५७ बारातका अयोध्या लौटना और अयोध्यामें आनन्द

मूल (चौपाई)

चली बरात निसान बजाई।
मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी।
पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

डंका बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्तेके) गाँवोंके स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजीको देखकर नेत्रोंका फल पाकर सुखी होते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥ ३४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बीच-बीचमें सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्गके लोगोंको सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिनमें अयोध्यापुरीके समीप आ पहुँची॥ ३४३॥

मूल (चौपाई)

हने निसान पनव बर बाजे।
भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि बिरव डिंडिमी सुहाई।
सरस राग बाजहिं सहनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगाड़ोंपर चोटें पड़ने लगीं; सुन्दर ढोल बजने लगे। भेरी और शङ्खकी बड़ी आवाज हो रही है; हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द करनेवाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले रागसे शहनाइयाँ बज रही हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुर जन आवत अकनि बराता।
मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज निज सुंदर सदन सँवारे।
हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

बारातको आती हुई सुनकर नगरनिवासी प्रसन्न हो गये। सबके शरीरोंपर पुलकावली छा गयी। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगरके द्वारोंको सजाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

गलीं सकल अरगजाँ सिंचाईं।
जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं॥
बना बजारु न जाइ बखाना।
तोरन केतु पताक बिताना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारी गलियाँ अरगजेसे सिंचायी गयीं, जहाँ-तहाँ सुन्दर चौक पुराये गये। तोरणों, ध्वजा-पताकाओं और मण्डपोंसे बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सफल पूगफल कदलि रसाला।
रोपे बकुल कदंब तमाला॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी।
मनिमय आलबाल कल करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फलसहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमालके वृक्ष लगाये गये। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष (फलोंके भारसे) पृथ्वीको छू रहे हैं। उनके मणियोंके थाले बड़ी सुन्दर कारीगरीसे बनाये गये हैं॥ ४॥

मूल (दोहा)

बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥ ३४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारके मङ्गल-कलश घर-घर सजाकर बनाये गये हैं। श्रीरघुनाथजीकी पुरी (अयोध्या)को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं॥ ३४४॥

मूल (चौपाई)

भूप भवनु तेहि अवसर सोहा।
रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मंगल सगुन मनोहरताई।
रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेवका भी मन मोहित हो जाता था। मङ्गल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति॥ १॥

मूल (चौपाई)

जनु उछाह सब सहज सुहाए।
तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन हेतु राम बैदेही।
कहहु लालसा होहि न केही॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सब प्रकारके उत्साह (आनन्द) मानो सहज सुन्दर शरीर धर-धरकर दशरथजीके घरमें छा गये हैं। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीके दर्शनोंके लिये भला कहिये किसे लालसा न होगी?॥ २॥

मूल (चौपाई)

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि।
निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल सुमंगल सजें आरती।
गावहिं जनु बहु बेष भारती॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबिसे कामदेवकी स्त्री रतिका भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मङ्गलद्रव्य एवं आरती सजाये हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत-से वेष धारण किये गा रही हों॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भूपति भवन कोलाहलु होई।
जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि राम महतारीं।
प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलमें (आनन्दके मारे) शोर मच रहा है। उस समयका और सुखका वर्णन नहीं किया जा सकता। कौसल्याजी आदि श्रीरामचन्द्रजीकी सब माताएँ प्रेमके विशेष वश होनेसे शरीरकी सुध भूल गयीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥ ३४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजीका पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको बहुत-सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥ ३४५॥

मूल (चौपाई)

मोद प्रमोद बिबस सब माता।
चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम दरस हित अति अनुरागीं।
परिछनि साजु सजन सब लागीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुख और महान् आनन्दसे विवश होनेके कारण सब माताओंके शरीर शिथिल हो गये हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनोंके लिये वे अत्यन्त अनुरागमें भरकर परछनका सब सामान सजाने लगीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिबिध बिधान बाजने बाजे।
मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला।
पान पूगफल मंगल मूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों प्रकारके बाजे बजते थे। सुमित्राजीने आनन्दपूर्वक मङ्गल साज सजाये। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मङ्गलकी मूल वस्तुएँ,॥ २॥

मूल (चौपाई)

अच्छत अंकुर लोचन लाजा।
मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए।
मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसीकी सुन्दर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगोंसे चित्रित किये हुए सहज सुहावने सुवर्णके कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेवके पक्षियोंने घोंसले बनाये हों॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सगुन सुगंध न जाहिं बखानी।
मंगल सकल सजहिं सब रानी॥
रचीं आरतीं बहुत बिधाना।
मुदित करहिं कल मंगल गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनकी सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियाँ सम्पूर्ण मङ्गल साज सज रही हैं। बहुत प्रकारकी आरती बनाकर वे आनन्दित हुईं सुन्दर मङ्गलगान कर रही हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥ ३४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके थालोंको माङ्गलिक वस्तुओंसे भरकर अपने कमलके समान (कोमल) हाथोंमें लिये हुए माताएँ आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावलीसे छा गये हैं॥ ३४६॥

मूल (चौपाई)

धूप धूम नभु मेचक भयऊ।
सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं।
मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

धूपके धूएँसे आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावनके बादल घुमड़-घुमड़कर छा गये हों। देवता कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं मानो बगुलोंकी पाँति मनको (अपनी ओर) खींच रही हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

मंजुल मनिमय बंदनिवारे।
मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि।
चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मणियोंसे बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं मानो इन्द्रधनुष सजाये हों। अटारियोंपर सुन्दर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं); वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो बिजलियाँ चमक रही हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा।
जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगंध सुचि बरषहिं बारी।
सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगाड़ोंकी ध्वनि मानो बादलोंकी घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्धरूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेतीके समान नगरके सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

समउ जानि गुर आयसु दीन्हा।
पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा।
मुदित महीपति सहित समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(प्रवेशका) समय जानकर गुरु वसिष्ठजीने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजीने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजीका स्मरण करके समाजसहित आनन्दित होकर नगरमें प्रवेश किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥ ३४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओंकी स्त्रियाँ आनन्दित होकर सुन्दर मङ्गलगीत गा-गाकर नाच रही हैं॥ ३४७॥

मूल (चौपाई)

मागध सूत बंदि नट नागर।
गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी।
दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकोंके उजागर (सबको प्रकाश देनेवाले, परम प्रकाशस्वरूप) श्रीरामचन्द्रजीका यश गा रहे हैं। जयध्वनि तथा वेदकी निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मङ्गलसे सनी हुई दसों दिशाओंमें सुनायी पड़ रही है॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिपुल बाजने बाजन लागे।
नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं।
महा मुदित मन सुख न समाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से बाजे बजने लगे। आकाशमें देवता और नगरमें लोग सब प्रेममें मग्न हैं। बराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनन्दित हैं, सुख उनके मनमें समाता नहीं है॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे।
देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा।
बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अयोध्यावासियोंने राजाको जोहार (वन्दना) की। श्रीरामचन्द्रजीको देखते ही वे सुखी हो गये। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आरति करहिं मुदित पुर नारी।
हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी।
देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरकी स्त्रियाँ आनन्दित होकर आरती कर रही हैं और सुन्दर चारों कुमारोंको देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियोंके सुन्दर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनोंको देखकर सुखी होती हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥ ३४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वारपर आये। माताएँ आनन्दित होकर बहुओंसहित कुमारोंका परछन कर रही हैं॥ ३४८॥

मूल (चौपाई)

करहिं आरती बारहिं बारा।
प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन मनि पट नाना जाती।
करहिं निछावरि अगनित भाँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान् आनन्दको कौन कह सकता है! अनेकों प्रकारके आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकारकी अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी।
परमानंद मगन महतारी॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।
मुदित सफल जग जीवन लेखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुओंसहित चारों पुत्रोंको देखकर माताएँ परमानन्दमें मग्न हो गयीं। सीताजी और श्रीरामजीकी छबिको बार-बार देखकर वे जगत् में अपने जीवनको सफल मानकर आनन्दित हो रही हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही।
गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा।
नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियाँ सीताजीके मुखको बार-बार देखकर अपने पुण्योंकी सराहना करती हुई गान कर रही हैं। देवता क्षण-क्षणमें फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि मनोहर चारिउ जोरीं।
सारद उपमा सकल ढँढोरीें॥
देत न बनहिं निपट लघु लागीं।
एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों मनोहर जोड़ियोंको देखकर सरस्वतीने सारी उपमाओंको खोज डाला; पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्रीरामजीके रूपमें अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गयीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥ ३४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदकी विधि और कुलकी रीति करके अर्घ्य-पाँवड़े देती हुई बहुओंसमेत सब पुत्रोंको परछन करके माताएँ महलमें लिवा चलीं॥ ३४९॥

मूल (चौपाई)

चारि सिंघासन सहज सुहाए।
जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे।
सादर पाय पुनीत पखारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेवने ही अपने हाथसे बनाये थे। उनपर माताओंने राजकुमारियों और राजकुमारोंको बैठाया और आदरके साथ उनके पवित्र चरण धोये॥ १॥

मूल (चौपाई)

धूप दीप नैबेद बेद बिधि।
पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥
बारहिं बार आरती करहीं।
ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वेदकी विधिके अनुसार मङ्गलोंके निधान दूलह और दुलहिनोंकी धूप, दीप और नैवेद्य आदिके द्वारा पूजा की। माताएँ बारंबार आरती कर रही हैं और वर-वधुओंके सिरोंपर सुन्दर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बस्तु अनेक निछावरि होहीं।
भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं।
अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं; सभी माताएँ आनन्दसे भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगीने परम तत्त्वको प्राप्त कर लिया। सदाके रोगीने मानो अमृत पा लिया,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जनम रंक जनु पारस पावा।
अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु सारद छाई।
मानहुँ समर सूर जय पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्मका दरिद्री मानो पारस पा गया। अंधेको सुन्दर नेत्रोंका लाभ हुआ। गूँगेके मुखमें मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीरने मानो युद्धमें विजय पा ली॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥ ३५०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सुखोंसे भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनन्द माताएँ पा रही हैं। क्योंकि रघुकुलके चन्द्रमा श्रीरामजी विवाह करके भाइयोंसहित घर आये हैं॥ ३५०(क)॥

मूल (दोहा)

लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं॥ ३५०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताएँ लोकरीति करती हैं और दूलह-दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान् आनन्द और विनोदको देखकर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं॥ ३५०(ख)॥

मूल (चौपाई)

देव पितर पूजे बिधि नीकी।
पूजीं सकल बासना जी की॥
सबहि बंदि मागहिं बरदाना।
भाइन्ह सहित राम कल्याना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनकी सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरोंका भलीभाँति पूजन किया। सबकी वन्दना करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयोंसहित श्रीरामजीका कल्याण हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

अंतरहित सुर आसिष देहीं।
मुदित मातु अंचल भरि लेहीं॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे।
जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता छिपे हुए (अन्तरिक्षसे) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनन्दित हो आँचल भरकर ले रही हैं। तदनन्तर राजाने बरातियोंको बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

आयसु पाइ राखि उर रामहि।
मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर नर नारि सकल पहिराए।
घर घर बाजन लगे बधाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज्ञा पाकर, श्रीरामजीको हृदयमें रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने-अपने घर गये। नगरके समस्त स्त्री-पुरुषोंको राजाने कपड़े और गहने पहनाये। घर-घर बधावे बजने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जाचक जन जाचहिं जोइ जोई।
प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक सकल बजनिआ नाना।
पूरन किए दान सनमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

याचक लोग जो-जो माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं। सम्पूर्ण सेवकों और बाजेवालोंको राजाने नाना प्रकारके दान और सम्मानसे सन्तुष्ट किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥ ३५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब जोहार (वन्दन) करके आशिष देते हैं और गुणसमूहोंकी कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणोंसहित राजा दशरथजीने महलमें गमन किया॥ ३५१॥

मूल (चौपाई)

जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही।
लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर भीर देखि सब रानी।
सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेदकी विधिके अनुसार राजाने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणोंकी भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदरके साथ उठीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पाय पखारि सकल अन्हवाए।
पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
आदर दान प्रेम परिपोषे।
देत असीस चले मन तोषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजाने भलीभाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर, दान और प्रेमसे पुष्ट हुए वे सन्तुष्ट मनसे आशीर्वाद देते हुए चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा।
नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी।
रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने गाधि-पुत्र विश्वामित्रजीकी बहुत तरहसे पूजा की और कहा—हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजाने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियोंसहित उनकी चरणधूलिको ग्रहण किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भीतर भवन दीन्ह बर बासू।
मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी।
कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें महलके भीतर ठहरनेको उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात् जिसमें राजा और महलकी सारी रानियाँ स्वयं उनके इच्छानुसार उनके आरामकी ओर दृष्टि रख सकें), फिर राजाने गुरु वसिष्ठजीके चरणकमलोंकी पूजा और विनती की। उनके हृदयमें कम प्रीति न थी (अर्थात् बहुत प्रीति थी)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥ ३५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुओंसहित सब राजकुमार और सब रानियोंसमेत राजा बार-बार गुरुजीके चरणोंकी वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं॥ ३५२॥

मूल (चौपाई)

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें।
सुत संपदा राखि सब आगें॥
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा।
आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे पुत्रोंको और सारी सम्पत्तिको सामने रखकर (उन्हें स्वीकार करनेके लिये) विनती की। परन्तु मुनिराजने (पुरोहितके नाते) केवल अपना नेग माँग लिया और बहुत तरहसे आशीर्वाद दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

उर धरि रामहि सीय समेता।
हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं।
चैल चारु भूषन पहिराईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सीताजीसहित श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें रखकर गुरु वसिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थानको गये। राजाने सब ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंको बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं।
रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी नेग जोग सब लेहीं।
रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सब सुआसिनियोंको (नगरभरकी सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदिको) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर (उसीके अनुसार) उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओंके शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छाके अनुसार देते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने।
भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू।
बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन मेहमानोंको प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजाने भलीभाँति सम्मान किया। देवगण श्रीरघुनाथजीका विवाह देखकर, उत्सवकी प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥ ३५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगाड़े बजाकर और (परम) सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकोंको चले। वे एक-दूसरेसे श्रीरामजीका यश कहते जाते हैं। हृदयमें प्रेम समाता नहीं है॥ ३५३॥

मूल (चौपाई)

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू।
रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे।
सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब प्रकारसे सबका प्रेमपूर्वक भलीभाँति आदर-सत्कार कर लेनेपर राजा दशरथजीके हृदयमें पूर्ण उत्साह (आनन्द) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओंसमेत उन्होंने कुमारोंको देखा॥ १॥

मूल (चौपाई)

लिए गोद करि मोद समेता।
को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं।
बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने आनन्दसहित पुत्रोंको गोदमें ले लिया। उस समय राजाको जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओंको प्रेमसहित गोदीमें बैठाकर, बार-बार हृदयमें हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार (लाड़-चाव) किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखि समाजु मुदित रनिवासू।
सब कें उर अनंद कियो बासू॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू।
सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदयमें आनन्दने निवास कर लिया। तब राजाने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब किसीको हर्ष होता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जनक राज गुन सीलु बड़ाई।
प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी।
रानी सब प्रमुदित सुनि करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकके गुण, शील, महत्त्व, प्रीतिकी रीति और सुहावनी सम्पत्तिका वर्णन राजाने भाटकी तरह बहुत प्रकारसे किया। जनकजीकी करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥३५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रोंसहित स्नान करके राजाने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियोंको बुलाकर अनेक प्रकारके भोजन किये। (यह सब करते-करते) पाँच घड़ी रात बीत गयी॥ ३५४॥

मूल (चौपाई)

मंगलगान करहिं बर भामिनि।
भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
अँचइ पान सब काहूँ पाए।
स्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर स्त्रियाँ मङ्गलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुखकी मूल और मनोहारिणी हो गयी। सबने आचमन करके पान खाये और फूलोंकी माला, सुगन्धित द्रव्य आदिसे विभूषित होकर सब शोभासे छा गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामहि देखि रजायसु पाई।
निज निज भवन चले सिर नाई॥
प्रेम प्रमोदु बिनोदु बड़ाई।
समउ समाजु मनोहरताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीको देखकर और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घरको चले। वहाँके प्रेम, आनन्द, विनोद, महत्त्व, समय, समाज और मनोहरताको—॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहि न सकहिं सत सारद सेसू।
बेद बिरंचि महेस गनेसू॥
सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी।
भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सैकड़ों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, महादेवजी और गणेशजी भी नहीं कह सकते। फिर भला मैं उसे किस प्रकारसे बखानकर कहूँ? कहीं केंचुआ भी धरतीको सिरपर ले सकता है!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नृप सब भाँति सबहि सनमानी।
कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं।
राखेहु नयन पलक की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने सबका सब प्रकारसे सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियोंको बुलाया और कहा—बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराये घर आयी हैं। इनको इस तरहसे रखना जैसे नेत्रोंको पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रोंकी सब प्रकारसे रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥ ३५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

लड़के थके हुए नींदके वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें मन लगाकर विश्रामभवनमें चले गये॥ ३५५॥

मूल (चौपाई)

भूप बचन सुनि सहज सुहाए।
जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना।
कोमल कलित सुपेतीं नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके स्वभावसे ही सुन्दर वचन सुनकर (रानियोंने) मणियोंसे जड़े सुवर्णके पलँग बिछवाये। (गद्दोंपर) गौके दूधके फेनके समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछायीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

उपबरहन बर बरनि न जाहीं।
स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा।
कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर तकियोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियोंके मन्दिरमें फूलोंकी मालाएँ और सुगन्ध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नोंके दीपकों और सुन्दर चँदोवेकी शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सेज रुचिर रचि रामु उठाए।
प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही।
निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर (माताओंने) श्रीरामचन्द्रजीको उठाया और प्रेमसहित पलँगपर पौढ़ाया। श्रीरामजीने बार-बार भाइयोंको आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओंपर सो गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता।
कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी।
केहि बिधि तात ताड़का मारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके साँवले सुन्दर कोमल अङ्गोंको देखकर सब माताएँ प्रेमसहित वचन कह रही हैं— हे तात! मार्गमें जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसीको किस प्रकारसे मारा?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥ ३५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े भयानक राक्षस, जो विकट योद्धा थे और जो युद्धमें किसीको कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहुको सहायकोंसहित तुमने कैसे मारा?॥ ३५६॥

मूल (चौपाई)

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी।
ईस अनेक करवरें टारी॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाईं।
गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनिकी कृपासे ही ईश्वरने तुम्हारी बहुत-सी बलाओंको टाल दिया। दोनों भाइयोंने यज्ञकी रखवाली करके गुरुजीके प्रसादसे सब विद्याएँ पायीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनितिय तरी लगत पग धूरी।
कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा।
नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

चरणोंकी धूलि लगते ही मुनिपत्नी अहल्या तर गयी। विश्वभरमें यह कीर्ति पूर्णरीतिसे व्याप्त हो गयी। कच्छपकी पीठ, वज्र और पर्वतसे भी कठोर शिवजीके धनुषको राजाओंके समाजमें तुमने तोड़ दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई।
आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे।
केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वविजयके यश और जानकीको पाया और सब भाइयोंको ब्याहकर घर आये। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं (मनुष्यकी शक्तिके बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्रजीकी कृपाने सुधारा है (सम्पन्न किया है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आजु सुफल जग जनमु हमारा।
देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें।
ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत् में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनतीमें न लावें (हमारी आयुमें शामिल न करें)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥ ३५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

विनयभरे उत्तम वचन कहकर श्रीरामचन्द्रजीने सब माताओंको संतुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणोंके चरणोंका स्मरण कर नेत्रोंको नींदके वश किया (अर्थात् वे सो रहे)॥ ३५७॥

मूल (चौपाई)

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना।
मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर घर करहिं जागरन नारीं।
देहिं परसपर मंगल गारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

नींदमें भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो सन्ध्याके समयका लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपसमें (एक-दूसरीको) मङ्गलमयी गालियाँ दे रही हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुरी बिराजति राजति रजनी।
रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोईं।
फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानियाँ कहती हैं—हे सजनी! देखो, (आज) रात्रिकी कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई) सासुएँ सुन्दर बहुओंको लेकर सो गयीं, मानो सर्पोंने अपने सिरकी मणियोंको हृदयमें छिपा लिया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे।
अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए।
पुरजन द्वार जोहारन आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातःकाल पवित्र ब्राह्ममुहूर्तमें प्रभु जागे। मुर्गे सुन्दर बोलने लगे। भाट और मागधोंने गुणोंका गान किया तथा नगरके लोग द्वारपर जोहार करनेको आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता।
पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे।
भूपति संग द्वार पगु धारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओंकी वन्दना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओंने आदरके साथ उनके मुखोंको देखा। फिर वे राजाके साथ दरवाजे (बाहर) पधारे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥ ३५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वभावसे ही पवित्र चारों भाइयोंने सब शौचादिसे निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदीमें स्नान किया और प्रातःक्रिया (सन्ध्या-वन्दनादि) करके वे पिताके पास आये॥ ३५८॥

भागसूचना

नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम

मूल (चौपाई)

भूप बिलोकि लिए उर लाई।
बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब सभा जुड़ानी।
लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने देखते ही उन्हें हृदयसे लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गये। श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकर और नेत्रोंके लाभकी बस यही सीमा है, ऐसा अनुमानकर सारी सभा शीतल हो गयी (अर्थात् सबके तीनों प्रकारके ताप सदाके लिये मिट गये)॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए।
सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे।
निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मुनि वसिष्ठजी और विश्वामित्रजी आये। राजाने उनको सुन्दर आसनोंपर बैठाया और पुत्रों-समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु श्रीरामजीको देखकर प्रेममें मुग्ध हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा।
सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी।
मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी धर्मके इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवाससहित सुन रहे हैं। जो मुनियोंके मनको भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्रजीकी करनीको वसिष्ठजीने आनन्दित होकर बहुत प्रकारसे वर्णन किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बोले बामदेउ सब साँची।
कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि आनंदु भयउ सब काहू।
राम लखन उर अधिक उछाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वामदेवजी बोले—ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्रजीकी सुन्दर कीर्ति तीनों लोकोंमें छायी हुई है। यह सुनकर सब किसीको आनन्द हुआ। श्रीराम-लक्ष्मणके हृदयमें अधिक उत्साह (आनन्द) हुआ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥ ३५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्य ही मङ्गल, आनन्द और उत्सव होते हैं; इस तरह आनन्दमें दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनन्दसे भरकर उमड़ पड़ी, आनन्दकी अधिकता अधिक-अधिक बढ़ती ही जा रही है॥ ३५९॥

मूल (चौपाई)

सुदिन सोधि कल कंकन छोरे।
मंगल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं।
अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुन्दर कङ्कण खोले गये। मङ्गल, आनन्द और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात् बहुत हुए)। इस प्रकार नित्य नये सुखको देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्यामें जन्म पानेके लिये ब्रह्माजीसे याचना करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं।
राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ।
देखि सराह महामुनिराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रजी नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजीके स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनों-दिन राजाका सौगुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मागत बिदा राउ अनुरागे।
सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ सकल संपदा तुम्हारी।
मैं सेवकु समेत सुत नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें जब विश्वामित्रजीने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गये और पुत्रोंसहित आगे खड़े हो गये। (वे बोले—) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रोंसहित आपका सेवक हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू।
दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी।
परेउ चरन मुख आव न बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनि! लड़कोंपर सदा स्नेह करते रहियेगा और मुझे भी दर्शन देते रहियेगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियोंसहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजीके चरणोंपर गिर पड़े, (प्रेमविह्वल हो जानेके कारण) उनके मुँहसे बात नहीं निकलती॥ ४॥

मूल (चौपाई)

दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँती।
चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम संग सब भाई।
आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण विश्वामित्रजीने बहुत प्रकारसे आशीर्वाद दिये और वे चल पड़े, प्रीतिकी रीति कही नहीं जाती। सब भाइयोंको साथ लेकर श्रीरामजी प्रेमके साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे॥ ५॥

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