५६ श्रीसीता-राम-विवाह

छंद

मूल (दोहा)

चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजे सुंदरीं सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मङ्गलका साज सजकर (रनिवासकी) स्त्रियाँ और सखियाँ आदरसहित सीताजीको लिवा चलीं। सभी सुन्दरियाँ सोलहों शृंगार किये हुए मतवाले हाथियोंकी चालसे चलनेवाली हैं। उनके मनोहर गानको सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेवकी कोयलें भी लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुन्दर कंकण तालकी गतिपर बड़े सुन्दर बज रहे हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥ ३२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहज ही सुन्दरी सीताजी स्त्रियोंके समूहमें इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबिरूपी ललनाओंके समूहके बीच साक्षात् परम मनोहर शोभारूपी स्त्री सुशोभित हो॥ ३२२॥

मूल (चौपाई)

सिय सुंदरता बरनि न जाई।
लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता।
रूप रासि सब भाँति पुनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी सुन्दरताका वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूपकी राशि और सब प्रकारसे पवित्र सीताजीको बरातियोंने आते देखा॥ १॥

मूल (चौपाई)

सबहि मनहिं मन किए प्रनामा।
देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता।
कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभीने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर तो सभी पूर्णकाम (कृतकृत्य) हो गये। राजा दशरथजी पुत्रोंसहित हर्षित हुए। उनके हृदयमें जितना आनन्द था, वह कहा नहीं जा सकता॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला।
मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी।
प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मङ्गलोंकी मूल मुनियोंके आशीर्वादोंकी ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ोंके शब्दसे बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनन्दमें मग्न हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि सीय मंडपहिं आई।
प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू।
दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सीताजी मण्डपमें आयीं। मुनिराज बहुत ही आनन्दित होकर शान्तिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसरकी सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओंने किये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिंं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणोंकी पूजा करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणोंके द्वारा गौरी और गणेशकी पूजा करवा रहे हैं)। देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी माङ्गलिक पदार्थकी मुनि जिस समय भी मनमें चाहमात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोनेकी परातोंमें और कलशोंमें भरकर उन पदार्थोंको लिये तैयार रहते हैं॥ १॥

मूल (दोहा)

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहु न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं सूर्यदेव प्रेमसहित अपने कुलकी सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओंकी पूजा कराके मुनियोंने सीताजीको सुंदर सिंहासन दिया। श्रीसीताजी और श्रीरामजीका आपसमें एक-दूसरेको देखना तथा उनका परस्परका प्रेम किसीको लख नहीं पड़ रहा है। जो बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि और वाणीसे भी परे है, उसे कवि क्योंकर प्रकट करे?॥ २॥

दोहा

मूल (दोहा)

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥ ३२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हवनके समय अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुखसे आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मणका वेष धरकर विवाहकी विधियाँ बताये देते हैं॥ ३२३॥

मूल (चौपाई)

जनक पाटमहिषी जग जानी।
सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई।
सब समेटि बिधि रची बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीकी जगद्विख्यात पटरानी और सीताजीकी माताका बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुन्दरता सबको बटोरकर विधाताने उन्हें सँवारकर तैयार किया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं।
सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना।
हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥

अनुवाद (हिन्दी)

समय जानकर श्रेष्ठ मुनियोंने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक ले आयीं। सुनयनाजी (जनकजीकी पटरानी) जनकजीकी बायीं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो हिमाचलके साथ मैनाजी शोभित हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

कनक कलस मनि कोपर रूरे।
सुचि सुगंध मंगल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी।
धरे राम के आगें आनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र, सुगन्धित और मङ्गल जलसे भरे सोनेके कलश और मणियोंकी सुन्दर परातें राजा और रानीने आनन्दित होकर अपने हाथोंसे लाकर श्रीरामचन्द्रजीके आगे रखीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी।
गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे।
पाय पुनीत पखारन लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि मङ्गलवाणीसे वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाशसे फूलोंकी झड़ी लग गयी है। दूलहको देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गये और उनके पवित्र चरणोंको पखारने लगे॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे श्रीरामजीके चरणकमलोंको पखारने लगे, प्रेमसे उनके शरीरमें पुलकावली छा रही है। आकाश और नगरमें होनेवाली गान, नगाड़े और जय-जयकारकी ध्वनि मानो चारों दिशाओंमें उमड़ चली। जो चरणकमल कामदेवके शत्रु श्रीशिवजीके हृदयरूपी सरोवरमें सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करनेसे मनमें निर्मलता आ जाती है और कलियुगके सारे पाप भाग जाते हैं,॥ १॥

मूल (दोहा)

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनिकी स्त्री अहल्याने, जो पापमयी थी, परमगति पायी, जिन चरणकमलोंका मकरन्दरस (गङ्गाजी) शिवजीके मस्तकपर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रताकी सीमा बताते हैं; मुनि और योगीजन अपने मनको भौंरा बनाकर जिन चरणकमलोंका सेवन करके मनोवाञ्छित गति प्राप्त करते हैं; उन्हीं चरणोंको भाग्यके पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं; यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥ २॥

मूल (दोहा)

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों कुलोंके गुरु वर और कन्याकी हथेलियोंको मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनन्दमें भर गये। सुखके मूल दूलहको देखकर राजा-रानीका शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनन्दसे उमँग उठा। राजाओंके अलङ्कारस्वरूप महाराज जनकजीने लोक और वेदकी रीतिको करके कन्यादान किया॥ ३॥

मूल (दोहा)

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे हिमवान् ने शिवजीको पार्वतीजी और सागरने भगवान् विष्णुको लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजीने श्रीरामचन्द्रजीको सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्वमें सुन्दर नवीन कीर्ति छा गयी। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्तिने तो उन्हें सचमुच विदेह (देहकी सुध-बुधसे रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गयी और भाँवरें होने लगीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥ ३२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जयध्वनि, वन्दीध्वनि, वेदध्वनि, मङ्गलगान और नगाड़ोंकी ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्षके फूलोंको बरसा रहे हैं॥ ३२४॥

मूल (चौपाई)

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।
नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी।
जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर और कन्या सुन्दर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रोंका परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ीका वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं।
जगमगात मनि खंभन माहीं॥
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा।
देखत राम बिआहु अनूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी और श्रीसीताजीकी सुन्दर परछाहीं मणियोंके खम्भोंमें जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति बहुत-से रूप धारण करके श्रीरामजीके अनुपम विवाहको देख रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

दरस लालसा सकुच न थोरी।
प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए मगन सब देखनिहारे।
जनक समान अपान बिसारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें (कामदेव और रतिको) दर्शनकी लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं (अर्थात् बहुत हैं); इसीलिये वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखनेवाले आनन्दमग्न हो गये और जनकजीकी भाँति सभी अपनी सुध भूल गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं।
नेगसहित सब रीति निबेरीं॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं।
सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनियोंने आनन्दपूर्वक भाँवरें फिरायीं और नेगसहित सब रीतियोंको पूरा किया। श्रीरामचन्द्रजी सीताजीके सिरमें सिंदूर दे रहे हैं; यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती॥ ४॥

मूल (चौपाई)

अरुन पराग जलजु भरि नीकें।
ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन।
बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो कमलको लाल परागसे अच्छी तरह भरकर अमृतके लोभसे साँप चन्द्रमाको भूषित कर रहा है। (यहाँ श्रीरामके हाथको कमलकी, सेंदुरको परागकी, श्रीरामकी श्याम भुजाको साँपकी और सीताजीके मुखको चन्द्रमाकी उपमा दी गयी है) फिर वसिष्ठजीने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन एक आसनपर बैठे॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसनपर बैठे; उन्हें देखकर दशरथजी मनमें बहुत आनन्दित हुए। अपने सुकृतरूपी कल्पवृक्षमें नये फल (आये) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनोंमें उत्साह भर गया; सबने कहा कि श्रीरामचन्द्रजीका विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मङ्गल महान् है; फिर भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है!॥ १॥

मूल (दोहा)

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसिष्ठजीकी आज्ञा पाकर जनकजीने विवाहका सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी—इन तीनों राजकुमारियोंको बुला लिया। कुशध्वजकी बड़ी कन्या माण्डवीजीको, जो गुण, शील, सुख और शोभाकी रूप ही थीं, राजा जनकने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजीको ब्याह दिया॥ २॥

मूल (दोहा)

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीकी छोटी बहिन उर्मिलाजीको सब सुन्दरियोंमें शिरोमणि जानकर उस कन्याको सब प्रकारसे सम्मान करके, लक्ष्मणजीको ब्याह दिया; और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुन्दर नेत्रोंवाली, सुन्दर मुखवाली, सब गुणोंकी खान और रूप तथा शीलमें उजागर हैं, उनको राजाने शत्रुघ्नको ब्याह दिया॥ ३॥

मूल (दोहा)

अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने अनुरूप जोड़ीको देखकर सकुचते हुए हृदयमें हर्षित हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुन्दरताकी सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुन्दरी दुलहिनें सुन्दर दूल्होंके साथ एक ही मण्डपमें ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीवके हृदयमें चारों अवस्थाएँ (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अपने चारों स्वामियों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म) सहित विराजमान हों॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥ ३२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब पुत्रोंको बहुओंसहित देखकर अवधनरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं, मानो वे राजाओंके शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया) सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गये हों॥ ३२५॥

मूल (चौपाई)

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी।
सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जाइ कछु दाइज भूरी।
रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके विवाहकी जैसी विधि वर्णन की गयी, उसी रीतिसे सब राजकुमार विवाहे गये। दहेजकी अधिकता कुछ कही नहीं जाती; सारा मंडप सोने और मणियोंसे भर गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

कंबल बसन बिचित्र पटोरे।
भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरग दास अरु दासी।
धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँतिके विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमतके न थे (अर्थात् बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और गहनोंसे सजी हुई कामधेनु-सरीखी गायें—॥ २॥

मूल (चौपाई)

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा।
कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने।
लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आदि) अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाय। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गये। अवधराज दशरथजीने सुख मानकर प्रसन्नचित्तसे सब कुछ ग्रहण किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा।
उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी।
बोले सब बरात सनमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने वह दहेजका सामान याचकोंको, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासेमें चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारातका सम्मान करते हुए कोमल वाणीसे बोले॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदर, दान, विनय और बड़ाईके द्वारा सारी बारातका सम्मान कर राजा जनकने महान् आनन्दके साथ प्रेमपूर्वक लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियोंके समूहकी पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओंको मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं (वे प्रेमसे ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावोंको कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है); क्या एक अञ्जलि जल देनेसे कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है॥ १॥

मूल (दोहा)

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जनकजी भाईसहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजीसे स्नेह, शील और सुन्दर प्रेममें सानकर मनोहर वचन बोले—हे राजन्! आपके साथ सम्बन्ध हो जानेसे अब हम सब प्रकारसे बड़े हो गये। इस राज-पाटसहित हम दोनोंको आप बिना दामके लिये हुए सेवक ही समझियेगा॥ २॥

मूल (दोहा)

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीटॺो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन लड़कियोंको टहलनी मानकर, नयी-नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुलके भूषण दशरथजीने समधी जनकजीको सम्पूर्ण सम्मानका निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मानके भण्डार ही हो गये)। उनकी परस्परकी विनय कही नहीं जाती, दोनोंके हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हैं॥ ३॥

मूल (दोहा)

बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवतागण फूल बरसा रहे हैं; राजा जनवासेको चले। नगाड़ेकी ध्वनि, जयध्वनि और वेदकी ध्वनि हो रही है; आकाश और नगर दोनोंमें खूब कौतूहल हो रहा है (आनन्द छा रहा है), तब मुनीश्वरकी आज्ञा पाकर सुन्दरी सखियाँ मङ्गलगान करती हुई दुलहिनोंसहित दूल्होंको लिवाकर कोहबरको चलीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥ ३२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी बार-बार रामजीको देखती हैं और सकुचा जाती हैं; पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेमके प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियोंकी छबिको हर रहे हैं॥ ३२६॥

भागसूचना

मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम

मूल (चौपाई)

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन।
सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए।
मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका साँवला शरीर स्वभावसे ही सुन्दर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेवोंको लजानेवाली है। महावरसे युक्त चरणकमल बड़े सुहावने लगते हैं, जिनपर मुनियोंके मनरूपी भौंरे सदा छाये रहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पीत पुनीत मनोहर धोती।
हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर।
बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र और मनोहर पीली धोती प्रातःकालके सूर्य और बिजलीकी ज्योतिको हरे लेती है। कमरमें सुन्दर कंकिणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओंमें सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

पीत जनेउ महाछबि देई।
कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे।
उर आयत उरभूषन राजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीला जनेऊ महान् शोभा दे रहा है। हाथकी अँगूठी चित्तको चुरा लेती है। ब्याहके सब साज सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौड़ी छातीपर हृदयपर पहननेके सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पिअर उपरना काखासोती।
दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुंडल काना।
बदनु सकल सौंदर्ज निधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीला दुपट्टा काँखासोती (जनेऊकी तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरोंपर मणि और मोती लगे हैं। कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं, कानोंमें सुन्दर कुण्डल हैं और मुख तो सारी सुन्दरताका खजाना ही है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुंदर भृकुटि मनोहर नासा।
भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे।
मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाटपर तिलक तो सुन्दरताका घर ही है। जिसमें मङ्गलमय मोती और मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहर मौर माथेपर सोह रहा है॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मौरमें बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अङ्ग चित्तको चुराये लेते हैं। सब नगरकी स्त्रियाँ और देवसुन्दरियाँ दूलहको देखकर तिनका तोड़ रही हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मङ्गलगान कर रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं॥ १॥

मूल (दोहा)

कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियोंको कोहबर (कुलदेवताके स्थान) में लायीं और अत्यन्त प्रेमसे मङ्गलगीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वतीजी श्रीरामचन्द्रजीको लहकौर (वर-वधूका परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वतीजी सीताजीको सिखाती हैं। रनिवास हास-विलासके आनन्दमें मग्न है, (श्रीरामजी और सीताजीको देख-देखकर) सभी जन्मका परम फल प्राप्त कर रही हैं॥ २॥

मूल (दोहा)

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने हाथकी मणियोंमें सुन्दर रूपके भण्डार श्रीरामचन्द्रजीकी परछाहीं दीख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शनमें वियोग होनेके भयसे बाहुरूपी लताको और दृष्टिको हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समयके हँसी-खेल और विनोदका आनन्द और प्रेम कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर वर-कन्याओंको सब सुन्दर सखियाँ जनवासेको लिवा चलीं॥ ३॥

मूल (दोहा)

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारॺो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगींद्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नगर और आकाशमें जहाँ सुनिये, वहीं आशीर्वादकी ध्वनि सुनायी दे रही है और महान् आनन्द छाया है। सभीने प्रसन्न मनसे कहा कि सुन्दर चारों जोड़ियाँ चिरंजीवी हों। योगिराज, सिद्ध, मुनीश्वर और देवताओंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखकर दुन्दुभी बजायी और हर्षित होकर फूलोंकी वर्षा करते हुए तथा ‘जय हो, जय हो,जय हो’ कहते हुए वे अपने-अपने लोकको चले॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥ ३२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सब (चारों) कुमार बहुओंसहित पिताजीके पास आये। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा, मङ्गल और आनन्दसे भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो॥ ३२७॥

मूल (चौपाई)

पुनि जेवनार भई बहु भाँती।
पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवड़े बसन अनूपा।
सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर बहुत प्रकारकी रसोई बनी। जनकजीने बरातियोंको बुला भेजा। राजा दशरथजीने पुत्रोंसहित गमन किया। अनुपम वस्त्रोंके पाँवड़े पड़ते जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सादर सब के पाय पखारे।
जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना।
सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदरके साथ सबके चरण धोये और सबको यथायोग्य पीढ़ोंपर बैठाया। तब जनकजीने अवधपति दशरथजीके चरण धोये। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहुरि राम पद पंकज धोए।
जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी।
धोए चरन जनक निज पानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको धोया, जो श्रीशिवजीके हृदय-कमलमें छिपे रहते हैं। तीनों भाइयोंको श्रीरामचन्द्रजीके ही समान जानकर जनकजीने उनके भी चरण अपने हाथोंसे धोये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे।
बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे।
कनक कील मनि पान सँवारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकजीने सभीको उचित आसन दिये और सब परसनेवालोंको बुला लिया। आदरके साथ पत्तलें पड़ने लगीं, जो मणियोंके पत्तोंसे सोनेकी कील लगाकर बनायी गयी थीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥ ३२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर और विनीत रसोइये सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गायका (सुगन्धित) घी क्षणभरमें सबके सामने परस गये॥ ३२८॥

मूल (चौपाई)

पंच कवल करि जेवन लागे।
गारि गान सुनि अति अनुरागे॥
भाँति अनेक परे पकवाने।
सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग पंचकौर करके (अर्थात् ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा’ इन मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन करने लगे। गालीका गाना सुनकर वे अत्यन्त प्रेममग्न हो गये। अनेकों तरहके अमृतके समान (स्वादिष्ट) पकवान परसे गये, जिनका बखान नहीं हो सकता॥१॥

मूल (चौपाई)

परुसन लगे सुआर सुजाना।
बिंजन बिबिध नाम को जाना॥
चारि भाँति भोजन बिधि गाई।
एक एक बिधि बरनि न जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर रसोइये नाना प्रकारके व्यञ्जन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकारके (चर्व्य, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात् चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीकर खानेयोग्य) भोजनकी विधि कही गयी है, उनमेंसे एक-एक विधिके इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ २॥

मूल (चौपाई)

छरस रुचिर बिंजन बहु जाती।
एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी।
लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

छहों रसोंके बहुत तरहके सुन्दर (स्वादिष्ट) व्यञ्जन हैं। एक-एक रसके अनगिनती प्रकारके बने हैं। भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियोंके नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनिसे गाली दे रही हैं (गाली गा रही हैं)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

समय सुहावनि गारि बिराजा।
हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा।
आदर सहित आचमनु दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

समयकी सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाजसहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं। इस रीतिसे सभीने भोजन किया और तब सबको आदरसहित आचमन (हाथ-मुँह धोनेके लिये जल) दिया गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥ ३२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पान देकर जनकजीने समाजसहित दशरथजीका पूजन किया। सब राजाओंके सिरमौर (चक्रवर्ती) श्रीदशरथजी प्रसन्न होकर जनवासेको चले॥ ३२९॥

मूल (चौपाई)

नित नूतन मंगल पुर माहीं।
निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बड़े भोर भूपतिमनि जागे।
जाचक गुन गन गावन लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकपुरमें नित्य नये मङ्गल हो रहे हैं। दिन और रात पलके समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओंके मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुणसमूहका गान करने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता।
किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं।
महा प्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों कुमारोंको सुन्दर वधुओंसहित देखकर उनके मनमें जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है? वे प्रातःक्रिया करके गुरु वसिष्ठजीके पास गये। उनके मनमें महान् आनन्द और प्रेम भरा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि प्रनामु पूजा कर जोरी।
बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा।
भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृतमें डुबोयी हुई वाणी बोले— हे मुनिराज! सुनिये, आपकी कृपासे आज मैं पूर्णकाम हो गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं।
देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुन गुर करि महिपाल बड़ाई।
पुनि पठए मुनिबृंद बोलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामिन्! अब सब ब्राह्मणोंको बुलाकर उनको सब तरह (गहनों-कपड़ों) से सजी हुई गायें दीजिये। यह सुनकर गुरुजीने राजाकी बड़ाई करके फिर मुनिगणोंको बुलवा भेजा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥ ३३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वामदेव, देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियोंके समूह-के-समूह आये॥ ३३०॥

मूल (चौपाई)

दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे।
पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाईं।
काम सुरभि सम सील सुहाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने सबको दण्डवत् प्रणाम किया और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिये। चार लाख उत्तम गायें मँगवायीं, जो कामधेनुके समान अच्छे स्वभाववाली और सुहावनी थीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब बिधि सकल अलंकृत कीन्ही।
मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्ही॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू।
लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबको सब प्रकारसे (गहनों-कपड़ोंसे) सजाकर राजाने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणोंको दिया। राजा बहुत तरहसे विनती कर रहे हैं कि जगत् में मैंने आज ही जीनेका लाभ पाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

पाइ असीस महीसु अनंदा।
लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥
कनक बसन मनि हय गय स्यंदन।
दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ब्राह्मणोंसे) आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुए। फिर याचकोंके समूहोंको बुलवा लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ (जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुलको आनन्दित करनेवाले दशरथजीने दिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चले पढ़त गावत गुन गाथा।
जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू।
सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब गुणानुवाद गाते और ‘सूर्यकुलके स्वामीकी जय हो, जय हो, जय हो’ कहते हुए चले। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके विवाहका उत्सव हुआ। जिन्हें सहस्र मुख हैं वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥ ३३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

बार-बार विश्वामित्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर राजा कहते हैं—हे मुनिराज! यह सब सुख आपके ही कृपाकटाक्षका प्रसाद है॥ ३३१॥

मूल (चौपाई)

जनक सनेहु सीलु करतूती।
नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा।
राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथजी जनकजीके स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्यकी सब प्रकारसे सराहना करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्यानरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेमसे रख लेते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

नित नूतन आदरु अधिकाई।
दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनंद उछाहू।
दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकारसे मेहमानी होती है। नगरमें नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजीका जाना किसीको नहीं सुहाता॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहुत दिवस बीते एहि भाँती।
जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानंद तब जाई।
कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बहुत दिन बीत गये, मानो बराती स्नेहकी रस्सीसे बँध गये हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजीने जाकर राजा जनकको समझाकर कहा—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब दसरथ कहँ आयसु देहू।
जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए।
कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि आप स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजीको आज्ञा दीजिये। ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर जनकजीने मन्त्रियोंको बुलवाया। वे आये और ‘जय जीव’ कहकर उन्होंने मस्तक नवाया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥ ३३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जनकजीने कहा—) अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर (रनिवासमें) खबर कर दो। यह सुनकर मन्त्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेमके वश हो गये॥ ३३२॥

मूल (चौपाई)

पुरबासी सुनि चलिहि बराता।
बूझत बिकल परस्पर बाता॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने।
मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकपुरवासियोंने सुना कि बारात जायगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरेसे बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गये मानो सन्ध्याके समय कमल सकुचा गये हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

जहँ जहँ आवत बसे बराती।
तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना।
भोजन साजु न जाइ बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आते समय जहाँ-जहाँ बराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकारका सीधा (रसोईका सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकारके मेवे, पकवान और भोजनकी सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती—॥ २॥

मूल (चौपाई)

भरि भरि बसहँ अपार कहारा।
पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा।
सकल सँवारे नख अरु सीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनगिनत बैलों और कहारोंपर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गयी। साथ ही जनकजीने अनेकों सुन्दर शय्याएँ (पलँग) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नखसे शिखातक (ऊपरसे नीचेतक) सजाये हुए,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मत्त सहस दस सिंधुर साजे।
जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना।
महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओंके हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियोंमें भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहिरात) और भैंस, गाय तथा और भी नाना प्रकारकी चीजें दीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥ ३३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार) जनकजीने फिरसे अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालोंके लोकोंकी सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥ ३३३॥

मूल (चौपाई)

सबु समाजु एहि भाँति बनाई।
जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं।
बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनकने अयोध्यापुरीको भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गयीं, मानो थोड़े जलमें मछलियाँ छटपटा रही हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं।
देइ असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु संतत पियहि पिआरी।
चिरु अहिबात असीस हमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बार-बार सीताजीको गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं—तुम सदा अपने पतिकी प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशिष है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सासु ससुर गुर सेवा करेहू।
पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखीं सयानी।
नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सास, ससुर और गुरुकी सेवा करना। पतिका रुख देखकर उनकी आज्ञाका पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेहके वश कोमल वाणीसे स्त्रियोंके धर्म सिखलाती हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सादर सकल कुअँरि समुझाईं।
रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं।
कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदरके साथ सब पुत्रियोंको (स्त्रियोंके धर्म) समझाकर रानियोंने बार-बार उन्हें हृदयसे लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्माने स्त्रीजातिको क्यों रचा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥ ३३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय सूर्यवंशके पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी भाइयोंसहित प्रसन्न होकर विदा करानेके लिये जनकजीके महलको चले॥ ३३४॥

मूल (चौपाई)

चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए।
नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू।
कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वभावसे ही सुन्दर चारों भाइयोंको देखनेके लिये नगरके स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है—आज ये जाना चाहते हैं। विदेहने विदाईका सब सामान तैयार कर लिया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

लेहु नयन भरि रूप निहारी।
प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को जानै केहिं सुकृत सयानी।
नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानोंके (मनोहर) रूपको नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्यसे विधाताने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रोंका अतिथि किया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा।
सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
पाव नारकी हरिपदु जैसें।
इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरनेवाला जिस तरह अमृत पा जाय, जन्मका भूखा कल्पवृक्ष पा जाय और नरकमें रहनेवाला (या नरकके योग्य) जीव जैसे भगवान् के परमपदको प्राप्त हो जाय, हमारे लिये इनके दर्शन वैसे ही हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निरखि राम सोभा उर धरहू।
निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता।
गए कुअँर सब राज निकेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी शोभाको निरखकर हृदयमें धर लो। अपने मनको साँप और इनकी मूर्तिको मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रोंका फल देते हुए सब राजकुमार राजमहलमें गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥ ३३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

रूपके समुद्र सब भाइयोंको देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान् प्रसन्न मनसे निछावर और आरती करती हैं॥ ३३५॥

मूल (चौपाई)

देखि राम छबि अति अनुरागीं।
प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही न लाज प्रीति उर छाई।
सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखकर वे प्रेममें अत्यन्त मग्न हो गयीं और प्रेमके विशेष वश होकर बार-बार चरणों लगीं। हृदयमें प्रीति छा गयी, इससे लज्जा नहीं रह गयी। उनके स्वाभाविक स्नेहका वर्णन किस तरह किया जा सकता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए।
छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
बोले रामु सुअवसरु जानी।
सील सनेह सकुचमय बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने भाइयोंसहित श्रीरामजीको उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेमसे षट्‍रस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्रीरामचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी वाणी बोले—॥ २॥

मूल (चौपाई)

राउ अवधपुर चहत सिधाए।
बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु मुदित मन आयसु देहू।
बालक जानि करब नित नेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज अयोध्यापुरीको चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होनेके लिये यहाँ भेजा है। हे माता! प्रसन्न मनसे आज्ञा दीजिये और हमें अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाये रखियेगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू।
बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही।
पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन वचनोंको सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंने सब कुमारियोंको हृदयसे लगा लिया और उनके पतियोंको सौंपकर बहुत विनती की॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥

अनुवाद (हिन्दी)

विनती करके उन्होंने सीताजीको श्रीरामचन्द्रजीको समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा—हे तात! हे सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति (हाल) मालूम है। परिवारको, पुरवासियोंको, मुझको और राजाको सीता प्राणोंके समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसीके स्वामी! इसके शील और स्नेहको देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा।

सोरठा

मूल (दोहा)

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥ ३३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम पूर्णकाम हो, सुजानशिरोमणि हो और भावप्रिय हो (तुम्हें प्रेम प्यारा है)। हे राम! तुम भक्तोंके गुणोंको ग्रहण करनेवाले, दोषोंको नाश करनेवाले और दयाके धाम हो॥ ३३६॥

मूल (चौपाई)

अस कहि रही चरन गहि रानी।
प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥
सुनि सनेहसानी बर बानी।
बहुबिधि राम सासु सनमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर रानी चरणोंको पकड़कर (चुप) रह गयीं। मानो उनकी वाणी प्रेमरूपी दलदलमें समा गयी हो। स्नेहसे सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने सासका बहुत प्रकारसे सम्मान किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम बिदा मागत कर जोरी।
कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई।
भाइन्ह सहित चले रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयोंसहित श्रीरघुनाथजी चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंजु मधुर मूरति उर आनी।
भईं सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं।
बार बार भेटहिं महतारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी सुन्दर मधुर मूर्तिको हृदयमें लाकर सब रानियाँ स्नेहसे शिथिल हो गयीं। फिर धीरज धारण करके कुमारियोंको बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें (गले लगाकर) भेंटने लगीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी।
बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई।
बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रियोंको पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्परमें कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी (अर्थात् बहुत प्रीति बढ़ी)। बार-बार मिलती हुई माताओंको सखियोंने अलग कर दिया। जैसे हालकी ब्यायी हुई गायको कोई उसके बालक बछड़े (या बछिया) से अलग कर दे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥ ३३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब स्त्री-पुरुष और सखियोंसहित सारा रनिवास प्रेमके विशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता है) मानो जनकपुरमें करुणा और विरहने डेरा डाल दिया है॥ ३३७॥

मूल (चौपाई)

सुक सारिका जानकी ज्याए।
कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही।
सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीने जिन तोता और मैनाको पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोनेके पिंजड़ोंमें रखकर पढ़ाया था, वे व्याकुल होकर कह रहे हैं—वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनोंको सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात् सबका धैर्य जाता रहा)॥ १॥

मूल (चौपाई)

भए बिकल खग मृग एहि भाँती।
मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बंधु समेत जनकु तब आए।
प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पक्षी और पशुतक इस तरह विकल हो गये, तब मनुष्योंकी दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाईसहित जनकजी वहाँ आये। प्रेमसे उमड़कर उनके नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सीय बिलोकि धीरता भागी।
रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी।
मिटी महामरजाद ग्यान की॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे परम वैराग्यवान् कहलाते थे; पर सीताजीको देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजाने जानकीजीको हृदयसे लगा लिया। (प्रेमके प्रभावसे) ज्ञानकी महान् मर्यादा मिट गयी (ज्ञानका बाँध टूट गया)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

समुझावत सब सचिव सयाने।
कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार सुता उर लाईं।
सजि सुंदर पालकीं मगाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब बुद्धिमान् मन्त्री उन्हें समझाते हैं। तब राजाने विषाद करनेका समय न जानकर विचार किया। बारंबार पुत्रियोंको हृदयसे लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवायी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुअँरि चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥ ३३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारा परिवार प्रेममें विवश है। राजाने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजीका स्मरण करके कन्याओंको पालकियोंपर चढ़ाया॥ ३३८॥

मूल (चौपाई)

बहुबिधि भूप सुता समुझाईं।
नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥
दासीं दास दिए बहुतेरे।
सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने पुत्रियोंको बहुत प्रकारसे समझाया और उन्हें स्त्रियोंका धर्म और कुलकी रीति सिखायी। बहुत-से दासी-दास दिये, जो सीताजीके प्रिय और विश्वासपात्र सेवक थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी।
होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
भूसुर सचिव समेत समाजा।
संग चले पहुँचावन राजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीके चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मङ्गलकी राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मन्त्रियोंके समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचानेके लिये साथ चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

समय बिलोकि बाजने बाजे।
रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे।
दान मान परिपूरन कीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

समय देखकर बाजे बजने लगे। बरातियोंने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजीने सब ब्राह्मणोंको बुला लिया और उन्हें दान और सम्मानसे परिपूर्ण कर दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चरन सरोज धूरि धरि सीसा।
मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना।
मंगलमूल सगुन भए नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके चरणकमलोंकी धूलि सिरपर धरकर और आशिष पाकर राजा आनन्दित हुए और गणेशजीका स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मङ्गलोंके मूल अनेकों शकुन हुए॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुर प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥ ३३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर आनन्दपूर्वक अयोध्यापुरीको चले॥ ३३९॥

मूल (चौपाई)

नृप करि बिनय महाजन फेरे।
सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे।
प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथजीने विनती करके प्रतिष्ठित जनोंको लौटाया और आदरके साथ सब मंगनोंको बुलवाया। उनको गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी दिये और प्रेमसे पुष्ट करके सबको सम्पन्न अर्थात् बलयुक्त कर दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

बार बार बिरिदावलि भाषी।
फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं।
जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब बारंबार विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें रखकर लौटे। कोसलाधीश दशरथजी बार-बार लौटनेको कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि कह भूपति बचन सुहाए।
फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े।
प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥

अनुवाद (हिन्दी)

दशरथजीने फिर सुहावने वचन कहे—हे राजन्! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथजी रथसे उतरकर खड़े हो गये। उनके नेत्रोंमें प्रेमका प्रवाह बढ़ आया (प्रेमाश्रुओंकी धारा बह चली)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब बिदेह बोले कर जोरी।
बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौं कवन बिधि बिनय बनाई।
महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृतमें डुबोकर वचन बोले—मैं किस तरह बनाकर (किन शब्दोंमें) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥ ३४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यानाथ दशरथजीने अपने स्वजन समधीका सब प्रकारसे सम्मान किया। उनके आपसके मिलनेमें अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदयमें समाती न थी॥ ३४०॥

मूल (चौपाई)

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा।
आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता।
रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीने मुनिमण्डलीको सिर नवाया और सभीसे आशीर्वाद पाया। फिर आदरके साथ वे रूप, शील और गुणोंके निधान सब भाइयोंसे—अपने दामादोंसे मिले;॥ १॥

मूल (चौपाई)

जोरि पंकरुह पानि सुहाए।
बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौं केहि भाँति प्रसंसा।
मुनि महेस मन मानस हंसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सुन्दर कमलके समान हाथोंको जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेमसे ही जन्मे हों। हे रामजी! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूँ! आप मुनियों और महादेवजीके मनरूपी मानसरोवरके हंस हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

करहिं जोग जोगी जेहि लागी।
कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी।
चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगी लोग जिनके लिये क्रोध, मोह, ममता और मदको त्यागकर योगसाधन करते हैं, जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानन्द, निर्गुण और गुणोंकी राशि हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मन समेत जेहि जान न बानी।
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई।
जो तिहुँ काल एकरस रहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते; जिनकी महिमाको वेद ‘नेति’ कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानन्द) तीनों कालोंमें एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं;॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥ ३४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही समस्त सुखोंके मूल (आप) मेरे नेत्रोंके विषय हुए। ईश्वरके अनुकूल होनेपर जगत् में जीवको सब लाभ-ही-लाभ है॥ ३४१॥

मूल (चौपाई)

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई।
निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस सारद सेषा।
करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने मुझे सभी प्रकारसे बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पोंतक गणना करते रहें॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोर भाग्य राउर गुन गाथा।
कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मैं कछु कहउँ एक बल मोरें।
तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भी हे रघुनाथजी! सुनिये, मेरे सौभाग्य और आपके गुणोंकी कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बलपर कि आप अत्यन्त थोड़े प्रेमसे प्रसन्न हो जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बार बार मागउँ कर जोरें।
मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे।
पूरनकाम रामु परितोषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणोंको न छोड़े। जनकजीके श्रेष्ठ वचनोंको सुनकर, जो मानो प्रेमसे पुष्ट किये हुए थे, पूर्णकाम श्रीरामचन्द्रजी सन्तुष्ट हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करि बर बिनय ससुर सनमाने।
पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही।
मिलि सप्रेम पुनि आसिष दीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी और कुलगुरु वसिष्ठजीके समान जानकर ससुर जनकजीका सम्मान किया। फिर जनकजीने भरतजीसे विनती की और प्रेमके साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥ ३४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर राजाने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजीसे मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेमके वश होकर बार-बार आपसमें सिर नवाने लगे॥ ३४२॥

मूल (चौपाई)

बार बार करि बिनय बड़ाई।
रघुपति चले संग सब भाई॥
जनक गहे कौसिक पद जाई।
चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीकी बार-बार विनती और बड़ाई करके श्रीरघुनाथजी सब भाइयोंके साथ चले। जनकजीने जाकर विश्वामित्रजीके चरण पकड़ लिये और उनके चरणोंकी रजको सिर और नेत्रोंमें लगाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें।
अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं।
करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने कहा—) हे मुनीश्वर! सुनिये, आपके सुन्दर दर्शनसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मनमें ऐसा विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं; परन्तु (असम्भव समझकर) जिसका मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं,॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी।
सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई।
फिरे महीसु आसिषा पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे स्वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनोंकी अनुगामिनी अर्थात् पीछे-पीछे चलनेवाली हैं। इस प्रकार बार-बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे॥ ३॥

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