१९ तापस-प्रकरण

मूल (चौपाई)

तेहि अवसर एक तापसु आवा।
तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी।
मन क्रम बचन राम अनुरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी अवसरपर वहाँ एक तपस्वी आया, जो तेजका पुञ्ज, छोटी अवस्थाका और सुन्दर था। उसकी गति कवि नहीं जानते [अथवा वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता]। वह वैरागीके वेषमें था और मन, वचन तथा कर्मसे श्रीरामचन्द्रजीका प्रेमी था॥ ४॥
[इस तेजःपुञ्ज तापसके प्रसंगको कुछ टीकाकार क्षेपक मानते हैं और कुछ लोगोंके देखनेमें यह अप्रासंगिक और ऊपरसे जोड़ा हुआ-सा जान भी पड़ता है, परन्तु यह सभी प्राचीन प्रतियोंमें है। गुसाईंजी अलौकिक अनुभवी पुरुष थे। पता नहीं, यहाँ इस प्रसंगके रखनेमें क्या रहस्य है; परन्तु यह क्षेपक तो नहीं है। इस तापसको जब ‘कबि अलखित गति’ कहते हैं, तब निश्चयपूर्वक कौन क्या कह सकता है। हमारी समझसे ये तापस या तो श्रीहनुमान् जी थे अथवा ध्यानस्थ तुलसीदासजी!]

दोहा

मूल (दोहा)

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥ ११०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने इष्टदेवको पहचानकर उसके नेत्रोंमें जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया। वह दण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा, उसकी [प्रेमविह्वल] दशाका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ ११०॥

मूल (चौपाई)

राम सप्रेम पुलकि उर लावा।
परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ।
मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदयसे लगा लिया। [उसे इतना आनन्द हुआ] मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई [देखनेवाले] कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम तत्त्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा।
लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा।
जननि जानि सिसु दीन्ह असीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वह लक्ष्मणजीके चरणों लगा। उन्होंने प्रेमसे उमँगकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीताजीकी चरणधूलिको अपने सिरपर धारण किया। माता सीताजीने भी उसको अपना छोटा बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

कीन्ह निषाद दंडवत तेही।
मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियूषा।
मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर निषादराजने उसको दण्डवत् की। श्रीरामचन्द्रजीका प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनन्दित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्ररूपी दोनोंसे श्रीरामजीकी सौन्दर्य-सुधाका पान करने लगा और ऐसा आनन्दित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुन्दर भोजन पाकर आनन्दित होता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे।
जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी।
होहिं सनेह बिकल नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[इधर गाँवकी स्त्रियाँ कह रही हैं—] हे सखी! कहो तो,वे माता-पिता कैसे हैं जिन्होंने ऐसे (सुन्दर सुकुमार) बालकोंको वनमें भेज दिया है। श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीके रूपको देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेहसे व्याकुल हो जाते हैं॥ ४॥

Misc Detail