२० यमुनाको प्रणाम, वनवासियोंका प्रेम

दोहा

मूल (दोहा)

तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥ १११॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीने सखा गुहको अनेकों तरहसे [घर लौट जानेके लिये] समझाया। श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर उसने अपने घरको गमन किया॥ १११॥

मूल (चौपाई)

पुनि सियँ राम लखन कर जोरी।
जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई।
रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मणजीने हाथ जोड़कर यमुनाजीको पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजीकी बड़ाई करते हुए सीताजीसहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक आगे चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

पथिक अनेक मिलहिं मग जाता।
कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥
राज लखन सब अंग तुम्हारें।
देखि सोचु अति हृदय हमारें॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयोंको देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अङ्गोंमें राजचिह्न देखकर हमारे हृदयमें बड़ा सोच होता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मारग चलहु पयादेहि पाएँ।
ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥
अगमु पंथु गिरि कानन भारी।
तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[ऐसे राजचिह्नोंके होते हुए भी] तुमलोग रास्तेमें पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझमें आता है कि ज्योतिष-शास्त्र झूठा ही है। भारी जंगल और बड़े-बड़े पहाड़ोंका दुर्गम रास्ता है। तिसपर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करि केहरि बन जाइ न जोई।
हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई।
फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी और सिंहोंसे भरा यह भयानक वन देखातक नहीं जाता। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप जहाँतक जायँगे वहाँतक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेंगे॥ ४॥

मूल (दोहा)

एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥ ११२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वे यात्री प्रेमवश पुलकितशरीर हो और नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भरकर पूछते हैं। किन्तु कृपाके समुद्र श्रीरामचन्द्रजी कोमल विनययुक्त वचन कहकर उन्हें लौटा देते हैं॥ ११२॥

मूल (चौपाई)

जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं।
तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए।
धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गाँव और पुरवे रास्तेमें बसे हैं, नागों और देवताओंके नगर उनको देखकर प्रशंसापूर्वक ईर्ष्या करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान् ने किस शुभ घड़ीमें इनको बसाया था, जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुन्दर हो रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं।
तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी।
तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजीके चरण चले जाते हैं, उनके समान इन्द्रकी पुरी अमरावती भी नहीं है। रास्तेके समीप बसनेवाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं—स्वर्गमें रहनेवाले देवता भी उनकी सराहना करते हैं—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि।
सीता लखन सहित घनस्यामहि॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं।
तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नेत्र भरकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित घनश्याम श्रीरामजीके दर्शन करते हैं, जिन तालाबों और नदियोंमें श्रीरामजी स्नान कर लेते हैं, देवसरोवर और देवनदियाँ भी उनकी बड़ाई करती हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई।
करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥
परसि राम पद पदुम परागा।
मानति भूमि भूरि निज भागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस वृक्षके नीचे प्रभु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी रजका स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

छाँह करहिं घन बिबुधगन बरषहिं सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥ ११३॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और सिहाते हैं। पर्वत, वन और पशु-पक्षियोंको देखते हुए श्रीरामजी रास्तेमें चले जा रहे हैं॥ ११३॥

मूल (चौपाई)

सीता लखन सहित रघुराई।
गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥
सुनि सब बाल बृद्ध नरनारी।
चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी और लक्ष्मणजीसहित श्रीरघुनाथजी जब किसी गाँवके पास जा निकलते हैं तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने घर और काम-काजको भूलकर तुरंत उन्हें देखनेके लिये चल देते हैं॥१॥

मूल (चौपाई)

राम लखन सिय रूप निहारी।
पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा।
सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजीका रूप देखकर, नेत्रोंका [परम] फल पाकर वे सुखी होते हैं। दोनों भाइयोंको देखकर सब प्रेमानन्दमें मग्न हो गये। उनके नेत्रोंमें जल भर आया और शरीर पुलकित हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी।
लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं।
लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्रोंने चिन्तामणिकी ढेरी पा ली हो। वे एक-एकको पुकारकर सीख देते हैं कि इसी क्षण नेत्रोंका लाभ ले लो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामहि देखि एक अनुरागे।
चितवत चले जाहिं सँग लागे॥
एक नयन मग छबि उर आनी।
होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई श्रीरामचन्द्रजीको देखकर ऐसे अनुरागमें भर गये हैं कि वे उन्हें देखते हुए उनके साथ लगे चले जा रहे हैं। कोई नेत्रमार्गसे उनकी छविको हृदयमें लाकर शरीर, मन और श्रेष्ठ वाणीसे शिथिल हो जाते हैं (अर्थात् उनके शरीर, मन और वाणीका व्यवहार बंद हो जाता है)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एक देखि बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात॥ ११४॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई बड़की सुन्दर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षणभर यहाँ बैठकर थकावट मिटा लीजिये। फिर चाहे अभी चले जाइयेगा, चाहे सबेरे॥ ११४॥

मूल (चौपाई)

एक कलस भरि आनहिं पानी।
अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥
सुनि प्रिय बचन प्रीत अति देखी।
राम कृपाल सुसील बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल वाणीसे कहते हैं—नाथ! आचमन तो कर लीजिये। उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका अत्यन्त प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील श्रीरामचन्द्रजीने—॥ १॥

मूल (चौपाई)

जानी श्रमित सीय मन माहीं।
घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा।
रूप अनूप नयन मनु लोभा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनमें सीताजीको थकी हुई जानकर घड़ीभर बड़की छायामें विश्राम किया। स्त्री-पुरुष आनन्दित होकर शोभा देखते हैं। अनुपम रूपने उनके नेत्र और मनोंको लुभा लिया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा।
रामचंद्र मुख चंद चकोरा॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा।
देखत कोटि मदन मनु मोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग टकटकी लगाये श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रको चकोरकी तरह (तन्मय होकर) देखते हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं। श्रीरामजीका नवीन तमाल वृक्षके रंगका (श्याम) शरीर अत्यन्त शोभा दे रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेवोंके मन मोहित हो जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दामिनि बरन लखन सुठि नीके।
नख सिख सुभग भावते जी के॥
मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा।
सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिजलीके-से रंगके लक्ष्मणजी बहुत ही भले मालूम होते हैं। वे नखसे शिखातक सुन्दर हैं, और मनको बहुत भाते हैं। दोनों मुनियोंके (वल्कल आदि) वस्त्र पहने हैं और कमरमें तरकस कसे हुए हैं। कमलके समान हाथोंमें धनुष-बाण शोभित हो रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥ ११५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सिरोंपर सुन्दर जटाओंके मुकुट हैं; वक्षःस्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखोंपर पसीनेकी बूँदोंका समूह शोभित हो रहा है॥ ११५॥

मूल (चौपाई)

बरनि न जाइ मनोहर जोरी।
सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥
राम लखन सिय सुंदरताई।
सब चितवहिं चित मन मति लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मनोहर जोड़ीका वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि शोभा बहुत अधिक है, और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजीकी सुन्दरताको सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनोंको लगाकर देख रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

थके नारि नर प्रेम पिआसे।
मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं।
पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेमके प्यासे [वे गाँवोंके] स्त्री-पुरुष [इनके सौन्दर्य-माधुर्यकी छटा देखकर] ऐसे थकित रह गये जैसे दीपकको देखकर हिरनी और हिरन [निस्तब्ध रह जाते हैं]! गाँवोंकी स्त्रियाँ सीताजीके पास जाती हैं; परन्तु अत्यन्त स्नेहके कारण पूछते सकुचाती हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बार बार सब लागहिं पाएँ।
कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं।
तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बार-बार सब उनके पाँव लगतीं और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं—हे राजकुमारी! हम विनती करती (कुछ निवेदन करना चाहती) हैं, परन्तु स्त्री-स्वभावके कारण कुछ पूछते हुए डरती हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी।
बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने।
इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामिनि! हमारी ढिठाई क्षमा कीजियेगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मानियेगा। ये दोनों राजकुमार स्वभावसे ही लावण्यमय (परम सुन्दर) हैं। मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्णने कान्ति इन्हींसे पायी है (अर्थात् मरकतमणिमें और स्वर्णमें जो हरित और स्वर्णवर्णकी आभा है वह इनकी हरिताभनील और स्वर्णकान्तिके एक कणके बराबर भी नहीं है)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥ ११६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्याम और गौर वर्ण है, सुन्दर किशोर अवस्था है; दोनों ही परम सुन्दर और शोभाके धाम हैं। शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान इनके मुख और शरद्-ऋतुके कमलके समान इनके नेत्र हैं॥ ११६॥

भागसूचना

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम

मूल (चौपाई)

कोटि मनोज लजावनिहारे।
सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
सुनि सनेहमय मंजुल बानी।
सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुन्दरतासे करोड़ों कामदेवोंको लजानेवाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सुन्दर वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं और मन-ही-मन मुसकरायीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी।
दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी।
बोली मधुर बचन पिकबयनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम (गौर) वर्णवाली सीताजी उनको देखकर [संकोचवश] पृथ्वीकी ओर देखती हैं। वे दोनों ओरके संकोचसे सकुचा रही हैं (अर्थात् न बतानेमें ग्रामकी स्त्रियोंको दुःख होनेका संकोच है और बतानेमें लज्जारूप संकोच)। हिरणके बच्चेके सदृश नेत्रवाली और कोकिलकी-सी वाणीवाली सीताजी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं—॥ २॥

मूल (चौपाई)

सहज सुभाय सुभग तन गोरे।
नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी।
पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो सहजस्वभाव, सुन्दर और गोरे शरीरके हैं,उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजीने [लज्जावश] अपने चन्द्रमुखको आँचलसे ढककर और प्रियतम (श्रीरामजी) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

खंजन मंजु तिरीछे नयननि।
निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं।
रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

खंजन पक्षीके-से सुन्दर नेत्रोंको तिरछा करके सीताजीने इशारेसे उन्हें कहा कि ये (श्रीरामचन्द्रजी) मेरे पति हैं। यह जानकर गाँवकी सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनन्दित हुईं मानो कंगालोंने धनकी राशियाँ लूट ली हों॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥ ११७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अत्यन्त प्रेमसे सीताजीके पैरों पड़कर बहुत प्रकारसे आशिष देती हैं (शुभ कामना करती हैं) कि जबतक शेषजीके सिरपर पृथ्वी रहे, तबतक तुम सदा सुहागिनी बनी रहो,॥ ११७॥

मूल (चौपाई)

पारबती सम पतिप्रिय होहू।
देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी।
जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और पार्वतीजीके समान अपने पतिकी प्यारी होओ। हे देवि! हमपर कृपा न छोड़ना (बनाये रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें,॥ १॥

मूल (चौपाई)

दरसनु देब जानि निज दासी।
लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं।
जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीताजीने उन सबको प्रेमकी प्यासी देखा, और मधुर वचन कह-कहकर उनका भलीभाँति सन्तोष किया। मानो चाँदनीने कुमुदिनियोंको खिलाकर पुष्ट कर दिया हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

तबहिं लखन रघुबर रुख जानी।
पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥
सुनत नारि नर भए दुखारी।
पुलकित गात बिलोचन बारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय श्रीरामचन्द्रजीका रुख जानकर लक्ष्मणजीने कोमल वाणीसे लोगोंसे रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री-पुरुष दुःखी हो गये। उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रोंमें [वियोगकी सम्भावनासे प्रेमका] जल भर आया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मिटा मोदु मन भए मलीने।
बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा।
सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका आनन्द मिट गया और मन ऐसे उदास हो गये मानो विधाता दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो। कर्मकी गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥ ११८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लक्ष्मणजी और जानकीजीसहित श्रीरघुनाथजीने गमन किया और सब लोगोंको प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उनके मनोंको अपने साथ ही लगा लिया॥ ११८॥

मूल (चौपाई)

फिरत नारि नर अति पछिताहीं।
दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं।
बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन-ही-मन दैवको दोष देते हैं। परस्पर [बड़े ही] विषादके साथ कहते हैं कि विधाताके सभी काम उलटे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

निपट निरंकुस निठुर निसंकू।
जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥
रूख कलपतरु सागरु खारा।
तेहिं पठए बन राजकुमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विधाता बिलकुल निरंकुश (स्वतन्त्र), निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमाको रोगी (घटने-बढ़नेवाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्षको पेड़ और समुद्रको खारा बनाया। उसीने इन राजकुमारोंको वनमें भेजा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं पै इन्हहि दीन्ह बनबासू।
कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना।
रचे बादि बिधि बाहन नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब विधाताने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाये। जब ये बिना जूतेके (नंगे ही पैरों) रास्तेमें चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ए महि परहिं डासि कुस पाता।
सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा।
धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीनपर ही पडे़ रहते हैं, तब विधाता सुन्दर सेज (पलंग और बिछौने) किसलिये बनाता है? विधाताने जब इनको बड़े-बड़े पेड़ों [के नीचे] का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलोंको बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥ ११९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ये सुन्दर और अत्यन्त सुकुमार होकर मुनियोंके (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार (विधाता) ने भाँति-भाँतिके गहने और कपड़े वृथा ही बनाये॥ ११९॥

मूल (चौपाई)

जौं ए कंद मूल फल खाहीं।
बादि सुधादि असन जग माहीं॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए।
आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत् में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं—ये स्वभावसे ही सुन्दर हैं [इनका सौन्दर्य-माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है]। ये अपने-आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्माके बनाये नहीं हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जहँ लगि बेद कही बिधि करनी।
श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी।
कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे कानों, नेत्रों और मनके द्वारा अनुभवमें आनेवाली विधाताकी करनीको जहाँतक वेदोंने वर्णन करके कहा है, वहाँतक चौदहों लोकोंमें ढूँढ़ देखो, ऐसे पुरुष और ऐसी स्त्रियाँ कहाँ हैं? [कहीं भी नहीं हैं, इसीसे सिद्ध है कि ये विधाताके चौदहों लोकोंसे अलग हैं और अपनी महिमासे ही आप निर्मित हुए हैं]॥ २॥

मूल (चौपाई)

इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा।
पटतर जोग बनावै लागा॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए।
तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हें देखकर विधाताका मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हींकी उपमाके योग्य दूसरे स्त्री-पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, परन्तु कोई उसकी अटकलमें ही नहीं आये (पूरे नहीं उतरे)। इसी ईर्ष्याके मारे उसने इनको जंगलमें लाकर छिपा दिया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एक कहहिं हम बहुत न जानहिं।
आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे।
जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई एक कहते हैं—हम बहुत नहीं जानते। हाँ, अपनेको परम धन्य अवश्य मानते हैं [जो इनके दर्शन कर रहे हैं] और हमारी समझमें वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इनको देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥ १२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर सब नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीरवाले दुर्गम (कठिन) मार्गमें कैसे चलेंगे॥ १२०॥

मूल (चौपाई)

नारि सनेह बिकल बस होहीं।
चकईं साँझ समय जनु सोहीं॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी।
गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो सन्ध्याके समय चकवी [भावी वियोगकी पीड़ासे] सोह रही हों (दुखी हो रही हों)। इनके चरणकमलोंको कोमल तथा मार्गको कठोर जानकर वे व्यथित हृदयसे उत्तम वाणी कहती हैं—॥ १॥

मूल (चौपाई)

परसत मृदुल चरन अरुनारे।
सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा।
कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके कोमल और लाल-लाल चरणों (तलवों) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वरने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्तेको पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं।
ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥
जे नर नारि न अवसर आए।
तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ब्रह्मासे माँगे मिले तो हे सखि! [हम तो उनसे माँगकर] इन्हें अपनी आँखोंमें ही रखें! जो स्त्री-पुरुष इस अवसरपर नहीं आये, वे श्रीसीतारामजीको नहीं देख सके॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई।
अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई।
प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सौन्दर्यको सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई! अबतक वे कहाँतक गये होंगे? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्मका परम फल पाकर, विशेष आनन्दित होकर लौटते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं।
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥ १२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

[गर्भवती, प्रसूता आदि] अबला स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े [दर्शन न पानेसे] हाथ मलते और पछताते हैं। इस प्रकार जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ लोग प्रेमके वशमें हो जाते हैं॥ १२१॥

मूल (चौपाई)

गावँ गावँ अस होइ अनंदू।
देखि भानुकुल कैरव चंदू॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं।
ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकुलरूपी कुमुदिनीके प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमास्वरूप श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकर गाँव-गाँवमें ऐसा ही आनन्द हो रहा है। जो लोग [वनवास दिये जानेका] कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राजा-रानी [दशरथ-कैकेयी] को दोष लगाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहहिं एक अति भल नरनाहू।
दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥
कहहिं परसपर लोग लोगाईं।
बातें सरल सनेह सुहाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रोंका लाभ दिया। स्त्री-पुरुष सभी आपसमें सीधी, स्नेहभरी सुन्दर बातें कह रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए।
धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ।
जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[कहते हैं—] वे माता-पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य है जहाँसे ये आये हैं। वह देश,पर्वत, वन और गाँव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहाँ-जहाँ ये जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही।
ए जेहि के सब भाँति सनेही॥
राम लखन पथि कथा सुहाई।
रही सकल मग कानन छाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माने उसीको रचकर सुख पाया है जिसके ये (श्रीरामचन्द्रजी) सब प्रकारसे स्नेही हैं। पथिकरूप श्रीराम-लक्ष्मणकी सुन्दर कथा सारे रास्ते और जंगलमें छा गयी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥ १२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुकुलरूपी कमलके खिलानेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार मार्गके लोगोंको सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मणजीसहित वनको देखते हुए चले जा रहे हैं॥ १२२॥

मूल (चौपाई)

आगें रामु लखनु बने पाछें।
तापस बेष बिराजत काछें॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियोंके वेष बनाये दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनोंके बीचमें सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीवके बीचमें माया!॥ १॥

मूल (चौपाई)

बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई।
जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही।
जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जैसी छबि मेरे मनमें बस रही है, उसको कहता हूँ—मानो वसन्त-ऋतु और कामदेवके बीचमें रति (कामदेवकी स्त्री) शोभित हो। फिर अपने हृदयमें खोजकर उपमा कहता हूँ कि मानो बुध (चन्द्रमाके पुत्र) और चन्द्रमाके बीचमें रोहिणी (चन्द्रमाकी स्त्री) सोह रही हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता।
धरति चरन मग चलति सभीता॥
सीय राम पद अंक बराएँ।
लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके [जमीनपर अङ्कित होनेवाले दोनों] चरणचिह्नोंके बीच-बीचमें पैर रखती हुई सीताजी [कहीं भगवान् के चरणचिह्नोंपर पैर न टिक जाय इस बातसे] डरती हुई मार्गमें चल रही हैं, और लक्ष्मणजी [मर्यादाकी रक्षाके लिये] सीताजी और श्रीरामचन्द्रजी दोनोंके चरणचिह्नोंको बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम लखन सिय प्रीति सुहाई।
बचन अगोचर किमि कहि जाई॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं।
लिए चोरि चित राम बटोहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीकी सुन्दर प्रीति वाणीका विषय नहीं है (अर्थात् अनिर्वचनीय है), अतः वह कैसे कही जा सकती है? पक्षी और पशु भी उस छविको देखकर (प्रेमानन्दमें) मग्न हो जाते हैं। पथिकरूप श्रीरामचन्द्रजीने उनके भी चित्त चुरा लिये हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥ १२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे पथिक सीताजीसहित दोनों भाइयोंको जिन-जिन लोगोंने देखा, उन्होंने भवका अगम मार्ग (जन्म-मृत्युरूपी संसारमें भटकनेका भयानक मार्ग) बिना ही परिश्रम आनन्दके साथ तै कर लिया (अर्थात् वे आवागमनके चक्रसे सहज ही छूटकर मुक्त हो गये)॥ १२३॥

मूल (चौपाई)

अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ।
बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥
राम धाम पथ पाइहि सोई।
जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज भी जिसके हृदयमें स्वप्नमें भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्रीरामजीके परमधामके उस मार्गको पा जायगा जिस मार्गको कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब रघुबीर श्रमित सिय जानी।
देखि निकट बटु सीतल पानी॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई।
प्रात नहाइ चले रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजी सीताजीको थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गये। कन्द, मूल, फल खाकर [रातभर वहाँ रहकर] प्रातःकाल स्नान करके श्रीरघुनाथजी आगे चले॥ २॥

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