१४ श्रीराम-सीता-लक्ष्मणका वनगमन और नगर-निवासियोंको सोये छोड़कर आगे बढ़ना

दोहा

मूल (दोहा)

सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनका सब साज-सामान सजकर (वनके लिये आवश्यक वस्तुओंको साथ लेकर) श्रीरामचन्द्रजी स्त्री (श्रीसीताजी) और भाई (लक्ष्मणजी)-सहित, ब्राह्मण और गुरुके चरणोंकी वन्दना करके सबको अचेत करके चले॥ ७९॥

मूल (चौपाई)

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े।
देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए।
बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलसे निकलकर श्रीरामचन्द्रजी वसिष्ठजीके दरवाजेपर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग विरहकी अग्निमें जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया। फिर श्रीरामचन्द्रजीने ब्राह्मणोंकी मण्डलीको बुलाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुर सन कहि बरषासन दीन्हे।
आदर दान बिनय बस कीन्हे॥
जाचक दान मान संतोषे।
मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीसे कहकर उन सबको वर्षाशन (वर्षभरका भोजन) दिये और आदर, दान तथा विनयसे उन्हें वशमें कर लिया। फिर याचकोंको दान और मान देकर सन्तुष्ट किया तथा मित्रोंको पवित्र प्रेमसे प्रसन्न किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

दासीं दास बोलाइ बहोरी।
गुरहि सौंपि बोले कर जोरी॥
सब कै सार सँभार गोसाईं।
करबि जनक जननी की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर दास-दासियोंको बुलाकर उन्हें गुरुजीको सौंपकर, हाथ जोड़कर बोले—हे गुसाईं! इन सबकी माता-पिताके समान सार-सँभार (देख-रेख) करते रहियेगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बारहिं बार जोरि जुग पानी।
कहत रामु सब सन मृदु बानी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी।
जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी बार-बार दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकारसे हितकारी मित्र वही होगा जिसकी चेष्टासे महाराज सुखी रहें॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परम चतुर पुरवासी सज्जनो! आपलोग सब वही उपाय करियेगा जिससे मेरी सब माताएँ मेरे विरहके दुःखसे दुःखी न हों॥ ८०॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि राम सबहि समुझावा।
गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा॥
गनपति गौरि गिरीसु मनाई।
चले असीस पाइ रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रीरामजीने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजीके चरणकमलोंमें सिर नवाया। फिर गणेशजी, पार्वतीजी और कैलासपति महादेवजीको मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर श्रीरघुनाथजी चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम चलत अति भयउ बिषादू।
सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू।
हरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके चलते ही बड़ा भारी विषाद हो गया। नगरका आर्तनाद (हाहाकार) सुना नहीं जाता। लङ्कामें बुरे शकुन होने लगे, अयोध्यामें अत्यन्त शोक छा गया और देवलोकमें सब हर्ष और विषाद दोनोंके वशमें हो गये। [हर्ष इस बातका था कि अब राक्षसोंका नाश होगा और विषाद अयोध्यावासियोंके शोकके कारण था।]॥ २॥

मूल (चौपाई)

गइ मुरुछा तब भूपति जागे।
बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं।
केहि सुख लागि रहत तन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्छा दूर हुई, तब राजा जागे और सुमन्त्रको बुलाकर ऐसा कहने लगे—श्रीराम वनको चले गये, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने ये किस सुखके लिये शरीरमें टिक रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहि तें कवन ब्यथा बलवाना।
जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू।
लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे अधिक बलवती और कौन-सी व्यथा होगी जिस दुःखको पाकर प्राण शरीरको छोड़ेंगे। फिर धीरज धरकर राजाने कहा—हे सखा! तुम रथ लेकर श्रीरामके साथ जाओ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारोंको और सुकुमारी जानकीको रथमें चढ़ाकर, वन दिखलाकर चार दिनके बाद लौट आना॥ ८१॥

मूल (चौपाई)

जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई।
सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी।
फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि धैर्यवान् दोनों भाई न लौटें—क्योंकि श्रीरघुनाथजी प्रणके सच्चे और दृढ़तासे नियमका पालन करनेवाले हैं—तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीताजीको तो लौटा दीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

जब सिय कानन देखि डेराई।
कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू।
पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सीता वनको देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुरने ऐसा सन्देश कहा है कि हे पुत्री! तुम लौट चलो, वनमें बहुत क्लेश हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

पितुगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी।
रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा।
फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी पिताके घर, कभी ससुराल, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत-से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आयीं तो मेरे प्राणोंको सहारा हो जायगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाहिं त मोर मरनु परिनामा।
कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ।
रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो अन्तमें मेरा मरण ही होगा। विधाताके विपरीत होनेपर कुछ वश नहीं चलता। हा! राम, लक्ष्मण और सीताको लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमन्त्रजी राजाकी आज्ञा पाकर, सिर नवाकर और बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर वहाँ गये जहाँ नगरके बाहर सीताजीसहित दोनों भाई थे॥ ८२॥

मूल (चौपाई)

तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए।
करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई।
चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब (वहाँ पहुँचकर) सुमन्त्रने राजाके वचन श्रीरामचन्द्रजीको सुनाये और विनती करके उनको रथपर चढ़ाया। सीताजीसहित दोनों भाई रथपर चढ़कर हृदयमें अयोध्याको सिर नवाकर चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

चलत रामु लखि अवध अनाथा।
बिकल लोग सब लागे साथा॥
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं।
फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीको जाते हुए और अयोध्याको अनाथ [होते हुए] देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिये। कृपाके समुद्र श्रीरामजी उन्हें बहुत तरहसे समझाते हैं, तो वे [अयोध्याकी ओर] लौट जाते हैं; परन्तु प्रेमवश फिर लौट आते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

लागति अवध भयावनि भारी।
मानहुँ कालराति अँधिआरी॥
घोर जंतु सम पुर नर नारी।
डरपहिं एकहि एक निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अन्धकारमयी कालरात्रि ही हो। नगरके नर-नारी भयानक जन्तुओंके समान एक-दूसरेको देखकर डर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

घर मसान परिजन जनु भूता।
सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं।
सरित सरोबर देखि न जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

घर श्मशान, कुटुम्बी भूत-प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराजके दूत हैं। बगीचोंमें वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

करोड़ों घोड़े, हाथी, खेलनेके लिये पाले हुए हिरन, नगरके [गाय, बैल, बकरी आदि] पशु, पपीहे, मोर, कोयल,चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर—॥ ८३॥

मूल (चौपाई)

राम बियोग बिकल सब ठाढ़े।
जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी।
खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके वियोगमें सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ [ऐसे चुपचाप स्थिर होकर] खड़े हैं, मानो तसवीरोंमें लिखकर बनाये हुए हैं। नगर मानो फलोंसे परिपूर्ण बड़ा भारी सघन वन था। नगरनिवासी सब स्त्री-पुरुष बहुत-से पशु-पक्षी थे। (अर्थात् अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलोंको देनेवाली नगरी थी और सब स्त्री-पुरुष सुखसे उन फलोंको प्राप्त करते थे।)॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही।
जेहिं दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी।
चले लोग सब ब्याकुल भागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने कैकेयीको भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओंमें दुःसह दावाग्नि (भयानक आग) लगा दी। श्रीरामचन्द्रजीके विरहकी इस अग्निको लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल होकर भाग चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं।
राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू।
बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबने मनमें विचार कर लिया कि श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीके बिना सुख नहीं है। जहाँ श्रीरामजी रहेंगे, वहीं सारा समाज रहेगा। श्रीरामचन्द्रजीके बिना अयोध्यामें हमलोगोंका कुछ काम नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई।
सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही।
बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओंको भी दुर्लभ सुखोंसे पूर्ण घरोंको छोड़कर सब श्रीरामचन्द्रजीके साथ चल पड़े। जिनको श्रीरामजीके चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या कभी विषयभोग वशमें कर सकते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

बच्चों और बूढ़ोंको घरोंमें छोड़कर सब लोग साथ हो लिये। पहले दिन श्रीरघुनाथजीने तमसा नदीके तीरपर निवास किया॥ ८४॥

मूल (चौपाई)

रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी।
सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई।
बेगि पाइअहिं पीर पराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाको प्रेमवश देखकर श्रीरघुनाथजीके दयालु हृदयमें बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्रीरघुनाथजी करुणामय हैं। परायी पीड़ाको वे तुरंत पा जाते हैं (अर्थात् दूसरेका दुःख देखकर वे तुरंत स्वयं दुःखित हो जाते हैं)॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए।
बहुबिधि राम लोग समुझाए॥
किए धरम उपदेस घनेरे।
लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहकर श्रीरामजीने बहुत प्रकारसे लोगोंको समझाया और बहुतेरे धर्मसम्बन्धी उपदेश दिये; परन्तु प्रेमवश लोग लौटाये लौटते नहीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई।
असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई।
कछुक देवमायाँ मति मोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। श्रीरघुनाथजी असमञ्जसके अधीन हो गये (दुविधामें पड़ गये)। शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गये और कुछ देवताओंकी मायासे भी उनकी बुद्धि मोहित हो गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जबहिं जाम जुग जामिनि बीती।
राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता।
आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दो पहर रात बीत गयी, तब श्रीरामचन्द्रजीने प्रेमपूर्वक मन्त्री सुमन्त्रसे कहा—हे तात! रथके खोज मारकर (अर्थात् पहियोंके चिह्नोंसे दिशाका पता न चले इस प्रकार) रथको हाँकिये। और किसी उपायसे बात नहीं बनेगी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

शंकरजीके चरणोंमें सिर नवाकर श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथपर सवार हुए। मन्त्रीने तुरंत ही रथको, इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया॥ ८५॥

मूल (चौपाई)

जागे सकल लोग भएँ भोरू।
गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं।
राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि श्रीरघुनाथजी चले गये। कहीं रथका खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू।
भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥
एकहि एक देहिं उपदेसू।
तजे राम हम जानि कलेसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो समुद्रमें जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियोंका समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो। वे एक-दूसरेको उपदेश देते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीने, हमलोगोंको क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

निंदहिं आपु सराहहिं मीना।
धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा।
तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे लोग अपनी निन्दा करते हैं और मछलियोंकी सराहना करते हैं। [कहते हैं—] श्रीरामचन्द्रजीके बिना हमारे जीनेको धिक्‍कार है। विधाताने यदि प्यारेका वियोग ही रचा, तो फिर उसने माँगनेपर मृत्यु क्यों नहीं दी!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि करत प्रलाप कलापा।
आए अवध भरे परितापा॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना।
अवधि आस सब राखहिं प्राना॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बहुत-से प्रलाप करते हुए वे सन्तापसे भरे हुए अयोध्याजीमें आये। उन लोगोंके विषम वियोगकी दशाका वर्णन नहीं किया जा सकता। [चौदह सालकी] अवधिकी आशासे ही वे प्राणोंको रख रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

[सब] स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दुःखी हो गये जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्यके बिना दीन हो जाते हैं॥ ८६॥

मूल (चौपाई)

सीता सचिव सहित दोउ भाई।
सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी।
कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी और मन्त्रीसहित दोनों भाई शृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गङ्गाजीको देखकर श्रीरामजी रथसे उतर पड़े और बड़े हर्षके साथ उन्होंने दण्डवत् की॥ १॥

मूल (चौपाई)

लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा।
सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी, सुमन्त्र और सीताजीने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्रीरामचन्द्रजीने सुख पाया। गङ्गाजी समस्त आनन्द-मङ्गलोंकी मूल हैं। वे सब सुखोंकी करनेवाली और सब पीड़ाओंकी हरनेवाली हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा।
रामु बिलोकहिं गंग तरंगा॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई।
बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक कथा-प्रसङ्ग कहते हुए श्रीरामजी गङ्गाजीकी तरङ्गोंको देख रहे हैं। उन्होंने मन्त्रीको, छोटे भाई लक्ष्मणजीको और प्रिया सीताजीको देवनदी गङ्गाजीकी बड़ी महिमा सुनायी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ।
सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू।
तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्गका सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरणमात्रसे [बार-बार जन्मने और मरनेका] महान् श्रम मिट जाता है, उनको ‘श्रम’ होना—यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है॥ ४॥

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