१३ श्रीरामजी, लक्ष्मणजी, सीताजीका महाराज दशरथके पास विदा माँगने जाना, दशरथजीका सीताजीको समझाना

मूल (चौपाई)

सचिवँ उठाइ राउ बैठारे।
कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी।
ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं’, ये प्रिय वचन कहकर मन्त्रीने राजाको उठाकर बैठाया। सीतासहित दोनों पुत्रोंको [वनके लिये तैयार] देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीतासहित दोनों सुन्दर पुत्रोंको देख-देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेहवश बारंबार उन्हें हृदयसे लगा लेते हैं॥ ७६॥

मूल (चौपाई)

सकइ न बोलि बिकल नरनाहू।
सोक जनित उर दारुन दाहू॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा।
उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदयमें शोकसे उत्पन्न हुआ भयानक सन्ताप है। तब रघुकुलके वीर श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रेमसे चरणोंमें सिर नवाकर उठकर विदा माँगी—॥ १॥

मूल (चौपाई)

पितु असीस आयसु मोहि दीजै।
हरष समय बिसमउ कत कीजै॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू।
जसु जग जाइ होइ अपबादू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पिताजी! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिये। हर्षके समय आप शोक क्यों कर रहे हैं? हे तात! प्रियके प्रेमवश प्रमाद (कर्तव्यकर्ममें त्रुटि) करनेसे जगत् में यश जाता रहेगा और निन्दा होगी॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ।
बैठारे रघुपति गहि बाहाँ॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं।
रामु चराचर नायक अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर स्नेहवश राजाने उठकर श्रीरघुनाथजीकी बाँह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा— हे तात! सुनो, तुम्हारे लिये मुनिलोग कहते हैं कि श्रीराम चराचरके स्वामी हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुभ अरु असुभ करम अनुहारी।
ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई।
निगम नीति असि कह सबु कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभ और अशुभ कर्मोंके अनुसार ईश्वर हृदयमें विचारकर फल देता है। जो कर्म करता है वही फल पाता है। ऐसी वेदकी नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

[किन्तु इस अवसरपर तो इसके विपरीत हो रहा है,] अपराध तो कोई और ही करे और उसके फलका भोग कोई और ही पावे। भगवान् की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जाननेयोग्य जगत् में कौन है?॥ ७७॥

मूल (चौपाई)

रायँ राम राखन हित लागी।
बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
लखी राम रुख रहत न जाने।
धरम धुरंधर धीर सयाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीको रखनेके लिये छल छोड़कर बहुत-से उपाय किये। पर जब उन्होंने धर्मधुरन्धर, धीर और बुद्धिमान् श्रीरामजीका रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पड़े,॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही।
अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए।
सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाने सीताजीको हृदयसे लगा लिया और बड़े प्रेमसे बहुत प्रकारकी शिक्षा दी। वनके दुःसह दुःख कहकर सुनाये। फिर सास, ससुर तथा पिताके [पास रहनेके] सुखोंको समझाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सिय मनु राम चरन अनुरागा।
घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई।
कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु सीताजीका मन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें अनुरक्त था। इसलिये उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा। फिर और सब लोगोंने भी वनमें विपत्तियोंकी अधिकता बता-बताकर सीताजीको समझाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सचिव नारि गुर नारि सयानी।
सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू।
करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्री सुमन्त्रजीकी पत्नी और गुरु वसिष्ठजीकी स्त्री अरुन्धतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियाँ स्नेहके साथ कोमल वाणीसे कहती हैं कि तुमको तो [राजाने] वनवास दिया नहीं है। इसलिये जो ससुर, गुरु और सास कहें, तुम तो वही करो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुननेपर सीताजीको अच्छी नहीं लगी। [वे इस प्रकार व्याकुल हो गयीं] मानो शरद्-ऋतुके चन्द्रमाकी चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो॥ ७८॥

मूल (चौपाई)

सीय सकुच बस उतरु न देई।
सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी।
आगें धरि बोली मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातोंको सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियोंके वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि)और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्रीरामचन्द्रजीके आगे रख दिये और कोमल वाणीसे कहा—॥ १॥

मूल (चौपाई)

नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा।
सील सनेह न छाड़िहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ।
तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुवीर! राजाको तुम प्राणोंके समान प्रिय हो। भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदयके) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाय, पर तुम्हें वन जानेको वे कभी न कहेंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस बिचारि सोइ करहु जो भावा।
राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बान सम लागे।
करहिं न प्रान पयान अभागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माताकी सीख सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने [बड़ा] सुख पाया। परन्तु राजाको ये वचन बाणके समान लगे। [वे सोचने लगे] अब भी अभागे प्राण [क्यों] नहीं निकलते!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लोग बिकल मुरुछित नरनाहू।
काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई।
चले जनक जननिहि सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मूर्च्छित हो गये, लोग व्याकुल हैं। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्रीरामचन्द्रजी तुरंत मुनिका वेष बनाकर और माता-पिताको सिर नवाकर चल दिये॥ ४॥

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