१७ केवटका प्रेम और गङ्गा-पार जाना

मूल (चौपाई)

जासु बियोग बिकल पसु ऐसें।
प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए।
सुरसरि तीर आपु तब आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके वियोगमें पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोगमें प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्रीरामचन्द्रजीने जबर्दस्ती सुमन्त्रको लौटाया। तब आप गङ्गाजीके तीरपर आये॥ १॥

मूल (चौपाई)

मागी नाव न केवटु आना।
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई।
मानुष करनि मूरि कछु अहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामने केवटसे नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा—मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरणकमलोंकी धूलके लिये सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देनेवाली कोई जड़ी है,॥ २॥

मूल (चौपाई)

छुअत सिला भइ नारि सुहाई।
पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई।
बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके छूते ही पत्थरकी शिला सुन्दरी स्त्री हो गयी [मेरी नाव तो काठकी है]। काठ पत्थरसे कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनिकी स्त्री हो जायगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जायगी, मैं लुट जाऊँगा [अथवा रास्ता रुक जायगा जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जायगी] (मेरी कमाने-खानेकी राह ही मारी जायगी)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू।
नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू।
मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो इसी नावसे सारे परिवारका पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरण-कमल पखारने (धो लेने) के लिये कह दो॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आपलोगोंको नावपर चढ़ा लूँगा; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजीकी सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जबतक मैं पैरोंको पखार न लूँगा, तबतक हे तुलसीदासके नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥ १००॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवटके प्रेममें लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्रीरामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजीकी ओर देखकर हँसे॥ १००॥

मूल (चौपाई)

कृपासिंधु बोले मुसुकाई।
सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जल पाय पखारू।
होत बिलंबु उतारहि पारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाके समुद्र श्रीरामचन्द्रजी केवटसे मुसकराकर बोले—भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाय। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥ १॥

मूल (चौपाई)

जासु नाम सुमिरत एक बारा।
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा।
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागरके पार उतर जाते हैं, और जिन्होंने [वामनावतारमें] जगत् को तीन पगसे भी छोटा कर दिया था (दो ही पगमें त्रिलोकीको नाप लिया था), वही कृपालु श्रीरामचन्द्रजी [गङ्गाजीसे पार उतारनेके लिये] केवटका निहोरा कर रहे हैं!॥ २॥

मूल (चौपाई)

पद नख निरखि देवसरि हरषी।
सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा।
पानि कठवता भरि लेइ आवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके इन वचनोंको सुनकर गङ्गाजीकी बुद्धि मोहसे खिंच गयी थी [कि ये साक्षात् भगवान् होकर भी पार उतारनेके लिये केवटका निहोरा कैसे कर रहे हैं]। परन्तु [समीप आनेपर अपनी उत्पत्तिके स्थान] पदनखोंको देखते ही [उन्हें पहचानकर] देवनदी गङ्गाजी हर्षित हो गयीं। (वे समझ गयीं कि भगवान् नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया; और इन चरणोंका स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गयीं।) केवट श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर कठौतेमें भरकर जल ले आया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अति आनंद उमगि अनुरागा।
चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं।
एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त आनन्द और प्रेममें उमँगकर वह भगवान् के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्यकी राशि कोई नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥ १०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

चरणोंको धोकर और सारे परिवारसहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले [उस महान् पुण्यके द्वारा] अपने पितरोंको भवसागरसे पारकर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्रको गङ्गाजीके पार ले गया॥ १०१॥

मूल (चौपाई)

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता।
सीय रामु गुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा।
प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषादराज और लक्ष्मणजीसहित श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी [नावसे] उतरकर गङ्गाजीकी रेत (बालू)में खड़े हो गये। तब केवटने उतरकर दण्डवत् की। [उसको दण्डवत् करते देखकर] प्रभुको संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पिय हियकी सिय जाननिहारी।
मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई।
केवट चरन गहे अकुलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिके हृदयकी जाननेवाली सीताजीने आनन्दभरे मनसे अपनी रत्नजटित अँगूठी [अँगुलीसे] उतारी। कृपालु श्रीरामचन्द्रजीने केवटसे कहा, नावकी उतराई लो। केवटने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाथ आजु मैं काह न पावा।
मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी।
आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उसने कहा—] हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रताकी आग आज बुझ गयी है। मैंने बहुत समयतक मजदूरी की। विधाताने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें।
दीनदयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा।
सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपासे अब मुझे कुछ नहीं चाहिये। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥ १०२॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीने बहुत आग्रह [या यत्न] किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणाके धाम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने निर्मल भक्तिका वरदान देकर उसे विदा किया॥ १०२॥

मूल (चौपाई)

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा।
पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी।
मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीने स्नान करके पार्थिवपूजा की और शिवजीको सिर नवाया। सीताजीने हाथ जोड़कर गङ्गाजीसे कहा—हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजियेगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

पति देवर सँग कुसल बहोरी।
आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी।
भइ तब बिमल बारि बर बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे मैं पति और देवरके साथ कुशलपूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजीकी प्रेमरसमें सनी हुई विनती सुनकर तब गङ्गाजीके निर्मल जलमेंसे श्रेष्ठ वाणी हुई—॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही।
तव प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें।
तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुवीरकी प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत् में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे [कृपादृष्टिसे] देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई।
कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा।
सफल होन हित निज बागीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनायी, यह तो मुझपर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवि! मैं अपनी वाणी सफल होनेके लिये तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥ १०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपने प्राणनाथ और देवरसहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुन्दर यश जगत् भरमें छा जायगा॥ १०३॥

मूल (चौपाई)

गंग बचन सुनि मंगल मूला।
मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू।
सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मङ्गलके मूल गङ्गाजीके वचन सुनकर और देवनदीको अनुकूल देखकर सीताजी आनन्दित हुईं। तब प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने निषादराज गुहसे कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ। यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदयमें दाह उत्पन्न हो गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

दीन बचन गुह कह कर जोरी।
बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई।
करि दिन चारि चरन सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला—हे रघुकुलशिरोमणि! मेरी विनती सुनिये। मैं नाथ (आप)के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणोंकी सेवा करके—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जेहिं बन जाइ रहब रघुराई।
परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई।
सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुराज! जिस वनमें आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुन्दर पर्णकुटी (पत्तोंकी कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥३॥

मूल (चौपाई)

सहज सनेह राम लखि तासू।
संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे।
करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके स्वाभाविक प्रेमको देखकर श्रीरामचन्द्रजीने उसको साथ ले लिया, इससे गुहके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जातिके लोगोंको बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥४॥

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