०२ रामराज्याभिषेककी तैयारी, देवताओंकी व्याकुलता तथा सरस्वतीजीसे उनकी प्रार्थना

दोहा

मूल (दोहा)

सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबके हृदयमें ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजीको मनाकर (प्रार्थना करके) कहते हैं कि राजा अपने जीते-जी श्रीरामचन्द्रजीको युवराजपद दे दें॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक समय सब सहित समाजा।
राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू।
राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय रघुकुलके राजा दशरथजी अपने सारे समाजसहित राजसभामें विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्योंकी मूर्ति हैं, उन्हें श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें।
लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुखको रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [पृथ्वी, आकाश, पाताल] तीनों भुवनोंमें और [भूत, भविष्य, वर्तमान] तीनों कालोंमें दशरथजीके समान बड़भागी [और] कोई नहीं है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंगलमूल रामु सुत जासू।
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा।
बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मङ्गलोंके मूल श्रीरामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजाने स्वाभाविक ही हाथमें दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुटको सीधा किया॥३॥

मूल (चौपाई)

श्रवन समीप भए सित केसा।
मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू।
जीवन जनम लाहु किन लेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

[देखा कि] कानोंके पास बाल सफेद हो गये हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन्! श्रीरामचन्द्रजीको युवराज-पद देकर अपने जीवन और जन्मका लाभ क्यों नहीं लेते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें यह विचार लाकर (युवराज-पद देनेका निश्चय कर) राजा दशरथजीने शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेमसे पुलकितशरीर हो आनन्दमग्न मनसे उसे गुरु वसिष्ठजीको जा सुनाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक।
भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी।
जे हमारे अरि मित्र उदासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा—हे मुनिराज! [कृपया यह निवेदन] सुनिये। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकारसे सब योग्य हो गये हैं। सेवक, मन्त्री, सब नगरनिवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र या उदासीन हैं—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही।
प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं।
करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभीको श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। [उनके रूपमें] आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी! सारे ब्राह्मण, परिवारसहित आपके ही समान उनपर स्नेह करते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग गुरुके चरणोंकी रजको मस्तकपर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्यको अपने वशमें कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसीने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण-रजकी पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब अभिलाषु एकु मन मोरें।
पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू।
कहेउ नरेस रजायसु देहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मेरे मनमें एक ही अभिलाषा है। हे नाथ! वह भी आपहीके अनुग्रहसे पूरी होगी। राजाका सहज प्रेम देखकर मुनिने प्रसन्न होकर कहा—नरेश! आज्ञा दीजिये (कहिये, क्या अभिलाषा है?)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओंको देनेवाला है। हे राजाओंके मुकुटमणि! आपके मनकी अभिलाषा फलका अनुगमन करती है (अर्थात् आपके इच्छा करनेके पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी।
बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू।
कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने जीमें गुरुजीको सब प्रकारसे प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणीसे बोले—हे नाथ! श्रीरामचन्द्रको युवराज कीजिये। कृपा करके कहिये (आज्ञा दीजिये) तो तैयारी की जाय॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोहि अछत यहु होइ उछाहू।
लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं।
यह लालसा एक मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे जीते-जी यह आनन्द-उत्सव हो जाय, [जिससे] सब लोग अपने नेत्रोंका लाभ प्राप्त करें। प्रभु (आप)-के प्रसादसे शिवजीने सब कुछ निबाह दिया (सब इच्छाएँ पूर्ण कर दीं), केवल यही एक लालसा मनमें रह गयी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ।
जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए।
मंगल मोद मूल मन भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

[इस लालसाके पूर्ण हो जानेपर] फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथजीके मङ्गल और आनन्दके मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मनमें बहुत प्रसन्न हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं।
जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी।
रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वसिष्ठजीने कहा—] हे राजन्! सुनिये, जिनसे विमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जीकी जलन नहीं जाती, वही स्वामी (सर्वलोकमहेश्वर) श्रीरामजी आपके पुत्र हुए हैं, जो पवित्र प्रेमके अनुगामी हैं। [श्रीरामजी पवित्र प्रेमके पीछे-पीछे चलनेवाले हैं, इसीसे तो प्रेमवश आपके पुत्र हुए हैं]॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! अब देर न कीजिये; शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मङ्गल तभी है जब श्रीरामचन्द्रजी युवराज हो जायँ (अर्थात् उनके अभिषेकके लिये सभी दिन शुभ और मङ्गलमय हैं)॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए।
भूप सुमंगल बचन सुनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा आनन्दित होकर महलमें आये और उन्होंने सेवकोंको तथा मन्त्री सुमन्त्रको बुलवाया। उन लोगोंने ‘जय-जीव’ कहकर सिर नवाये। तब राजाने सुन्दर मङ्गलमय वचन (श्रीरामजीको युवराज-पद देनेका प्रस्ताव) सुनाये॥ १॥

मूल (चौपाई)

जौं पाँचहि मत लागै नीका।
करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहा—] यदि पंचोंको (आप सबको) यह मत अच्छा लगे, तो हृदयमें हर्षित होकर आपलोग श्रीरामचन्द्रका राजतिलक कीजिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।
अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहिं कर जोरी।
जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रिय वाणीको सुनते ही मन्त्री ऐसे आनन्दित हुए मानो उनके मनोरथरूपी पौधेपर पानी पड़ गया हो। मन्त्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति! आप करोड़ों वर्ष जियें॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जग मंगल भल काजु बिचारा।
बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।
बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने जगत् भरका मङ्गल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शीघ्रता कीजिये, देर न लगाइये। मन्त्रियोंकी सुन्दर वाणी सुनकर राजाको ऐसा आनन्द हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डालीका सहारा पा गयी हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा—श्रीरामचन्द्रके राज्याभिषेकके लिये मुनिराज वसिष्ठजीकी जो-जो आज्ञा हो, आपलोग वही सब तुरंत करें॥ ५॥

मूल (चौपाई)

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी।
आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना।
कहे नाम गनि मंगल नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिराजने हर्षित होकर कोमल वाणीसे कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थोंका जल ले आओ। फिर उन्होंने ओषधि, मूल, फूल, फल और पत्र आदि अनेकों माङ्गलिक वस्तुओंके नाम गिनकर बताये॥ १॥

मूल (चौपाई)

चामर चरम बसन बहु भाँती।
रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका।
जो जग जोगु भूप अभिषेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

चँवर, मृगचर्म, बहुत प्रकारके वस्त्र, असंख्यों जातियोंके ऊनी और रेशमी कपड़े, [नाना प्रकारकी] मणियाँ (रत्न) तथा और भी बहुत-सी मङ्गल वस्तुएँ, जो जगत् में राज्याभिषेकके योग्य होती हैं [सबको मँगानेकी उन्होंने आज्ञा दी]॥ २॥

मूल (चौपाई)

बेद बिदित कहि सकल बिधाना।
कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा।
रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने वेदोंमें कहा हुआ सब विधान बताकर कहा—नगरमें बहुत-से मण्डप (चँदोवे) सजाओ। फलोंसमेत आम, सुपारी और केलेके वृक्ष नगरकी गलियोंमें चारों ओर रोप दो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रचहु मंजु मनि चौकें चारू।
कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा।
सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मणियोंके मनोहर चौक पुरवाओ और बाजारको तुरंत सजानेके लिये कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवताकी पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणोंकी सब प्रकारसे सेवा करो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े, रथ और हाथी सबको सजाओ। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीके वचनोंको शिरोधार्य करके सब लोग अपने-अपने काममें लग गये॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा।
सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा।
करत राम हित मंगल काजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनीश्वरने जिसको जिस कामके लिये आज्ञा दी, उसने वह काम [इतनी शीघ्रतासे कर डाला कि] मानो पहलेसे ही कर रखा था। राजा ब्राह्मण, साधु और देवताओंको पूज रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजीके लिये सब मङ्गलकार्य कर रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनत राम अभिषेक सुहावा।
बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए।
फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेककी सुहावनी खबर सुनते ही अवधभरमें बड़ी धूमसे बधावे बजने लगे। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीके शरीरमें भी शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुन्दर मङ्गल अङ्ग फड़कने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं।
भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी।
सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलकित होकर वे दोनों प्रेमसहित एक-दूसरेसे कहते हैं कि ये सब शकुन भरतके आनेकी सूचना देनेवाले हैं। [उनको मामाके घर गये ] बहुत दिन हो गये; बहुत ही अवसेर आ रही है (बार-बार उनसे मिलनेकी मनमें आती है) शकुनोंसे प्रिय (भरत)-के मिलनेका विश्वास होता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत सरिस प्रिय को जग माहीं।
इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती।
अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भाँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

और भरतके समान जगत् में [हमें] कौन प्यारा है! शकुनका बस, यही फल है, दूसरा नहीं। श्रीरामचन्द्रजीको [अपने] भाई भरतका दिन-रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुएका हृदय अंडोंमें रहता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय यह परम मङ्गल समाचार सुनकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। जैसे चन्द्रमाको बढ़ते देखकर समुद्रमें लहरोंका विलास (आनन्द) सुशोभित होता है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए।
भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं।
मंगल कलस सजन सब लागीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबसे पहले [रनिवासमें] जाकर जिन्होंने ये वचन (समाचार) सुनाये, उन्होंने बहुत-से आभूषण और वस्त्र पाये। रानियोंका शरीर प्रेमसे पुलकित हो उठा और मन प्रेममें मग्न हो गया। वे सब मङ्गलकलश सजाने लगीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

चौकें चारु सुमित्राँ पूरी।
मनिमय बिबिध भाँति अति रूरी॥
आनँद मगन राम महतारी।
दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमित्राजीने मणियों (रत्नों)-के बहुत प्रकारके अत्यन्त सुन्दर और मनोहर चौक पूरे। आनन्दमें मग्न हुई श्रीरामचन्द्रजीकी माता कौसल्याजीने ब्राह्मणोंको बुलाकर बहुत दान दिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा।
कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू।
देहु दया करि सो बरदानू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ग्रामदेवियों, देवताओं और नागोंकी पूजा की और फिर बलि भेंट देनेको कहा (अर्थात् कार्य सिद्ध होनेपर फिर पूजा करनेकी मनौती मानी); और प्रार्थना की कि जिस प्रकारसे श्रीरामचन्द्रजीका कल्याण हो, दया करके वही वरदान दीजिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गावहिं मंगल कोकिलबयनीं।
बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोयलकी-सी मीठी वाणीवाली, चन्द्रमाके समान मुखवाली और हिरनके बच्चेके-से नेत्रोंवाली स्त्रियाँ मङ्गलगान करने लगीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक सुनकर सभी स्त्री-पुरुष हृदयमें हर्षित हो उठे और विधाताको अपने अनुकूल समझकर सब सुन्दर मङ्गल-साज सजाने लगे॥ ८॥

मूल (चौपाई)

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए।
रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा।
द्वार आइ पद नायउ माथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाने वसिष्ठजीको बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश) देनेके लिये श्रीरामचन्द्रजीके महलमें भेजा। गुरुका आगमन सुनते ही श्रीरघुनाथजीने दरवाजेपर आकर उनके चरणोंमें मस्तक नवाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सादर अरघ देइ घर आने।
सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी।
बोले रामु कमल कर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदरपूर्वक अर्घ्य देकर उन्हें घरमें लाये और षोडशोपचारसे पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीताजीसहित उनके चरण स्पर्श किये और कमलके समान दोनों हाथोंको जोड़कर श्रीरामजी बोले—

मूल (चौपाई)

सेवक सदन स्वामि आगमनू।
मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती।
पठइअ काज नाथ असि नीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि सेवकके घर स्वामीका पधारना मङ्गलोंका मूल और अमङ्गलोंका नाश करनेवाला होता है, तथापि हे नाथ! उचित तो यही था कि प्रेमपूर्वक दासको ही कार्यके लिये बुला भेजते; ऐसी ही नीति है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू।
भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं।
सेवकु लहइ स्वामि सेवकाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु प्रभु (आप)-ने प्रभुता छोड़कर (स्वयं यहाँ पधारकर) जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गोसाईं! [अब] जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ। स्वामीकी सेवामें ही सेवकका लाभ है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

[श्रीरामचन्द्रजीके] प्रेममें सने हुए वचनोंको सुनकर मुनि वसिष्ठजीने श्रीरघुनाथजीकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम! भला, आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंशके भूषण जो हैं॥ ९॥

मूल (चौपाई)

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ।
बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू।
चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके गुण, शील और स्वभावका बखान कर, मुनिराज प्रेमसे पुलकित होकर बोले—[हे रामचन्द्रजी!] राजा (दशरथजी)-ने राज्याभिषेककी तैयारी की है। वे आपको युवराज-पद देना चाहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम करहु सब संजम आजू।
जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ।
राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

[इसलिये] हे रामजी! आज आप [उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक] सब संयम कीजिये, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस कामको निबाह दें (सफल कर दें)। गुरुजी शिक्षा देकर राजा दशरथजीके पास चले गये। श्रीरामचन्द्रजीके हृदयमें [यह सुनकर] इस बातका खेद हुआ कि—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा।
संग संग सब भए उछाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम सब भाई एक ही साथ जन्मे; खाना, सोना, लड़कपनके खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिमल बंस यहु अनुचित एकू।
बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई।
हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर इस निर्मल वंशमें यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयोंको छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़ेका ही (मेरा ही) होता है। [तुलसीदासजी कहते हैं कि] प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका यह सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तोंके मनकी कुटिलताको हरण करे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय प्रेम और आनन्दमें मग्न लक्ष्मणजी आये। रघुकुलरूपी कुमुदके खिलानेवाले चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजीने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥ १०॥

मूल (चौपाई)

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना।
पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं।
आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत प्रकारके बाजे बज रहे हैं। नगरके अतिशय आनन्दका वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजीका आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और [राज्याभिषेकका उत्सव देखकर] नेत्रोंका फल प्राप्त करें॥ १॥

मूल (चौपाई)

हाट बाट घर गलीं अथाईं।
कहहिं परसपर लोग लोगाईं॥
कालि लगन भलि केतिक बारा।
पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाजार, रास्ते, घर, गली और चबूतरोंपर (जहाँ-तहाँ) पुरुष और स्त्री आपसमें यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न (मुहूर्त्त) कितने समय है जब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

कनक सिंघासन सीय समेता।
बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली।
बिघन मनावहिं देव कुचाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सीताजीसहित श्रीरामचन्द्रजी सुवर्णके सिंहासनपर विराजेंगे और हमारा मनचीता होगा (मनःकामना पूरी होगी)। इधर तो सब यह कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विघ्न मना रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।
चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं।
बारहिं बार पाय लै परहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें (देवताओंको) अवधके बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोरको चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजीको बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरोंको पकड़कर उनपर गिरते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

[वे कहते हैं—] हे माता! हमारी बड़ी विपत्तिको देखकर आज वही कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्रजी राज्य त्यागकर वनको चले जायँ और देवताओंका सब कार्य सिद्ध हो॥ ११॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती।
भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी।
मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं कि [हाय!] मैं कमलवनके लिये हेमन्त-ऋतुकी रात हुई। उन्हें इस प्रकार पछताते देखकर देवता फिर विनय करके कहने लगे— हे माता! इसमें आपको जरा भी दोष न लगेगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिसमय हरष रहित रघुराऊ।
तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी।
जाइअ अवध देवहित लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी विषाद और हर्षसे रहित हैं। आप तो श्रीरामजीके सब प्रभावको जानती ही हैं। जीव अपने कर्मवश ही सुख-दुःखका भागी होता है। अतएव देवताओंके हितके लिये आप अयोध्या जाइये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बार बार गहि चरन सँकोची।
चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती।
देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥

अनुवाद (हिन्दी)

बार-बार चरण पकड़कर देवताओंने सरस्वतीको संकोचमें डाल दिया। तब वह यह विचारकर चली कि देवताओंकी बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरेका ऐश्वर्य नहीं देख सकते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आगिल काजु बिचारि बहोरी।
करिहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई।
जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु आगेके कामका विचार करके (श्रीरामजीके वन जानेसे राक्षसोंका वध होगा, जिससे सारा जगत् सुखी हो जायगा) चतुर कवि [श्रीरामजीके वनवासके चरित्रोंका वर्णन करनेके लिये] मेरी चाह (कामना) करेंगे। ऐसा विचारकर सरस्वती हृदयमें हर्षित होकर दशरथजीकी पुरी अयोध्यामें आयीं, मानो दुःसह दुःख देनेवाली कोई ग्रहदशा आयी हो॥ ४॥

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