०९ श्रीसीता-राम-संवाद

मूल (चौपाई)

मातु समीप कहत सकुचाहीं।
बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावनु सुनहू।
आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताके सामने सीताजीसे कुछ कहनेमें सकुचाते हैं। पर मनमें यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले—हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो। मनमें कुछ दूसरी तरह न समझ लेना॥ १॥

मूल (चौपाई)

आपन मोर नीक जौं चहहू।
बचनु हमार मानि गृह रहहू॥
आयसु मोर सासु सेवकाई।
सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी आज्ञाका पालन होगा, सासकी सेवा बन पड़ेगी। घर रहनेमें सभी प्रकारसे भलाई है॥ २॥

मूल (चौपाई)

एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा।
सादर सासु ससुर पद पूजा॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी।
होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदरपूर्वक सास-ससुरके चरणोंकी पूजा (सेवा) करनेसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेमसे व्याकुल होनेके कारण उनकी बुद्धि भोली हो जायगी (वे अपने-आपको भूल जायँगी),॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी।
सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही।
सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुन्दरी! तब-तब तुम कोमल वाणीसे पुरानी कथाएँ कह-कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगन्ध हैं, मैं यह स्वभावसे ही कहता हूँ कि मैं तुम्हें केवल माताके लिये ही घरपर रखता हूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

[मेरी आज्ञा मानकर घरपर रहनेसे] गुरु और वेदके द्वारा सम्मत धर्म [के आचरण] का फल तुम्हें बिना ही क्लेशके मिल जाता है। किन्तु हठके वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सबने संकट ही सहे॥ ६१॥

मूल (चौपाई)

मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी।
बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा।
सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिताके वचनको सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुन्दरी! हमारी यह सीख सुनो!॥ १॥

मूल (चौपाई)

जौं हठ करहु प्रेमबस बामा।
तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयंकरु भारी।
घोर घामु हिम बारि बयारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाममें दुःख पाओगी। वन बड़ा कठिन (क्लेशदायक) और भयानक है। वहाँकी धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कुस कंटक मग काँकर नाना।
चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे।
मारग अगम भूमिधर भारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें कुश, काँटे और बहुत-से कंकड़ हैं। उनपर बिना जूतेके पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरण-कमल कोमल और सुन्दर हैं और रास्तेमें बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कंदर खोह नदीं नद नारे।
अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा।
करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतोंकी गुफाएँ, खोह (दर्रे), नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखातक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे [भयानक] शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमीनपर सोना, पेड़ोंकी छालके वस्त्र पहनना और कन्द, मूल, फलका भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब कुछ अपने-अपने समयके अनुकूल ही मिल सकेगा॥ ६२॥

मूल (चौपाई)

नर अहार रजनीचर चरहीं।
कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी।
बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंको खानेवाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकारके कपट-रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़का पानी बहुत ही लगता है। वनकी विपत्ति बखानी नहीं जा सकती॥ १॥

मूल (चौपाई)

ब्याल कराल बिहग बन घोरा।
निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ।
मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषोंको चुरानेवाले राक्षसोंके झुंड-के-झुंड रहते हैं। वनकी [भयंकरता] याद आनेमात्रसे धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर हे मृगलोचनि! तुम तो स्वभावसे ही डरपोक हो!॥ २॥

मूल (चौपाई)

हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू।
सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली।
जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हंसगमनी! तुम वनके योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जानेकी बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे (बुरा कहेंगे)। मानसरोवरके अमृतके समान जलसे पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्रमें जी सकती है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नव रसाल बन बिहरनसीला।
सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी।
चंदबदनि दुखु कानन भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नवीन आमके वनमें विहार करनेवाली कोयल क्या करीलके जंगलमें शोभा पाती है? हे चन्द्रमुखी! हृदयमें ऐसा विचारकर तुम घरहीपर रहो। वनमें बड़ा कष्ट है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वाभाविक ही हित चाहनेवाले गुरु और स्वामीकी सीखको जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदयमें भरपेट पछताता है और उसके हितकी हानि अवश्य होती है॥ ६३॥

मूल (चौपाई)

सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के।
लोचन ललित भरे जल सिय के॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें।
चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रियतमके कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजीके सुन्दर नेत्र जलसे भर गये। श्रीरामजीकी यह शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हुई, जैसे चकवीको शरद्-ऋतुकी चाँदनी रात होती है॥ १॥

मूल (चौपाई)

उतरु न आव बिकल बैदेही।
तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी।
धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीसे कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रोंके जल (आँसुओं) को जबर्दस्ती रोककर वे पृथ्वीकी कन्या सीताजी हृदयमें धीरज धरकर,॥ २॥

मूल (चौपाई)

लागि सासु पग कह कर जोरी।
छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई।
जेहि बिधि मोर परम हित होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सासके पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं—हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाईको क्षमा कीजिये। मुझे प्राणपतिने वही शिक्षा दी है जिससे मेरा परम हित हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं।
पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु मैंने मनमें समझकर देख लिया कि पतिके वियोगके समान जगत् में कोई दुःख नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्राणनाथ! हे दयाके धाम! हे सुन्दर! हे सुखोंके देनेवाले! हे सुजान! हे रघुकुलरूपी कुमुदके खिलानेवाले चन्द्रमा! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिये नरकके समान है॥ ६४॥

मूल (चौपाई)

मातु पिता भगिनी प्रिय भाई।
प्रिय परिवारु सुहृद समुदाई॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई।
सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता, पिता, बहन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रोंका समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बान्धव), सहायक और सुन्दर, सुशील और सुख देनेवाला पुत्र—॥ १॥

मूल (चौपाई)

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।
पति बिहीन सबु सोक समाजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! जहाँतक स्नेह और नाते हैं, पतिके बिना स्त्रीको सभी सूर्यसे भी बढ़कर तपानेवाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पतिके बिना स्त्रीके लिये यह सब शोकका समाज है॥ २॥

मूल (चौपाई)

भोग रोगसम भूषन भारू।
जम जातना सरिस संसारू॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं।
मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोग रोगके समान हैं, गहने भाररूप हैं और संसार यम-यातना (नरककी पीड़ा) के समान है। हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत् में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें।
सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बिना जीवके देह और बिना जलके नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुषके स्त्री है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद्-[पूर्णिमा] के निर्मल चन्द्रमाके समान मुख देखनेसे मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षोंकी छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी (पत्तोंकी बनी झोंपड़ी) ही स्वर्गके समान सुखोंकी मूल होगी॥ ६५॥

मूल (चौपाई)

बनदेबीं बनदेव उदारा।
करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई।
प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदार हृदयके वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुरके समान मेरी सार-सँभार करेंगे, और कुशा और पत्तोंकी सुन्दर साथरी (बिछौना) ही प्रभुके साथ कामदेवकी मनोहर तोशकके समान होगी॥ १॥

मूल (चौपाई)

कंद मूल फल अमिअ अहारू।
अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी।
रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कन्द, मूल और फल ही अमृतके समान आहार होंगे और [वनके] पहाड़ ही अयोध्याके सैकड़ों राजमहलोंके समान होंगे। क्षण-क्षणमें प्रभुके चरणकमलोंको देख-देखकर मैं ऐसी आनन्दित रहूँगी जैसी दिनमें चकवी रहती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

बन दुख नाथ कहे बहुतेरे।
भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना।
सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपने वनके बहुत-से दुःख और बहुत-से भय, विषाद और सन्ताप कहे। परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग [से होनेवाले दुःख] के लवलेशके समान भी नहीं हो सकते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि।
लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी।
करुनामय उर अंतरजामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा जीमें जानकर, हे सुजानशिरोमणि ! आप मुझे साथ ले लीजिये, यहाँ न छोड़िये। हे स्वामी! मैं अधिक क्या विनती करूँ? आप करुणामय हैं और सबके हृदयके अंदरकी जाननेवाले हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दीनबन्धु! हे सुन्दर! हे सुख देनेवाले! हे शील और प्रेमके भण्डार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्यामें रखते हैं तो जान लीजिये कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे॥ ६६॥

मूल (चौपाई)

मोहि मग चलत न होइहि हारी।
छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं।
मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षण-क्षणमें आपके चरणकमलोंको देखते रहनेसे मुझे मार्ग चलनेमें थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रकारसे आपकी सेवा करूँगी और मार्ग चलनेसे होनेवाली सारी थकावटको दूर कर दूँगी॥ १॥

मूल (चौपाई)

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं।
करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें।
कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके पैर धोकर, पेड़ोंकी छायामें बैठकर, मनमें प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीनेकी बूँदोंसहित श्याम शरीरको देखकर—प्राणपतिके दर्शन करते हुए दुःखके लिये मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

सम महि तृन तरुपल्लव डासी।
पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही।
लागिहि तात बयारि न मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

समतल भूमिपर घास और पेड़ोंके पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्तिको देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा।
सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके साथ [रहते] मेरी ओर [आँख उठाकर] देखनेवाला कौन है (अर्थात् कोई नहीं देख सकता)! जैसे सिंहकी स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वनके योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय-भोग?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा तो, हे प्रभु! [मालूम होता है] ये पामर प्राण आपके वियोगका भीषण दुःख सहेंगे॥ ६७॥

मूल (चौपाई)

अस कहि सीय बिकल भइ भारी।
बचन बियोगु न सकी सँभारी॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना।
हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गयीं। वे वचनके वियोगको भी न सँभाल सकीं। (अर्थात् शरीरसे वियोगकी बात तो अलग रही, वचनसे भी वियोगकी बात सुनकर वे अत्यन्त विकल हो गयीं) उनकी यह दशा देखकर श्रीरघुनाथजीने अपने जीमें जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहाँ रखनेसे ये प्राणोंको न रखेंगी॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा।
परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू।
बेगि करहु बन गवन समाजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कृपालु, सूर्यकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वनको चलो। आज विषाद करनेका अवसर नहीं है। तुरंत वनगमनकी तैयारी करो॥ २॥

Misc Detail