१६ लक्ष्मण-निषाद-संवाद, श्रीराम-सीतासे सुमन्त्रका संवाद, सुमन्त्रका लौटना

मूल (चौपाई)

बोले लखन मधुर मृदु बानी।
ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके रससे सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले— हे भाई! कोई किसीको सुख-दुःखका देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मोंका फल भोगते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जोग बियोग भोग भल मंदा।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू।
संपति बिपति करमु अरु कालू॥

अनुवाद (हिन्दी)

संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन—ये सभी भ्रमके फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल—जहाँतक जगत् के जंजाल हैं;॥३॥

मूल (चौपाई)

धरनि धामु धनु पुर परिवारू।
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं।
मोह मूल परमारथु नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

धरती, घर,धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँतक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मनके अंदर विचारनेमें आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्वप्नमें राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्गका स्वामी इन्द्र हो जाय, तो जागनेपर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपञ्चको हृदयसे देखना चाहिये॥ ९२॥

मूल (चौपाई)

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू।
काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिये और न किसीको व्यर्थ दोष ही देना चाहिये। सब लोग मोहरूपी रात्रिमें सोनेवाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकारके स्वप्न दिखायी देते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी।
परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब सब बिषय बिलास बिरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत् रूपी रात्रिमें योगीलोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपञ्च (मायिक जगत् ) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीवको जागा हुआ तभी जानना चाहिये जब सम्पूर्ण भोग-विलासोंसे वैराग्य हो जाय॥ २॥

मूल (चौपाई)

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवेक होनेपर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञानका नाश होनेपर) श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जाननेमें न आनेवाले), अलख (स्थूल दृष्टिसे देखनेमें न आनेवाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम(उपमारहित), सब विकारोंसे रहित और भेदशून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥ ९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही कृपालु श्रीरामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओंके हितके लिये मनुष्यशरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुननेसे जगत् के जंजाल मिट जाते हैं॥ ९३॥

भागसूचना

मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम

मूल (चौपाई)

सखा समुझि अस परिहरि मोहू।
सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा।
जागे जग मंगल सुखदारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखा! ऐसा समझ, मोहको त्यागकर श्रीसीतारामजीके चरणोंमें प्रेम करो। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत् का मङ्गल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले श्रीरामजी जागे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकल सौच करि राम नहावा।
सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए।
देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौचके सब कार्य करके [नित्य] पवित्र और सुजान श्रीरामचन्द्रजीने स्नान किया। फिर बड़का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित उस दूधसे सिरपर जटाएँ बनायीं। यह देखकर सुमन्त्रजीके नेत्रोंमें जल छा गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

हृदयँ दाहु अति बदन मलीना।
कह कर जोरि बचन अति दीना॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा।
लै रथु जाहु राम कें साथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका हृदय अत्यन्त जलने लगा, मुँह मलिन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन वचन बोले—हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथजीने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजीके साथ जाओ;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई।
आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी।
संसय सकल सँकोच निबेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वन दिखाकर, गङ्गास्नान कराकर दोनों भाइयोंको तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोचको दूर करके लक्ष्मण, राम, सीताको फिरा लाना॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नृप अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥ ९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराजने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूँ; मैं आपकी बलिहारी हूँ। इस प्रकार विनती करके वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें गिर पड़े और उन्होंने बालककी तरह रो दिया॥ ९४॥

मूल (चौपाई)

तात कृपा करि कीजिअ सोई।
जातें अवध अनाथ न होई॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा।
तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा—] हे तात! कृपा करके वही कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो। श्रीरामजीने मन्त्रीको उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात! आपने तो धर्मके सभी सिद्धान्तोंको छान डाला है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिबि दधीच हरिचंद नरेसा।
सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना।
धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्रने धर्मके लिये करोड़ों (अनेकों) कष्ट सहे थे। बुद्धिमान् राजा रन्तिदेव और बलि बहुत-से संकट सहकर भी धर्मको पकड़े रहे (उन्होंने धर्मका परित्याग नहीं किया)॥ २॥

मूल (चौपाई)

धरमु न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा।
तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद, शास्त्र और पुराणोंमें कहा गया है कि सत्यके समान दूसरा धर्म नहीं है। मैंने उस धर्मको सहज ही पा लिया है। इस [सत्यरूपी धर्म] का त्याग करनेसे तीनों लोकोंमें अपयश छा जायगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संभावित कहुँ अपजस लाहू।
मरन कोटि सम दारुन दाहू॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ।
दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिष्ठित पुरुषके लिये अपयशकी प्राप्ति करोड़ों मृत्युके समान भीषण सन्ताप देनेवाली है। हे तात! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ! लौटकर उत्तर देनेमें भी पापका भागी होता हूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥ ९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जाकर पिताजीके चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कारके साथ ही हाथ जोड़कर विनती करियेगा कि हे तात! आप मेरी किसी बातकी चिन्ता न करें॥ ९५॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें।
बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें।
दुख न पाव पितु सोच हमारें॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप भी पिताके समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकारसे वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगोंके सोचमें दुःख न पावें॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि रघुनाथ सचिव संबादू।
भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी।
प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी और सुमन्त्रका यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियोंसहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजीने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सकुचि राम निज सपथ देवाई।
लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू।
सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमन्त्रजीसे कहा कि आप जाकर लक्ष्मणका यह सन्देश न कहियेगा। सुमन्त्रने फिर राजाका सन्देश कहा कि सीता वनके क्लेश न सह सकेंगी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया।
सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना।
मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव जिस तरह सीता अयोध्याको लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्रजीको वही उपाय करना चाहिये। नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारेका होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जलके मछली नहीं जीती॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥ ९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके मायके (पिताके घर) और ससुरालमें सब सुख हैं। जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तबतक वे जब जहाँ जी चाहे, वहीं सुखसे रहेंगी॥ ९६॥

मूल (चौपाई)

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती।
आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना।
सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेमसे) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने पिताका सन्देश सुनकर सीताजीको करोड़ों (अनेकों) प्रकारसे सीख दी॥ १॥

मूल (चौपाई)

सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू।
फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही।
सुनहु प्रानपति परम सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उन्होंने कहा—] जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाय। पतिके वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं—हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु करुनामय परम बिबेकी।
तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई।
कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। [कृपा करके विचार तो कीजिये] शरीरको छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है? सूर्यकी प्रभा सूर्यको छोड़कर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमाको त्यागकर कहाँ जा सकती है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई।
कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी।
उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पतिको प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मन्त्रीसे सुहावनी वाणी कहने लगीं—आप मेरे पिताजी और ससुरजीके समान मेरा हित करनेवाले हैं। आपको मैं बदलेमें उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥ ९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु हे तात! मैं आर्त्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूँ, आप बुरा न मानियेगा। आर्यपुत्र (स्वामी)के चरणकमलोंके बिना जगत् में जहाँतक नाते हैं सभी मेरे लिये व्यर्थ हैं॥ ९७॥

मूल (चौपाई)

पितु बैभव बिलास मैं डीठा।
नृप मनि मुुकुट मिलित पद पीठा॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें।
पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पिताजीके ऐश्वर्यकी छटा देखी है, जिनके चरण रखनेकी चौकीसे सर्वशिरोमणि राजाओंके मुकुट मिलते हैं (अर्थात् बड़े-बड़े राजा जिनके चरणोंमें प्रणाम करते हैं) ऐसे पिताका घर भी, जो सब प्रकारके सुखोंका भण्डार है, पतिके बिना मेरे मनको भूलकर भी नहीं भाता॥ १॥

मूल (चौपाई)

ससुर चक्‍कवइ कोसलराऊ।
भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई।
अरध सिंघासन आसनु देई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट् हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकोंमें प्रकट है; इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासनपर बैठनेके लिये स्थान देता है,॥ २॥

मूल (चौपाई)

ससुर एतादृस अवध निवासू।
प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा।
मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे [ऐश्वर्य और प्रभावशाली] ससुर; [उनकी राजधानी] अयोध्याका निवास; प्रिय कुटुम्बी और माताके समान सासुएँ—ये कोई भी श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी रजके बिना मुझे स्वप्नमें भी सुखदायक नहीं लगते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अगम पंथ बनभूमि पहारा।
करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा।
मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ; कोल,भील, हिरन और पक्षी—प्राणपति (रघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले होंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥ ९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सास और ससुरके पाँव पड़कर, मेरी ओरसे विनती कीजियेगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें; मैं वनमें स्वभावसे ही सुखी हूँ॥ ९८॥

मूल (चौपाई)

प्राननाथ प्रिय देवर साथा।
बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें।
मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरोंमें अग्रगण्य तथा धनुष और [बाणोंसे भरे] तरकश धारण किये मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं। इससे मुझे न रास्तेकी थकावट है, न भ्रम है, और न मेरे मनमें कोई दुःख ही है। आप मेरे लिये भूलकर भी सोच न करें॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी।
भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना।
कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्र सीताजीकी शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गये, जैसे साँप मणि खो जानेपर। नेत्रोंसे कुछ सूझता नहीं, कानोंसे सुनायी नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गये, कुछ कह नहीं सकते॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती।
तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे।
उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने उनका बहुत प्रकारसे समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई। साथ चलनेके लिये मन्त्रीने अनेकों यत्न किये (युक्तियाँ पेश कीं), पर रघुनन्दन श्रीरामजी [उन सब युक्तियोंका] यथोचित उत्तर देते गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मेटि जाइ नहिं राम रजाई।
कठिन करमगति कछु न बसाई॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई।
फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी आज्ञा मेटी नहीं जा सकती। कर्मकी गति कठिन है, उसपर कुछ भी वश नहीं चलता। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजीके चरणोंमें सिर नवाकर सुमन्त्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रथु हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्रने रथको हाँका, घोड़े श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देख-देखकर हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषादलोग विषादके वश होकर सिर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते हैं॥ ९९॥

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