका।
घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अवगुणोंको छोड़कर सबके गुणोंको ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौके लिये संकट सहते हैं, नीति-निपुणतामें जिनकी जगत् में मर्यादा है, उनका सुन्दर मन आपका घर है॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही।
तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गुणोंको आपका और दोषोंको अपना समझता है, जिसे सब प्रकारसे आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदयमें आप सीतासहित निवास कीजिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई।
प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई।
तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देनेवाला घर—सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदयमें धारण किये रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदयमें रहिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सरगु नरकु अपबरगु समाना।
जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥
करम बचन मन राउर चेरा।
राम करहु तेहि कें उर डेरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टिमें समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किये आपको ही देखता है; और जो कर्मसे, वचनसे और मनसे आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदयमें डेरा कीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥ १३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिये और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मनमें निरन्तर निवास कीजिये; वह आपका अपना घर है॥ १३१॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए।
बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक।
आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीको घर दिखाये। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्रीरामजीके मनको अच्छे लगे। फिर मुनिने कहा—हे सूर्यकुलके स्वामी! सुनिये, अब मैं इस समयके लिये सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवासस्थान बतलाता हूँ)॥ १॥

मूल (चौपाई)

चित्रकूट गिरि करहु निवासू।
तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू।
करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप चित्रकूट पर्वतपर निवास कीजिये, वहाँ आपके लिये सब प्रकारकी सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियोंका विहारस्थल है॥ २॥

मूल (चौपाई)

नदी पुनीत पुरान बखानी।
अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि।
जो सब पातक पोतक डाकिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणोंने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषिकी पत्नी अनसूयाजी अपने तपोबलसे लायी थीं। वह गङ्गाजीकी धारा है, उसका मन्दाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकोंको खा डालनेके लिये डाकिनी (डाइन) रूप है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं।
करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू।
राम देहु गौरव गिरिबरहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि आदि बहुत-से श्रेष्ठ मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो योग, जप और तप करते हुए शरीरको कसते हैं। हे रामजी! चलिये, सबके परिश्रमको सफल कीजिये और पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूटको भी गौरव दीजिये॥ ४॥

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