५५ बारातका जनकपुरमें आना और स्वागतादि

मूल (चौपाई)

कनक कलस भरि कोपर थारा।
भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधासम सब पकवाने।
नाना भाँति न जाहिं बखाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दूध, शर्बत, ठंढाई, जल आदिसे) भरकर सोनेके कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृतके समान भाँति-भाँतिके सब पकवानोंसे भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकारके सुन्दर बर्तन,॥ १॥

मूल (चौपाई)

फल अनेक बर बस्तु सुहाईं।
हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥
भूषन बसन महामनि नाना।
खग मृग हय गय बहु बिधि जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजाने हर्षित होकर भेंटके लिये भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकारकी मूल्यवान् मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरहकी सवारियाँ,॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंगल सगुन सुगंध सुहाए।
बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा।
भरि भरि काँवरि चले कहारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा बहुत प्रकारके सुगन्धित एवं सुहावने मङ्गल-द्रव्य और सगुनके पदार्थ राजाने भेजे। दही, चिउड़ा और अगणित उपहारकी चीजें काँवरोंमें भर-भरकर कहार चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अगवानन्ह जब दीखि बराता।
उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना।
मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगवानी करनेवालोंको जब बारात दिखायी दी, तब उनके हृदयमें आनन्द छा गया और शरीर रोमाञ्चसे भर गया। अगवानोंको सज-धजके साथ देखकर बरातियोंने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(बराती तथा अगवानोंमेंसे) कुछ लोग परस्पर मिलनेके लिये हर्षके मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले, और ऐसे मिले मानो आनन्दके दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥ ३०५॥

मूल (चौपाई)

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं।
मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें।
बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनन्दित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानीमें आये हुए) उन लोगोंने सब चीजें दशरथजीके आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेमसे विनती की॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा।
भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई।
जनवासे कहुँ चले लवाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथजीने प्रेमसहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकोंको दे दी गयीं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासेकी ओर लिवा ले चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं।
देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा।
जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विलक्षण वस्त्रोंके पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धनका अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुन्दर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकारका सुभीता था॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जानी सियँ बरात पुर आई।
कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं।
भूप पहुनई करन पठाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीने बारात जनकपुरमें आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलायी। हृदयमें स्मरणकर सब सिद्धियोंको बुलाया और उन्हें राजा दशरथजीकी मेहमानी करनेके लिये भेजा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥ ३०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरीके भोग-विलासको लिये हुए गयीं॥ ३०६॥

मूल (चौपाई)

निज निज बास बिलोकि बराती।
सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना।
सकल जनक कर करहिं बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

बरातियोंने अपने-अपने ठहरनेके स्थान देखे तो वहाँ देवताओंके सब सुखोंको सब प्रकारसे सुलभ पाया। इस ऐश्वर्यका कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजीकी बड़ाई कर रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिय महिमा रघुनायक जानी।
हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई।
हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी यह सब सीताजीकी महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदयमें हर्षित हुए। पिता दशरथजीके आनेका समाचार सुनकर दोनों भाइयोंके हृदयमें महान् आनन्द समाता न था॥ २॥

मूल (चौपाई)

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं।
पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी।
उपजा उर संतोषु बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजीसे कह नहीं सकते थे; परन्तु मनमें पिताजीके दर्शनोंकी लालसा थी। विश्वामित्रजीने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदयमें बहुत सन्तोष उत्पन्न हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए।
पुलक अंग अंबक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे।
मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसन्न होकर उन्होंने दोनों भाइयोंको हृदयसे लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया। वे उस जनवासेको चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासेकी ओर लक्ष्य करके चला हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥ ३०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजा दशरथजीने पुत्रोंसहित मुनिको आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुखके समुद्रमें थाह-सी लेते हुए चले॥ ३०७॥

मूल (चौपाई)

मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा।
बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई।
कहि असीस पूछी कुसलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपति दशरथजीने मुनिकी चरणधूलिको बारंबार सिरपर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। विश्वामित्रजीने राजाको उठाकर हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि दंडवत करत दोउ भाई।
देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे।
मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर दोनों भाइयोंको दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजाके हृदयमें सुख समाया नहीं। पुत्रोंको (उठाकर) हृदयसे लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःखको मिटाया। मानो मृतक शरीरको प्राण मिल गये हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए।
प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं।
मनभावती असीसें पाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने वसिष्ठजीके चरणोंमें सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठने प्रेमके आनन्दमें उन्हें हृदयसे लगा लिया। दोनों भाइयोंने सब ब्राह्मणोंकी वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा।
लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता।
मिले प्रेम परिपूरित गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीने छोटे भाई शत्रुघ्नसहित श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया। श्रीरामजीने उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयोंको देखकर हर्षित हुए और प्रेमसे परिपूर्ण हुए शरीरसे उनसे मिले॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥ ३०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर परम कृपालु और विनयी श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जातिके लोगों, याचकों, मन्त्रियों और मित्रों—सभीसे यथायोग्य मिले॥ ३०८॥

मूल (चौपाई)

रामहि देखि बरात जुड़ानी।
प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी।
जनु धन धरमादिक तनुधारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीको देखकर बारात शीतल हुई (रामके वियोगमें सबके हृदयमें जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गयी)। प्रीतिकी रीतिका बखान नहीं हो सकता। राजाके पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी।
मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना।
नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रोंसहित दशरथजीको देखकर नगरके स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाशमें) देवता फूलोंकी वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सतानंद अरु बिप्र सचिव गन।
मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना।
आयसु मागि फिरे अगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगवानीमें आये हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मन्त्रीगण, मागध, सूत, विद्वान् और भाटोंने बारातसहित राजा दशरथजीका आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रथम बरात लगन तें आई।
तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं।
बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बारात लग्नके दिनसे पहले आ गयी है, इससे जनकपुरमें अधिक आनन्द छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहे हैं और विधातासे मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जायँ (बड़े हो जायँ)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥ ३०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी सुन्दरताकी सीमा हैं और दोनों राजा पुण्यकी सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषोंके समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं॥ ३०९॥

मूल (चौपाई)

जनक सुकृत मूरति बैदेही।
दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे।
काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजीके सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजीके सुकृत देह धारण किये हुए श्रीरामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसीने शिवजीकी आराधना नहीं की; और न इनके समान किसीने फल ही पाये॥ १॥

मूल (चौपाई)

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं।
है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी।
भए जग जनमि जनकपुर बासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके समान जगत् में न कोई हुआ, न कहीं है, न होनेका ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्योंकी राशि हैं, जो जगत् में जन्म लेकर जनकपुरके निवासी हुए,॥ २॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह जानकी राम छबि देखी।
को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू।
लेब भली बिधि लोचन लाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जिन्होंने जानकीजी और श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखी है। हमारे-सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्रीरघुनाथजीका विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रोंका लाभ लेंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं।
एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई।
नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोयलके समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रोंवाली! इस विवाहमें बड़ा लाभ है। बड़े भाग्यसे विधाताने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रोंके अतिथि हुआ करेंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥ ३१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजीको बुलावेंगे, और करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर दोनों भाई सीताजीको लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥ ३१०॥

मूल (चौपाई)

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई।
प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी।
होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उनकी अनेकों प्रकारसे पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगरनिवासी श्रीराम-लक्ष्मणको देख-देखकर सुखी होंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सखि जस राम लखन कर जोटा।
तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए।
ते सब कहहिं देखि जे आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखी! जैसा श्रीराम-लक्ष्मणका जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजाके साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्णके हैं। उनके भी सब अङ्ग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आये हैं, वे सब यही कहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहा एक मैं आजु निहारे।
जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
भरतु रामही की अनुहारी।
सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकने कहा—मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजीने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्रीरामचन्द्रजीकी ही शकल-सूरतके हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा।
नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं।
उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनोंका एक रूप है। दोनोंके नखसे शिखातक सभी अङ्ग अनुपम हैं। मनको बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुखसे उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमाके योग्य तीनों लोकोंमें कोई नहीं है॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान्) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभाके समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुरकी सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाताको यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयोंका विवाह इसी नगरमें हो और हम सब सुन्दर मङ्गल गावें।

सोरठा

मूल (दोहा)

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥ ३११॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भरकर पुलकित शरीरसे स्त्रियाँ आपसमें कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्यके समुद्र हैं, त्रिपुरारि शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥ ३११॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं।
आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए।
देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदयको उमँग-उमँगकर (उत्साहपूर्वक) आनन्दसे भर रही हैं। सीताजीके स्वयंवरमें जो राजा आये थे, उन्होंने भी चारों भाइयोंको देखकर सुख पाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहत राम जसु बिसद बिसाला।
निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती।
प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका निर्मल और महान् यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गये। इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। जनकपुरनिवासी और बराती सभी बड़े आनन्दित हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंगल मूल लगन दिनु आवा।
हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू।
लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मङ्गलोंका मूल लग्नका दिन आ गया। हेमन्त-ऋतु और सुहावना अगहनका महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजीने उसपर विचार किया,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पठै दीन्हि नारद सन सोई।
गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता।
कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उस (लग्नपत्रिका) को नारदजीके हाथ (जनकजीके यहाँ) भेज दिया। जनकजीके ज्योतिषियोंने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगोंने यह बात सुनी तब वे कहने लगे—यहाँके ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥४॥

दोहा

मूल (दोहा)

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥ ३१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलोंकी मूल गोधूलिकी पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणोंने जनकजीसे कहा॥ ३१२॥

मूल (चौपाई)

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा।
अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए।
मंगल सकल साजि सब ल्याए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा जनकने पुरोहित शतानन्दजीसे कहा कि अब देरका क्या कारण है। तब शतानन्दजीने मन्त्रियोंको बुलाया। वे सब मङ्गलका सामान सजाकर ले आये॥ १॥

मूल (चौपाई)

संख निसान पनव बहु बाजे।
मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता।
करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

शङ्ख, नगाड़े, ढोल और बहुत-से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल-कलश और शुभ शकुनकी वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेदकी ध्वनि कर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

लेन चले सादर एहि भाँती।
गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू।
अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारातको लेने चले और जहाँ बरातियोंका जनवासा था, वहाँ गये। अवधपति दशरथजीका समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ।
यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा।
चले संग मुनि साधु समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने जाकर विनती की—) समय हो गया, अब पधारिये। यह सुनते ही नगाड़ोंपर चोट पड़ी। गुरु वसिष्ठजीसे पूछकर और कुलकी सब रीतियोंको करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओंके समाजको साथ लेकर चले॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥ ३१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवधनरेश दशरथजीका भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखोंसे उसकी सराहना करने लगे॥ ३१३॥

मूल (चौपाई)

सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना।
बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा।
चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवगण सुन्दर मङ्गलका अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानोंपर जा चढ़े॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू।
चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे।
निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

और प्रेमसे पुलकित-शरीर हो तथा हृदयमें उत्साह भरकर श्रीरामचन्द्रजीका विवाह देखने चले। जनकपुरको देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गये कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना।
रचना सकल अलौकिक नाना॥
नगर नारि नर रूप निधाना।
सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र मण्डपको तथा नाना प्रकारकी सब अलौकिक रचनाओंको वे चकित होकर देख रहे हैं। नगरके स्त्री-पुरुष रूपके भण्डार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं।
भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी।
निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर सब देवता और देवाङ्गनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गये जैसे चन्द्रमाके उजियालेमें तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजीको विशेष आश्चर्य हुआ; क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥ ३१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शिवजीने सब देवताओंको समझाया कि तुमलोग आश्चर्यमें मत भूलो। हृदयमें धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान् की महामहिमामयी निजशक्ति) श्रीसीताजीका और (अखिल ब्रह्माण्डोंके परम ईश्वर साक्षात् भगवान्) श्रीरामचन्द्रजीका विवाह है॥ ३१४॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं।
सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी।
तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका नाम लेते ही जगत् में सारे अमङ्गलोंकी जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठीमें आ जाते हैं, ये वही (जगत् के माता-पिता) श्रीसीतारामजी हैं; कामके शत्रु शिवजीने ऐसा कहा॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा।
पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता।
महामोद मन पुलकित गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शिवजीने देवताओंको समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वरको आगे बढ़ाया। देवताओंने देखा कि दशरथजी मनमें बड़े ही प्रसन्न और शरीरसे पुलकित हुए चले जा रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

साधु समाज संग महिदेवा।
जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी।
जनु अपबरग सकल तनुधारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणोंकी मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथमें ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किये हुए हों॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मरकत कनक बरन बर जोरी।
देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे।
नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरकतमणि और सुवर्णके रंगकी सुन्दर जोड़ियोंको देखकर देवताओंको कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई)। फिर श्रीरामचन्द्रजीको देखकर वे हृदयमें (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजाकी सराहना करके उन्होंने फूल बरसाये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥ ३१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

नखसे शिखातक श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर रूपको बार-बार देखते हुए पार्वतीजीसहित श्रीशिवजीका शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओंके) जलसे भर गये॥ ३१५॥

मूल (चौपाई)

केकि कंठ दुति स्यामल अंगा।
तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए।
मंगल सब सब भाँति सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामजीका मोरके कण्ठकी-सी कान्तिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजलीका अत्यन्त निरादर करनेवाले प्रकाशमय सुन्दर (पीत) रंगके वस्त्र हैं। सब मङ्गलरूप और सब प्रकारसे सुन्दर भाँति-भाँतिके विवाहके आभूषण शरीरपर सजाये हुए हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन।
नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुंदरताई।
कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमाके निर्मल चन्द्रमाके समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमलको लजानेवाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। (मायाकी बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कही नहीं जा सकती, मन-ही-मन बहुत प्रिय लगती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

बंधु मनोहर सोहहिं संगा।
जात नचावत चपल तुरंगा॥
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं।
बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथमें मनोहर भाई शोभित हैं, जो चञ्चल घोड़ोंको नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ोंको (उनकी चालको) दिखला रहे हैं और वंशकी प्रशंसा करनेवाले (मागध-भाट) विरुदावली सुना रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जेहि तुरंग पर रामु बिराजे।
गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा।
बाजि बेषु जनु काम बनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस घोड़ेपर श्रीरामजी विराजमान हैं, उसकी (तेज) चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं। उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकारसे सुन्दर है। मानो कामदेवने ही घोड़ेका वेष धारण कर लिया हो॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो श्रीरामचन्द्रजीके लिये कामदेव घोड़ेका वेष बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चालसे समस्त लोकोंको मोहित कर रहा है। सुन्दर मोती, मणि और माणिक्य लगी हुई जड़ाऊ जीन ज्योतिसे जगमगा रहा है। उसकी सुन्दर घुँघरू लगी ललित लगामको देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥ ३१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुकी इच्छामें अपने मनको लीन किये चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजलीसे अलङ्कृत मेघ सुन्दर मोरको नचा रहा हो॥ ३१६॥

मूल (चौपाई)

जेहिं बर बाजि रामु असवारा।
तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु राम रूप अनुरागे।
नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस श्रेष्ठ घोड़ेपर श्रीरामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शङ्करजी श्रीरामचन्द्रजीके रूपमें ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

हरि हित सहित रामु जब जोहे।
रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने।
आठइ नयन जानि पछिताने॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुने जब प्रेमसहित श्रीरामको देखा,तब वे (रमणीयताकी मूर्ति) श्रीलक्ष्मीजीके पति श्रीलक्ष्मीजीसहित मोहित हो गये। श्रीरामचन्द्रजीकी शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुर सेनप उर बहुत उछाहू।
बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना।
गौतम श्रापु परम हित माना॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके सेनापति स्वामिकार्तिकके हृदयमें बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजीसे डॺोढ़े अर्थात् बारह नेत्रोंसे रामदर्शनका सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रोंसे) श्रीरामचन्द्रजीको देख रहे हैं और गौतमजीके शापको अपने लिये परम हितकर मान रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं।
आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी।
नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी देवता देवराज इन्द्रसे ईर्ष्या कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्रके समान भाग्यवान् दूसरा कोई नहीं है। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओंके समाजमें विशेष हर्ष छा रहा है॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कह जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओरसे राजसमाजमें अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोरसे नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और ‘रघुकुलमणि श्रीरामकी जय हो, जय हो, जय हो’ कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारातको आती हुई जानकर बहुत प्रकारके बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियोंको बुलाकर परछनके लिये मङ्गलद्रव्य सजाने लगीं।

दोहा

मूल (दोहा)

सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥ ३१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारसे आरती सजकर और समस्त मङ्गलद्रव्योंको यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथीकी-सी चालवाली) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछनके लिये चलीं॥ ३१७॥

मूल (चौपाई)

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि।
सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा।
सकल बिभूषन सजें सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमाके समान मुखवाली) और सभी मृगलोचनी (हरिणकी-सी आँखोंवाली) हैं और सभी अपने शरीरकी शोभासे रतिके गर्वको छुड़ानेवाली हैं। रंग-रंगकी सुन्दर साड़ियाँ पहने हैं और शरीरपर सब आभूषण सजे हुए हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकल सुमंगल अंग बनाएँ।
करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं।
चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त अङ्गोंको सुन्दर मङ्गल पदार्थोंसे सजाये हुए वे कोयलको भी लजाती हुई (मधुर स्वरसे) गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियोंकी चाल देखकर कामदेवके हाथी भी लजा जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा।
नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी।
जे सुरतिय सुचि सहज सयानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारके बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानोंमें सुन्दर मङ्गलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभावसे ही पवित्र और सयानी देवाङ्गनाएँ थीं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कपट नारि बर बेष बनाई।
मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मंगल बानीं।
हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब कपटसे सुन्दर स्त्रीका वेष बनाकर रनिवासमें जा मिलीं और मनोहर वाणीसे मङ्गलगान करने लगीं। सब कोई हर्षके विशेष वश थे, अतः किसीने उन्हें पहचाना नहीं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौन किसे जाने-पहिचाने! आनन्दके वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्मका परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूलहको देखकर सब स्त्रियाँ हृदयमें हर्षित हुईं। उनके कमल-सरीखे नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंका जल उमड़ आया और सुन्दर अङ्गोंमें पुलकावली छा गयी।

दोहा

मूल (दोहा)

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥ ३१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका वरवेष देखकर सीताजीकी माता सुनयनाजीके मनमें जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पोंमें भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पोंमें भी नहीं कह सकते)॥ ३१८॥

मूल (चौपाई)

नयन नीरु हटि मंगल जानी।
परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू।
कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

मङ्गल-अवसर जानकर नेत्रोंके जलको रोके हुए रानी प्रसन्न मनसे परछन कर रही हैं। वेदोंमें कहे हुए तथा कुलाचारके अनुसार सभी व्यवहार रानीने भलीभाँति किये॥ १॥

मूल (चौपाई)

पंच सबद धुनि मंगल गाना।
पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा।
राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पञ्चशब्द (तन्त्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही—इन पाँच प्रकारके बाजोंके शब्द), पञ्चध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शङ्खध्वनि और हुलूध्वनि) और मङ्गलगान हो रहे हैं। नाना प्रकारके वस्त्रोंके पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानीने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्रीरामजीने मण्डपमें गमन किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

दसरथु सहित समाज बिराजे।
बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला।
सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥

अनुवाद (हिन्दी)

दशरथजी अपनी मण्डलीसहित विराजमान हुए। उनके वैभवको देखकर लोकपाल भी लजा गये। समय-समयपर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शान्ति-पाठ करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नभ अरु नगर कोलाहल होई।
आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए।
अरघु देइ आसन बैठाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश और नगरमें शोर मच रहा है। अपनी-परायी कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी मण्डपमें आये और अर्घ्य देकर आसनपर बैठाये गये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसनपर बैठाकर, आरती करके दूलहको देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर-के-ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मङ्गल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मणका वेष बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुलरूपी कमलके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥ ३१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाई, बारी, भाट और नट श्रीरामचन्द्रजीकी निछावर पाकर आनन्दित हो सिर नवाकर आशिष देते हैं; उनके हृदयमें हर्ष समाता नहीं है॥ ३१९॥

मूल (चौपाई)

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं।
करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे।
उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेमसे मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिये उपमा खोज-खोजकर लजा गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी।
इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे।
सुमन बरषि जसु गावन लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदयमें हार मानकर उन्होंने मनमें यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियोंका मिलाप या परस्पर सम्बन्ध देखकर देवता अनुरक्त हो गये और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

जगु बिरंचि उपजावा जब तें।
देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू।
सम समधी देखे हम आजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे कहने लगे—) जबसे ब्रह्माजीने जगत् को उत्पन्न किया, तबसे हमने बहुत विवाह देखे-सुने; परन्तु सब प्रकारसे समान साज-समाज और बराबरीके (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देव गिरा सुनि सुंदर साँची।
प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए।
सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी सुन्दर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गयी। सुन्दर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजीको आदरपूर्वक मण्डपमें ले आये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मण्डपको देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरतासे मुनियोंके मन भी हरे गये (मोहित हो गये)। सुजान जनकजीने अपने हाथोंसे ला-लाकर सबके लिये सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुलके इष्टदेवताके समान वसिष्ठजीकी पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजीकी पूजा करते समयकी परम प्रीतिकी रीति तो कहते ही नहीं बनती।

दोहा

मूल (दोहा)

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥ ३२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने वामदेव आदि ऋषियोंकी प्रसन्न मनसे पूजा की। सभीको दिव्य आसन दिये और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥ ३२०॥

मूल (चौपाई)

बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा।
जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई।
कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजीकी पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदनन्तर (उनके सम्बन्धसे) अपने भाग्य और वैभवके विस्तारकी सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥ १॥

मूल (चौपाई)

पूजे भूपति सकल बराती।
समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू।
कहौं काह मुख एक उछाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकजीने सब बरातियोंका समधी दशरथजीके समान ही सब प्रकारसे आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसीको उचित आसन दिये। मैं एक मुखसे उस उत्साहका क्या वर्णन करूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

सकल बरात जनक सनमानी।
दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ।
जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणीसे सारी बारातका सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्रीरघुनाथजीका प्रभाव जानते हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ।
कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें।
दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कपटसे ब्राह्मणोंका सुन्दर वेष बनाये बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजीने उनको देवताओंके समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनन्दकन्द दूलहको देखकर दोनों ओर आनन्दमयी स्थिति हो रही है। सुजान (सर्वज्ञ) श्रीरामचन्द्रजीने देवताओंको पहचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिये। प्रभुका शील-स्वभाव देखकर देवगण मनमें बहुत आनन्दित हुए।

दोहा

मूल (दोहा)

रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥ ३२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके मुखरूपी चन्द्रमाकी छबिको सभीके सुन्दर नेत्ररूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं; प्रेम और आनन्द कम नहीं है (अर्थात् बहुत है)॥ ३२१॥

मूल (चौपाई)

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए।
सादर सतानंदु सुनि आए॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई।
चले मुदित मुनि आयसु पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

समय देखकर वसिष्ठजीने शतानन्दजीको आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदरके साथ आये। वसिष्ठजीने कहा—अब जाकर राजकुमारीको शीघ्र ले आइये। मुनिकी आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

रानी सुनि उपरोहित बानी।
प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं।
करि कुलरीति सुमंगल गाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमती रानी पुरोहितकी वाणी सुनकर सखियोंसमेत बड़ी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणोंकी स्त्रियों और कुलकी बूढ़ी स्त्रियोंको बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुन्दर मङ्गलगीत गाये॥ २॥

मूल (चौपाई)

नारि बेष जे सुर बर बामा।
सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं।
बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ देवाङ्गनाएँ, जो सुन्दर मनुष्य-स्त्रियोंके वेषमें हैं, सभी स्वभावसे ही सुन्दरी और श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्थावाली) हैं। उनको देखकर रनिवासकी स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहचानके ही वे सबको प्राणोंसे भी प्यारी हो रही हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बार बार सनमानहिं रानी।
उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई।
मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वतीके समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। (रनिवासकी स्त्रियाँ और सखियाँ) सीताजीका शृंगार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मण्डपमें लिवा चलीं॥ ४॥

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