१५ श्रीरामका शृङ्गवेरपुर पहुँचना, निषादके द्वारा सेवा

दोहा

मूल (दोहा)

सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणोंसे रहित, मायातीत दिव्य मङ्गलविग्रह) सच्चिदानन्द-कन्दस्वरूप सूर्यकुलके ध्वजारूप भगवान् श्रीरामचन्द्रजी मनुष्योंके सदृश ऐसे चरित्र करते हैं जो संसाररूपी समुद्रके पार उतरनेके लिये पुलके समान हैं॥८७॥

मूल (चौपाई)

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई।
मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा।
मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब निषादराज गुहने यह खबर पायी, तब आनन्दित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बन्धुओंको बुला लिया और भेंट देनेके लिये फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों)-में भरकर मिलनेके लिये चला। उसके हृदयमें हर्षका पार नहीं था॥ १॥

मूल (चौपाई)

करि दंडवत भेंट धरि आगें।
प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥
सहज सनेह बिबस रघुराई।
पूँछी कुसल निकट बैठाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

दण्डवत् करके भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेमसे प्रभुको देखने लगा। श्रीरघुनाथजीने स्वाभाविक स्नेहके वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पूछी॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाथ कुसल पद पंकज देखें।
भयउँ भागभाजन जन लेखें॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा।
मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषादराजने उत्तर दिया—हे नाथ! आपके चरणकमलके दर्शनसे ही कुशल है [आपके चरणारविन्दोंके दर्शनकर] आज मैं भाग्यवान् पुरुषोंकी गिनतीमें आ गया। हे देव! यह पृथ्वी,धन और घर सब आपका है। मैं तो परिवारसहित आपका नीच सेवक हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ।
थापिअ जनु सबु लोगु सिहाऊ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना।
मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब कृपा करके पुर (शृंगवेरपुर)-में पधारिये और इस दासकी प्रतिष्ठा बढ़ाइये, जिससे सब लोग मेरे भाग्यकी बड़ाई करें। श्रीरामचन्द्रजीने कहा—हे सुजान सखा! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। परन्तु पिताजीने मुझको और ही आज्ञा दी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उनके आज्ञानुसार] मुझे चौदह वर्षतक मुनियोंका व्रत और वेष धारणकर और मुनियोंके योग्य आहार करते हुए वनमें ही बसना है, गाँवके भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुहको बड़ा दुःख हुआ॥ ८८॥

मूल (चौपाई)

राम लखन सिय रूप निहारी।
कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे।
जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीके रूपको देखकर गाँवके स्त्री-पुरुष प्रेमके साथ चर्चा करते हैं। [कोई कहती है—] हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे [सुन्दर सुकुमार] बालकोंको वनमें भेज दिया है!॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक कहहिं भल भूपति कीन्हा।
लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना।
तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई एक कहते हैं—राजाने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्माने नेत्रोंका लाभ दिया। तब निषादराजने हृदयमें अनुमान किया, तो अशोकके पेड़को [उनके ठहरनेके लिये] मनोहर समझा॥ २॥

मूल (चौपाई)

लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा।
कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए।
रघुबर संध्या करन सिधाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने श्रीरघुनाथजीको ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्रीरामचन्द्रजीने [देखकर] कहा कि यह सब प्रकारसे सुन्दर है। पुरवासी लोग जोहार (वन्दना) करके अपने-अपने घर लौटे और श्रीरामचन्द्रजी सन्ध्या करने पधारे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गुहँ सँवारि साँथरी डसाई।
कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी।
दोना भरि भरि राखेसि पानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुहने [इसी बीच] कुश और कोमल पत्तोंकी कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी; और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनोंमें भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया [अथवा अपने हाथसे फल-मूल दोनोंमें भर-भरकर रख दिये]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥ ८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी, सुमन्त्रजी और भाई लक्ष्मणजीसहित कन्द-मूल-फल खाकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी लेट गये। भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे॥ ८९॥

मूल (चौपाई)

उठे लखनु प्रभु सोवत जानी।
कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन।
जागन लगे बैठि बीरासन॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणीसे मन्त्री सुमन्त्रजीको सोनेके लिये कहकर वहाँसे कुछ दूरपर धनुष-बाणसे सजकर, वीरासनसे बैठकर जागने (पहरा देने) लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती।
ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई।
कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुहने विश्वासपात्र पहरेदारोंको बुलाकर अत्यन्त प्रेमसे जगह-जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमरमें तरकस बाँधकर तथा धनुषपर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजीके पास जा बैठा॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोवत प्रभुहि निहारि निषादू।
भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई।
बचन सप्रेम लखन सन कहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको जमीनपर सोते देखकर प्रेमवश निषादराजके हृदयमें विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बहने लगा। वह प्रेमसहित लक्ष्मणजीसे वचन कहने लगा—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भूपति भवन सुभायँ सुहावा।
सुरपति सदनु न पटतर पावा॥
मनिमय रचित चारु चौबारे।
जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथजीका महल तो स्वभावसे ही सुन्दर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुन्दर मणियोंके रचे चौबारे (छतके ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें मानो रतिके पति कामदेवने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है;॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुन्दर भोगपदार्थोंसे पूर्ण और फूलोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं; जहाँ सुन्दर पलँग और मणियोंके दीपक हैं तथा सब प्रकारका पूरा आराम है;॥ ९०॥

मूल (चौपाई)

बिबिध बसन उपधान तुराईं।
छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं।
निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ [ओढ़ने-बिछानेके] अनेकों वस्त्र, तकिये और गद्दे हैं, जो दूधके फेनके समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुन्दर हैं; वहाँ (उन चौबारोंमें) श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी रातको सोया करते थे और अपनी शोभासे रति और कामदेवके गर्वको हरण करते थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

ते सिय रामु साथरीं सोए।
श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥
मातु पिता परिजन पुरबासी।
सखा सुसील दास अरु दासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही श्रीसीता और श्रीरामजी आज घास-फूसकी साथरीपर थके हुए बिना वस्त्रके ही सोये हैं। ऐसी दशामें वे देखे नहीं जाते। माता, पिता, कुटुम्बी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभावके दास और दासियाँ—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं।
महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ।
ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब जिनकी अपने प्राणोंकी तरह सार-सँभार करते थे, वही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आज पृथ्वीपर सो रहे हैं। जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत् में प्रसिद्ध है; जिनके ससुर इन्द्रके मित्र रघुराज दशरथजी हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामचंदु पति सो बैदेही।
सोवत महि बिधि बाम न केही॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू।
करम प्रधान सत्य कह लोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

और पति श्रीरामचन्द्रजी हैं, वही जानकीजी आज जमीनपर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीताजी और श्रीरामचन्द्रजी क्या वनके योग्य हैं? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य)ही प्रधान है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥ ९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकयराजकी लड़की नीचबुद्धि कैकेयीने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनन्दन श्रीरामजीको और जानकीजीको सुखके समय दुःख दिया॥ ९१॥

मूल (चौपाई)

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी।
कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी।
राम सीय महि सयन निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सूर्यकुलरूपी वृक्षके लिये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धिने सम्पूर्ण विश्वको दुःखी कर दिया। श्रीराम-सीताको जमीनपर सोते हुए देखकर निषादको बड़ा दुःख हुआ॥ १॥

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