१८ प्रयाग पहुँचना, श्रीराम-भरद्वाज-संवाद, यमुनातीर निवासियोंका प्रेम

दोहा

मूल (दोहा)

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।
सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥ १०४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रभु श्रीरघुनाथजी गणेशजी और शिवजीका स्मरण करके तथा गङ्गाजीको मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसहित वनको चले॥ १०४॥

मूल (चौपाई)

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू।
लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥
प्रात प्रातकृत करि रघुराई।
तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दिन पेड़के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुहने [विश्रामकी] सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने सबेरे प्रातःकालकी सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थोंके राजा प्रयागके दर्शन किये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी।
माधव सरिस मीतु हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू।
पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजाका सत्य मन्त्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्रीवेणीमाधवजी-सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से भण्डार भरा है और वह पुण्यमय प्रान्त ही उस राजाका सुन्दर देश है॥ २॥

मूल (चौपाई)

छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा।
सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा।
कलुष अनीक दलन रनधीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुन्दर गढ़ (किला) है, जिसको स्वप्नमें भी [पापरूपी] शत्रु नहीं पा सके हैं। सम्पूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पापकी सेनाको कुचल डालनेवाले और बड़े रणधीर हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा।
छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा।
देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[गङ्गा, यमुना और सरस्वतीका] सङ्गम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियोंके भी मनको मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गङ्गाजीकी तरंगें उसके [श्याम और श्वेत] चँवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥ १०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद और पुराणोंके समूह भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणोंका बखान करते हैं॥ १०५॥

मूल (चौपाई)

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापोंके समूहरूपी हाथीके मारनेके लिये सिंहरूप प्रयागराजका प्रभाव (महत्त्व—माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराजका दर्शन कर सुखके समुद्र रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजीने भी सुख पाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई।
श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥
करि प्रनामु देखत बन बागा।
कहत महातम अति अनुरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने श्रीमुखसे सीताजी, लक्ष्मणजी और सखा गुहको तीर्थराजकी महिमा कहकर सुनायी। तदनन्तर प्रणाम करके, वन और बगीचोंको देखते हुए और बड़े प्रेमसे माहात्म्य कहते हुए—॥ २॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी।
सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा।
पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रीरामने आकर त्रिवेणीका दर्शन किया, जो स्मरण करनेसे ही सब सुन्दर मङ्गलोंको देनेवाली है। फिर आनन्दपूर्वक [त्रिवेणीमें] स्नान करके शिवजीकी सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थदेवताओंका पूजन किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए।
करत दंडवत मुनि उर लाए॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई।
ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

[स्नान,पूजन आदि सब करके] तब प्रभु श्रीरामजी भरद्वाजजीके पास आये। उन्हें दण्डवत् करते हुए ही मुनिने हृदयसे लगा लिया। मुनिके मनका आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो उन्हें ब्रह्मानन्दकी राशि मिल गयी हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥ १०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनीश्वर भरद्वाजजीने आशीर्वाद दिया। उनके हृदयमें ऐसा जानकर अत्यन्त आनन्द हुआ कि आज विधाताने [श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन कराकर] मानो हमारे सम्पूर्ण पुण्योंके फलको लाकर आँखोंके सामने कर दिया॥ १०६॥

मूल (चौपाई)

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे।
पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥
कंद मूल फल अंकुर नीके।
दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुशल पूछकर मुनिराजने उनको आसन दिये और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें सन्तुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृतके ही बने हों, ऐसे अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अंकुर लाकर दिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीय लखन जन सहित सुहाए।
अति रुचि राम मूल फल खाए॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे।
भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुहसहित श्रीरामचन्द्रजीने उन सुन्दर मूल-फलोंको बड़ी रुचिके साथ खाया। थकावट दूर होनेसे श्रीरामचन्द्रजी सुखी हो गये। तब भरद्वाजजीने उनसे कोमल वचन कहे—॥ २॥

मूल (चौपाई)

आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू।
आजु सुफल जप जोग बिरागू॥
सफल सकल सुभ साधन साजू।
राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपका दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थसेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा जप, योग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे सम्पूर्ण शुभ साधनोंका समुदाय भी सफल हो गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी।
तुम्हरें दरस आस सब पूजी॥
अब करि कृपा देहु बर एहू।
निज पद सरसिज सहज सनेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

लाभकी सीमा और सुखकी सीमा [प्रभुके दर्शनको छोड़कर] दूसरी कुछ भी नहीं है। आपके दर्शनसे मेरी सब आशाएँ पूर्ण हो गयीं। अब कृपा करके यह वरदान दीजिये कि आपके चरणकमलोंमें मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥ १०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक कर्म, वचन और मनसे छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता, तबतक करोड़ों उपाय करनेसे भी, स्वप्नमें भी वह सुख नहीं पाता॥ १०७॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने।
भाव भगति आनंद अघाने॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा।
कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके वचन सुनकर, उनकी भाव-भक्तिके कारण आनन्दसे तृप्त हुए भगवान् श्रीरामचन्द्रजी [लीलाकी दृष्टिसे] सकुचा गये। तब [अपने ऐश्वर्यको छिपाते हुए] श्रीरामचन्द्रजीने भरद्वाज मुनिका सुन्दर सुयश करोड़ों (अनेकों) प्रकारसे कहकर सबको सुनाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो बड़ सो सब गुन गन गेहू।
जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं।
बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उन्होंने कहा—] हे मुनीश्वर! जिसको आप आदर दें, वही बड़ा है और वही सब गुणसमूहोंका घर है। इस प्रकार श्रीरामजी और मुनि भरद्वाजजी दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं और अनिर्वचनीय सुखका अनुभव कर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी।
बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥
भरद्वाज आश्रम सब आए।
देखन दसरथ सुअन सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह (श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजीके आनेकी) खबर पाकर प्रयागनिवासी ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि, सिद्ध और उदासी सब श्रीदशरथजीके सुन्दर पुत्रोंको देखनेके लिये भरद्वाजजीके आश्रमपर आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम प्रनाम कीन्ह सब काहू।
मुदित भए लहि लोयन लाहू॥
देहिं असीस परम सुखु पाई।
फिरे सराहत सुंदरताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने सब किसीको प्रणाम किया। नेत्रोंका लाभ पाकर सब आनन्दित हो गये और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे। श्रीरामजीके सौन्दर्यकी सराहना करते हुए वे लौटे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहित सिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ॥ १०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने रातको वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराजका स्नान करके और प्रसन्नताके साथ मुनिको सिर नवाकर श्रीसीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुहके साथ वे चले॥१०८॥

मूल (चौपाई)

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं।
नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं।
सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

[चलते समय] बड़े प्रेमसे श्रीरामजीने मुनिसे कहा— हे नाथ! बताइये हम किस मार्गसे जायँ। मुनि मनमें हँसकर श्रीरामजीसे कहते हैं कि आपके लिये सभी मार्ग सुगम हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए।
सुनि मन मुदित पचासक आए॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा।
सकल कहहिं मगु दीख हमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनके साथके लिये मुनिने शिष्योंको बुलाया। [साथ जानेकी बात] सुनते ही चित्तमें हर्षित हो कोई पचास शिष्य आ गये। सभीका श्रीरामजीपर अपार प्रेम है। सभी कहते हैं कि मार्ग हमारा देखा हुआ है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे।
जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई।
प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिने [चुनकर] चार ब्रह्मचारियोंको साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मोंतक सब सुकृत (पुण्य) किये थे। श्रीरघुनाथजी प्रणाम कर और ऋषिकी आज्ञा पाकर हृदयमें बड़े ही आनन्दित होकर चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ग्राम निकट जब निकसहिं जाई।
देखहिं दरसु नारि नर धाई॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई।
फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे किसी गाँवके पास होकर निकलते हैं तब स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूपको देखने लगते हैं। जन्मका फल पाकर वे [सदाके अनाथ] सनाथ हो जाते हैं और मनको नाथके साथ भेजकर [शरीरसे साथ न रहनेके कारण] दुःखी होकर लौट आते हैं॥ ४॥

मूल (दोहा)

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥ १०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्रीरामजीने विनती करके चारों ब्रह्मचारियोंको विदा किया; वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे। यमुनाजीके पार उतरकर सबने यमुनाजीके जलमें स्नान किया, जो श्रीरामचन्द्रजीके शरीरके समान ही श्याम रंगका था॥ १०९॥

मूल (चौपाई)

सुनत तीरबासी नर नारी।
धाए निज निज काज बिसारी॥
लखन राम सिय सुंदरताई।
देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमुनाजीके किनारेपर रहनेवाले स्त्री-पुरुष [यह सुनकर कि निषादके साथ दो परम सुन्दर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुन्दरी स्त्री आ रही है] सब अपना-अपना काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजीका सौन्दर्य देखकर अपने भाग्यकी बड़ाई करने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

अति लालसा बसहिं मन माहीं।
नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने।
तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मनमें [परिचय जाननेकी] बहुत-सी लालसाएँ भरी हैं। पर वे नाम-गाँव पूछते सकुचाते हैं। उन लोगोंमें जो वयोवृद्ध और चतुर थे; उन्होंने युक्तिसे श्रीरामचन्द्रजीको पहचान लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई।
बनहि चले पितु आयसु पाई॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं।
रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सब कथा सब लोगोंको सुनायी कि पिताकी आज्ञा पाकर ये वनको चले हैं। यह सुनकर सब लोग दुःखित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजाने अच्छा नहीं किया॥ ३॥

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